चीन को चोट कर रहा है महिलाओं ‘देश राखी’ संकल्प
पंकज चतुर्वेदी
गलवान घाटी में चीन ने हमारे सैनिकों के साथ जो किया, उसका जवाब हमारी फौज और सरकार तो सलीके से दे ही रहे है, देश की आधी आबादी ने भी चीन की आर्थिक कमर तोड़ने का जो संकल्प लिया है, उसकी पहली किश्त में ही चीन को चार हजार करोड़ का घाटा महज रक्षाबंधन पर उठाना पड़ रहा है। गांव-कस्बों में महिलओं ने यह पक्का इरादा कर लिया है कि चाहे कुछ भी हो जाए चीन में निर्मित सामान का बहिश्कार करेंगे और रक्षा बंधन पर भाईयों की कलाई पर भारत में बनी निखालिस देशी राखी ही बंाध कर देश के लिए चीन के सामान के बहिश्कार की प्रतीज्ञा करवाएंगे।
भारत मे इस साल केवल भारत में निर्मित राखियां ही बेची जाएंगी। इससे न सिर्फ चीन को आर्थिक नुकसान पहुंचेगा बल्कि लॉकडाउन में नौकरी खो चुके लोगों को रोजगार भी मिल रहा है। यह सब तब संभव हो पाया जब औरतों ने ऐसा करने का ठान लिया। इसके लिए खास तौर पर देश के अलग-अलग शहरों में उन लोगों को राखियां बनाने की ट्रेनिंग दी जा रही है जिन महिलाओं का रोजगार लॉकडाउन में छूट गया था वे अपनी लोक परंपरा को जीवंत कर राखियों बनाने में जुअी हैं। सबसे बड़ी बात इन राख्यिों को तैयार करने में भी चीन से आए कच्चे माल से परहेज किया जा रहा है। विदित हो भारत में हर साल रक्षा बंधन के त्यौहार पर चीन को करीब चार हजार करोड़ रुपये का व्यापार मिलता है जो कि इस बार पूरी तरह से भारत के लोगों को ही मिलेगा।
चीनी आयात के खिलाफ भारत में बड़े पैमाने पर राखियां तैयार की जा रही हैं जिसमें दिल्ली के अलावा नागपुर, भोपाल, ग्वालियर, सूरत, कानपुर, तिनसुकिया, गुवाहाटी, रायपुर, भुवनेश्वर, कोल्हापुर, जम्मू , बंगलौर, चेन्नई, हैदराबाद, मुंबई, अहमदाबाद, लखनऊ, वाराणसी, झांसी, इलाहबाद आदि शहरों में राखियां बनवा कर व्यापारियों तक पहुंचाने का काम शुरू कर दिया गया है।
छत्तीसगढ़ के धमतरी में बनी अनोखी बांस और गोबर से तैयार राखियां दूर-दूर के व्यापारियों को बहुत भा रही हैं। सुदर, स्वदेशी और प्रकृति मित्र राखियों की मांग इतनी है कि उसकी पूर्ति करने में महिला कारीगर जी-जान से जुटी हैं। जिले के 20 स्वसहायता समूह की करीब 165 बहनें सनातन परंपरा में पवित्र माने जाने वाले बांस, गोबर से सुंदर-सुंदर राखियां गढ़ रहीं हैं। इनके भीतर बीज भी रख रहीं हैं ताकि जब राखी हाथ से उतरे तो उससे हरियाली पैदा हो। राखी को तैयार करने के लिए महिलाएं बांस के पतले छिलके को काटकर राखी का स्वरूप दे रही हैं। इसे चटख रंगों से रंगा गया है। इन पर करेला, लौकी, कुम्हड़ा, टमाटर, राजमा के बीजों से सजावट की गई है। यह बीज लगभग एक वर्ष तक खराब नहीं होंगे। राखी में उपयोग हो रहे बीज किसानों के खेत से लिए जा रहे हैं। समूह की महिलाएं रेशम धागा, मौली धागा से राखी बनाई हैं। इसके अतिरिक्त गेहूं, धान, चावल, मूंग मोर पंख, कौड़ी, शंख तथा पैरा से भी देशी राखी बनाने का काम कर रही हैं।
