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शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

Negligence on mental health is effecting countries wealth


मन के विकार के निदान में बेमन


पंकज चतुर्वेदी


एक उभरते हुए, सफल और लोकप्रिय अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्म हत्या और कोविड-19 त्रासदी से उपजी बेरोजगारी- तन्हाई और भय ने देश के सामने मानसिक रोग को ले कर नया सवाल खड़ा कर दिया है। विडंबना है कि जिस गति से यह संकट हमारे समाज के सामने खड़ा हो रहा है, इससे निबटने की हमारी तैयारी बहुत ही मंथर है। अंतरराश्ट्रीय पत्रिका ‘लैंसेट’ की ताजा रिपोर्ट कहती है कि भारत में आबादी का कोई 15 फीसदी हिस्सा या 19.73 करोड़ लोग किसी ना किसी तरह की मानसिक व्याधियों से जूझ रहे हैं। इनमें 4.57 करोड़ लोग डिप्रेशन या अवसाद तथा 4.49 करोड़ लोग एंजाइटी या घबराहट के शिकार हैं। अभी तीन साल पहले ही विश्व स्वास्थ्य संगठन और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान(एम्स) के एक शोध  से पता चला था कि देश में चौथी सबसे बड़ी बीमारी अवसाद या डिप्रेशन है। इनमें से आधे से ज्यादा लोगों को यह ही पता नहीं है कि उन्हें किसी इलाज की जरूरत है। यही नहीं आज देश की सबसे बड़ी दूसरी बीमारी हार्ट अटैक के बाद अवसाद को कहा जा रहा है। बढ़ती जरूरतें, जिंदगी में बढ़ती भागदौड़, रिश्तों के बंधन ढ़ीले होना; इस दौर की कुछ ऐसी त्रासदियां हैं जो इंसान को भीतर ही भीतर खाए जा रही है। ये सब ऐसे विकारों को आमंत्रित कर रहा है, जिनके प्रारंभिक लक्षण नजर आते नहीं हैं, जब मर्ज बढ़ जाता है तो बहुत देर हो चुकी होती है। विडंबना है कि सरकार में बैठे नीति-निर्धारक मानसिक बीमारियों को अभी भी गंभीरता से नहीं ले रहे हैं।  

इसे हास्यास्पद कहें या शर्म कि ‘जय विझान’ के युग में मनोविकारों को एक रोग के बनिस्पत ऊपरी व्याधा या नियति समझने वालों की संख्या बहुत अधिक है । तभी ऐसे रोगों के इलाज के लिए डाक्टरों के बजाए पीर-फकीरों, मजार-मंदिरों पर अधिक भीड़ होती है । सामान्य डाक्टर मानसिक रोगों को पहचानने और रोगियों को मनोचिकित्सक के पास भेजने में असमर्थ रहते हैं । इसके चलते ओझा,पुरोहित,मौलवी,तथाकथित यौन विशेषझ अवैध रूप से मनोचिकित्सक का दुष्कार्य कर रहे हैं ।

अवसाद केवल रोगी के परिवार के लिए ही चिंता का विषय  नहीं है, यह देश के विकास की गति में भी बाधक है। अनुमान है कि अवसाद के कारण यदि किसी व्यक्ति की कार्य क्षमता प्रभवित होती है तो वह अर्थ व्यवस्था को औसतन दस हाजर डालर प्रतिवर्ष  का नुकसान करता है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि भारत में 15 साल से कम उम्र के बच्चे भी अवसाद के शिकार हो रहे हैं। 

