मौका मिले तो अपनी मिट्टी की तकदीर बदल देंगे घर लौटे मजदूर
पंकज चतुर्वेदी
कोरोना वायरस के कारण हो रहे लंबे लॉकडाउन के कारण अनुमान है कि आने वाले कुछ महीनों में कोई छह करोड़ लोगों के सामने नौकरी का संकट खड़ा होगा। देश के कुल रेाजगार का 88 प्रतिशत गैरनियोजित क्षेत्र से आता है और यही देष की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। असर तो औपचारिक क्षेत्र पर भी पड़ सकता है, लेकिन इसमें अधिकांश सरकारी व बड़ी कंपनियों है। जिन पर असर तो होगा लेकिन बहुत कम। लॉकडाउन की घोषणा होते ही षहरों व औद्योगिक क्षेत्रों से ग्रामीण क्षेत्र के कर्मचारियों गांव लौटने का जो सिलसिला शु रू हुआ, वह चालीस दिन बाद भी जारी है। कई जगह मजबूरी में रहना पड़ रहा है तो वहां आए दिन विद्रोह व बैचेनी का इजहार हो रहा है। भले ही बड़ी कंपनी के मालिक इस बात से आषंकित हैं कि अब ये मजदूर शायद ही वापिस लौटें और इसी को ले कर भविश्य के कल-कारखानों में काम का आकलन कर व्यावसायिक घराने देष की आर्थिक स्थिति, बेरोजगारी के आंकड़े जारी कर रहे हों लेकिन यही सरकार के लिए सटीक समय है कि देश की अर्थ गतिविधियों को फिर से ग्रामीण अंचल तक ले जाया जा सकता है। इसे भविष्य की संभावना के रूप में देखें तो ‘आपदा’ को ‘अवसर’ के रूप में भी बदला जा सकता है।
सन 2001 और 2011 के आंकड़ों की तुलना करें तो पाएंगे कि इस अवधि में शहरों की आबादी में नौ करोड़ दस लाख का इजाफा हुआ जबकि गावंो की आबादी नौ करोड़ पांच लाख ही बढ़ी। देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में सेवा क्षेत्र का योगदान 60 फीसदी पहंुच गया है जबकि खेती की भूमिका दिनो-दिन घटते हुए 15 प्रतिषत रह गई है। जबकि गांवोे की आबादी अभी भी कोई 68.84 करोड़ है यानी देष की कुल आबादी का दो-तिहाई। यदि आंकड़ों को गौर से देखें तो पाएंगे कि देष की अधिकांष आबादी अभी भी उस क्षेत्र में रह रही है जहां का जीडीपी षहरों की तुलना में छठा हिस्सा भी नहीं है।
कोविड-19 आपदा के कारण गांव लौटनेवालों की संख्या कई करोड़ में होगी । जान लें कि इतना बड़ा गांवंों की ओर ‘‘प्रतिलोम पलायन ’’ सरकार कभी भी नियोजित नहीं कर पाती। अभी एक साल पहले तक उत्तराखंड राज्य 1700 भुतहा गांवों के लिए बदनाम था। वहां बाकायदा पलायन आयोग बना और उसने अपनी रिपोर्ट में बताया कि क्यों पहाड़ पर गांव वीरान हो रहे हैं। कोरोना की बंदी के चलते गत दस दिनों में कोई 60 हजार लोग अपने ‘वतन’ लौट आए हैं और हर व्यक्ति अब कसम खा रहा है कि चाहे भूख रह जाएगा लेकिन वापिस नहीं लौटेगा। यह भी सच है कि घर लौटे कई लेाग कल-कारखानों में काम करते हुए अर्धकुषल तकनीकी कर्मचारी बन गए हैं तो कुछ एक महज चौकीदारी, घरेलू काम या निर्माण कार्य में ही पारंगत हैं । बहुत से लोग छोटी-मोटी लिपकीय दक्षता हांसिल कर चुके हैं। कई एक बैटरी रिक्ष या टैक्सी के ड्रायवर या मैकेनिक हो सकते हैं। मूल बात यह है कि ये सभी महानगरीय जीवन के कड़े परिश्रम और विशमताओं को झेलने में सक्षम हैं।