विदित हो चीन की राखियों में अधिकांश प्लास्टिक का ज्यादा इस्तेमाल होता था जो कि पर्यावरण में कचरे का इजाफा करता था। गोर या बांस के नश्ट हाने पर धरती की उर्वरा ही संपन्न होगी। जिले में पहली बार बिहान योजना के तहत ग्रामीण महिलाओं को रोजगार दिलाने व चाइना की राखियों को बाजार से बाहर करने के उद्देश्य से तैयार की जा रहीं हैं। करीब 25 हजार राखियां बनाने का लक्ष्य है। अब तक करीब 10 हजार राखियां तैयार हो गईं हैं। 1200 राखियों का ऑर्डर भी आ चुका है। राखियों को बेचने की व्यवस्था भी की जा रही है। इनकी कीमत 20 से 200 रुपए तक है। ऐसा नहीं कि पारंपरिक कला से राखी बन रही हैं तो इसमें बच्चों की आधुनिक पसंद को अछूता रखा गया है। बच्चों के लिए छोटा भीम, डोरेमोन, बाल गणेशा व बड़ों के लिए बांस, कुमकुम, सब्जियों के बीज, गोबर की राखियां बनी है। बच्चों की राखी को क्रोशिया के एम्ब्रायडरी धागों से बनाया जा रहा है। इसे ‘ओज’ राखी नाम दिया है। बांस के बीज से बनी राखियां बनाई जा रही हैं। इसी तरह ‘‘भाभी-ननद’’ के लिए कुमकुम अक्षत राखी और बांस की जोड़ीदार राखी बनाई जा रही है। यदि यह प्रयोग सफल होता है तो एक साल में ही दूरस्थ अंचलों तक चीन से आने वाली राखियों का कोई पूछनहार नहीं मिलेगा।
मातृ मंडल, सेवा भारती, आगरा के तहत आने वाले वैभवश्री समूह की सदस्य नारी षक्ति राखी बनाने का काम कर रही हैं। इसके लिए पांच सौ महिलाओं को ऑनलाइन और ऑफलाइन प्रशिक्षण दिया गया। यह महिलाएं अब अपने घरों में राखी तैयार कर रही हैं। पहले सिर्फ धागे बनाने की योजना थी, लेकिन अब राखियां भी तैयार की जा रही हैं। उत्तर प्रदेश के ही चंदौली में स्वयं सहायता समूह की महिलाओं ने आपदा को भी अवसर बना लिया है। समसामयिक पर्वों को भी अपनी आजीविका का सहारा बना ले रही हैं। मास्क व यूनिफार्म सिलाई के बाद उनका रक्षाबंधन पर जोर है। तरह-तरह की 50 हजार लुभावनी राखी तैयार कर बाजार में अपने हुनर का प्रदर्शन करेंगी। पांच से 25 रुपये तक कीमत वाली उनके हाथों से बनाई गई राखी भाइयों की कलाई की शोभा बनेंगी। भारतीय अर्थ व्यवस्था को सशक्त करने का यह प्रयोग भले ही छोटा लग रहा हो लेकिन इससे उपजी जागरूकता के चलते बनारस, कानपुर, बरेली, झांसी कई एक जगह औरतें रक्षाबंधन को पूर्ण भारतीय उत्पाद का र्व बनाने में जुट गई हैं।
मध्यप्रदेश के सतना में ‘आओ बहना एक राखी बनाएं’ बहुत सफल रहा और वहां छोटी उम्र की बच्चियों भी इसके लिए आगे आईं। इंदौर के सांसद शंकर लालवानी भी शहर के 22 गैर सरकारी संगठनों से जुड़ी महिलाओं की मदद से एक लाख स्वदेशी राखियां बनवा रहे हैं ताकि स्थानीय बाजार में चीन से आने वाली राखियों को चुनौती दी जा सके।
रक्षाबंधन के बाद गणपति, फिर नवरात्रि, दशहरा, दीपावली तक अब आने वाले कई महीनों तक पर्व-त्योहार की श्रंखला है और चीनी उत्पादकों ने मिट्टी की मटकी या कलश के स्थान पर प्लास्टिक के बर्तन से ले कर संदर दिखने वाली कम कीमत की देव प्रतिमाओं, घरेलू सजावट के सामान से ले कर पूजा सामग्री तक कब्जा कर रखा है। यदि स्थानीय उत्पाद की मुहिम में महिलओं की भूमिका, भागीदारी व सक्रियता ऐसी ही रही तो हमारे पारंपरिक कला, लोक संस्कृति और मूल्यों को फिर से स्थान तो मिलेगा ही, कोरोना के कारण सुस्त पड़े बाजार को भी नई प्राण वायु मिलेगी। चीन को तो इसकी गहरी चोट होगी ही।
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