विश्व स्वास्थ संगठन ने ‘स्वास्थ’ की परिभाषा में स्पष्ट किया है कि ‘‘शारीरिक,मानसिक और सामाजिक रूप से स्वास्थ की अनुकूल चेतना । ना कि केवल बीमारी की गैर मौजूदगी ।’’  इस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य, एक स्वस्थ शरीर का जरूरी हिस्सा है । यह हमारे देश की कागजी राष्ट्रीय स्वास्थ नीति में भी दर्ज है । वैसे 1982 में मानसिक स्वास्थ कार्यक्रम शुरू हुआ था । आम डाक्टर के पास आने वाले आधे मरीज मरीज उदासी,भूख,नींद, और सेक्स इच्छा में कमी आना,हस्त मैथुन,स्वप्न दोष जैसी शिकायतें ले कर आते हैं । वास्तव में वे किसी ना किसी मानसिक रोग के शिकार होते हैं ।
इतने लोगों के इलाज के लिए कोई 32 हजार मनोचिकित्सकों की जरूरत है, जबकि देशभर में इनकी संख्या बामुश्किल नौ हजार है यानी एक लाख पर एक से भी कम औसतन 0.75 डाक्टर। इनमें भी तीन हजार तो चार महानगरों तक ही सिमटे हैं।  यह रोग भयावह है और इसका इलाज भी लंबे समय तक चलता है जोकि खर्चीला भी है। इसक बावजूद कोई भी स्वास्थ्य बीमा योजना में इसे शामिल नहीं किया गया। 15 जून 2020 को सुप्रीम कोर्ट से बीमा नियामक संस्था से यह पूछा भी है कि मानसिक रोग को बीमा सुविधा क्यों नही है। उधर सरकारी स्तर पर स्वास्थ्य सेवाएं बिल्कुल उपेक्षित हैं। सन 2018-19 में केद्र सरकार का इस मद में सालाना बजट 50 करोड़ था जो कि सन 19-20 में घटा कर चालीस करोड़ कर दिया गया - सालान प्रति व्यक्ति महज चार रूपए। 
दिनों दिन बढ़ रही भौतिक लिप्सा और उससे उपजे तनावों व भागमभाग की जिंदगी के चलते भारत में मानसिक रोगियों की संख्या पश्चिमी देशों से भी ऊपर जा रही है । विशेष रूप से महानगरों में ऐसे रोग कुछ अधिक ही गहराई से पैठ कर चुके हैं ।  दहशत और भय के इस रूप को फोबिया कहा जाता है ।इसकी शुरुआत होती है चिडचिडेपन से । बात-बात पर बिगड़ना और फिर जल्द से लाल-पीला हो जाना ऐसे ‘रोगियों’ की आदत बन जाती हैं । काम से जी चुराना, बहस करना और खुद को सच्चा साबित करना इनके प्रारंभिक लक्षण हैं । भय की कल्पनाएं इन लोगों को इतना जकड़ लेती हैं कि उनका व्यवहार बदल जाता है  जल्दी ही दिमाग प्रभावित होता है और पनप उठते है मानसिक रोग । 
जहां एक ओर मर्ज बढ़ता जा रहा है, वहीं हमारे देश के मानसिक रोग अस्पताल सौ साल पुराने पागलखाने  के खौफनाक रूप से ही जाने जाते हैं । ये जर्जर,डरावनी और संदिग्ध इमारतें मानसिक रोगियों की यंत्रणाओं, उनके प्रति समाज के उपेक्षित रवैए और सरकारी उदासीनता की मूक गवाह हैं । तभी सन 2017 में 10,246 और सन 2018 में 10,134 मानसिक रोगियों ने आत्महत्या कर ली थी। 
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राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग मानता रहा है कि देश भर के पागलखानों की हालत बदतर है । इसे सुधारने के लिए कुछ साल पहले बंगलौर के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ और चेतना विझान संस्थान (निमहान्स) मे एक परियोजना शुरू की गई थी । लेकिन उसके किसी सकारात्मक परिणाम की जानकारी नहीं है । यह परियोजना भी नाकाफी संसाधनों का रोना रोते हुए फाईलों में ठंडी हो गई । हमारे देश की सवा अरब को पार कर गई आबादी के लिए केवल 43 सरकारी मानसिक  रोग अस्पताल हैं, इनमें से मनोवैज्ञानिक इलाज की व्यवस्था महज तीन जगह ही है। इन अस्पतालों में 21,000 बिस्तर हैं जो जरूरत का एक फीसदी भी नहीं है । यहां तक कि जरूरत की पचास फीसदी नर्स भी उपलब्ध नहीं हैं। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ कार्यक्रम की एक रिपोर्ट भी इस बात का प्रमाण है कि ऐसे रोगियों की बड़ी संख्या इलाज का खर्च उठाने में असमर्थ है । सरकारी अस्पतालों के नारकीय माहौल में जाना उनकी मजबूरी होता है । आज भी अधिकांश मानसिक रोगी बगैर इलाज के अपने हाल में अमानवीय हालात में जीने को मजबूर हैं।

 पंकज चतुर्वेदी
 
9891928376



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