यह सटीक समय है कि हर जिले के हर गांव में वापिस लौंटे लोगों का एक रिकार्ड तैयार कर लिया जाए जिसमें उनकी आयु, वे क्या काम करते थे,कहां करते थे , शैक्षिक योग्यता का उल्लेख हो। साथ ही इसकी जानकारी भी हो कि यदि उनकी पत्नी या घर की महिला काम करती थी तो क्या करती थी, उनके बच्चे स्कूल जोते थे या नहीं । इन लोगों को फिर से महानगर जाने से रोकने की सबसे बड़ी चुनौती रोजगार की है । यदि अपने गांव में ही उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों , कृशि उत्पादों का उचित प्रबंधन, कुटीर उद्योग को बढ़ावा देने की दूरगामी योजना प्रत्येक जिले में निर्माण या अन्य कार्य में योग्यता के अनुसार लोगों को रोजगार देने की पहल की जाए तो ग्रामीण अर्थ व्यवस्था का सुदृढीकरण कठिन नहीं होगा। महानगरों की भीड़ कम होने से वहां मूलभूत सुविधाएं ध्वस्त होने, पर्यावरणीय संकट जैसी दिक्कतों से छुटकारा मिलेगा व उस पर व्यय होने वाले सरकारी बजट में कमी आएगी। इस प्रक्रिया से ग्रामीणेां की लगन, प्रतिभा और कौशल का उपयोग हो सकेगा एवं स्थानीय स्तर पर श्रम शक्ति को कुशलता से रोजगार की संभावना प्रबल होगी। मनरेगा या स्थानीय निर्माण कार्य में श्रकिों की आपूर्ति भी इसी डाटा बैंक से की जा सकती है।
यह जान लें कि पलायन रोकने व स्थानीय रोजगार के लिए जिला स्तर की ओर आने वाली सड़कों पर ही रोजगार के साधन स्थापित करना जरूरी है। जैसे कि देश में इन दिनों कई जगह टमाटर की बंपर फसल को सड़क पर फैंका जा रहा है या आलू के माकूल दाम नहीं मिल रहे या कर्नाटक में अंगूर व बस्तर में मिर्ची की बंपर फसल की बेकदरी है। इन सभी स्थानों पर दस से पचास लाख लागत के खाद्य प्रसंस्करण उद्योग की स्थापना से खेत से ले कर महिलाओं तक व शिक्षित लोगों को विपणन से ले कर कार्यालयीन कार्य तक में रोजगार दिया जा सकता हैं। किसान के आंसू तो पोंछे जा ही सकते हैं। उल्लेखनीय है कि महानगरों में मजदूरी करने गए अधिकांष लेागों के पास खेती तो है लेकिन बहुत छोटा रकबा। इससे सिंचाई या आधुनिक उपकरणों से बुवाई व कटाई उनके लिए संभव नहीं होती और श्रम आधारित खेती में उन्हे कुछ बचता नहीं। यह सटीक समय है कि ग्रामीण स्तर पर सहकारी खेती, फसल का सहकारी भंडारण व विपणन को शुरू किया जाए।
सबकुछ अपेक्षा गांव वालों से ही ना की जाए, आंचलिक स्तर पर षिक्षा, स्वास्थय, पेयजल, सड़क परिवहन पर भी काम करना होगा और इसकी कार्ययोजना जिला स्तर पर ही बने।
पशु धन, मुर्गी व मछली पालन, निरामिश भोजन का स्थानीय स्तर पर प्रसंस्करण , अनाज रखने के लिए बोरे तैयार करना, पॉलीथीन पाबंदी की दषा में कपड़ों के थैले या तात्कालिक मांग के अनुसार मास्क व गमछे तैयार करना , लाख, रेशम, मधुमक्खी पालन के साथ नारियल, जड़ीबूटी , बांस की खेती, स्थानीय भोज्य, शिल्प व अन्य पदार्थों की इंटरनेट की मदद से वैश्विक मार्केटिंग भी ऐसा कदम हो सकता है जो पूरे परिवार को घर-गांव में ही रोजगार दे। यदि सरकार आर्थिक समृद्धि के बड़ी कंपनियों और विशा ल उद्योगों के मॉडल को तिलांजलि दे दे , जिला स्तर पर स्थानीय उत्पाद पर आधांरित लघु व मध्यम उद्योग की स्थापना और साथ ही स्थानीय उत्पाद की बेहतरीन मार्केटिंग पर काम करे तो किसी संभावित छह करोड़ में से अस्सी फीसदी लोगों को बगैर पलायन के रोजगार दिया जा सकता है, लेकिन यह सबकुछ आने वाले तीन महीनों में ही करना होगा, वरना असंतोश, बेगारी इन्हें फिर से महानगरीय या औद्योगिक नारकीय जीवन की ओर ढकेल देगी।
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