असम की राजधानी गुवाहाटी से कोई 225 किलोमीटर दूर गोलाघाट व नगांव जिले में 884 वर्ग किलोमीटर में फैले कांजीरंगा उद्यान की खासियत एक सींग का गैंडा है. इस प्रजाति के सारी दुनिया में उपलब्ध गैंडों का दो-तिहाई हिस्सा इसी क्षेत्र में है.
इसके अलावा बाघ, हाथी, हिरण, जंगली भैंसा, जंगली बनैला जैसे कई जानवर यहां हैं. सनद रहे, 1905 में वायसराय लाॅर्ड कर्जन की पत्नी ने इस इलाके का दौरा किया, तो यहां संरक्षित वन का प्रस्ताव हुआ, जो 1908 में स्वीकृत हुआ. साल 1916 में इसे शिकार के लिए संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया. फिर 1950 में वन्य जीव अभ्यारण, 1968 में राष्ट्रीय उद्यान और 1974 में विश्व धरोहर बनाया गया.
ताजा गणना में यहां 2413 गैंडे, 1089 हाथी, 104 बाघ, 907 हाॅग हिरण, 1937 जंगली भैंसे आदि जानवर पाये गये थे. पिछले कुछ सालों में यहां चौकसी भी तगड़ी हुई है, सो शिकारी अपेक्षाकृत कम सफल रहे हैं. हालांकि इस बार बरसात सामान्य ही है, फिर भी ब्रह्मपुत्र के दक्षिणी बाढ़ प्रभावित इलाके में बसे कांजीरंगा के जानवरों के लिए काल बन कर आयी है. साल 2016 में कोई डेढ़ हेक्टेयर क्षेत्रफल वाले 140 ऐसे ऊंचे टीले बनाये गये थे, जहां वे पानी भरने पर सुरक्षित आसरा बना सकें.
ये टीले चार से पांच मीटर ऊंचाई के हैं. पिछले साल ऐसे ही जल विप्लव में 20 गैंडे, एक हाथी, कई हिरण व अन्य जानवर मारे गये थे. इस बार 183 सुरक्षित ठिकानों में से 70 जलमग्न हो चुके हैं. अनेक क्षेत्रों में गहरा पानी है. यहां सबसे बड़ी समस्या है कि पानी से बचने के लिए जानवर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 37 पर आ जाते है और तेज रफ्तार वाहनों की चपेट में आ जाते हैं. हालांकि प्रशासन वाहनों की गति सीमित रखने की चेतावनी जारी करता है, लेकिन मूसलाधार बारिश में यातायात को नियंत्रित करना मुश्किल होता है.
वैसे इस संरक्षित पार्क में जानवरों के विचरण के आठ पारंपरिक मार्गो को संरक्षित रखा गया है, लेकिन बाढ़ के पानी ने सब कुछ अस्त-व्यस्त कर दिया है. वन के दूसरे छोर पर कार्बी आंगलांग का पठार है. सदियों से जानवर ब्रह्मपुत्र के कोप से बचने के लिए यहां शरण लेते रहे हैं और इस बार भी जिन्हें रास्ता मिला, वे वहीं भाग रहे हैं. दुर्भाग्य है कि वहां उनका इंतजार दूसरे किस्म का काल करता है. इस इलाके में कई आतंकी गिरोह सक्रिय हैं, जिनका मूल धंधा जानवरों के अंगों की तस्करी है. इसमें शीर्ष पर गैंडे का सींग है. एक सींग का वजन एक किलो तक होता है और इसकी स्थानीय कीमत कम से कम अस्सी लाख है, जो बाहर तीन करोड़ तक हो जाती है.
असम में समुचित विकास न होने का कारण हर साल पांच महीने ब्रह्मपुत्र का रौद्र रूप है, जो पलक झपकते ही सालभर की मेहनत को चाट जाता है. वैसे तो यह नद सदियों से बह रहा है और बाढ़ से पार्क का क्षेत्र निर्मित हुआ है, लेकिन बीते कुछ सालों से इसकी तबाही का विकराल रूप सामने आ रहा है. इसका बड़ा कारण विकास और प्रबंधन के नाम पर इंसान के प्रयोग भी हैं. हालिया बाढ़ हिमालय के ग्लेशियर क्षेत्र में मानवजन्य छेड़छाड़ का ही परिणाम हैं.
जानवरों की जिंदगी से स्थानीय लोगों को कोई सरोकार है नहीं, न ही उनकी मौत पर किसी के वोट बैंक पर असर होता है, सो काजीरंगा की नैसर्गिक सरिताओं व जल-मार्गों पर कहीं सड़कें बना दी जाती हैं, तो कहीं उन्हें पर्यटकों के अनुरूप अवरूद्ध किया जाता है. तभी पानी बहने के बजाय एकत्र हो जाता है. साल 1915 से अब तक इस जंगल की कोई 150 वर्ग किलोमीटर जमीन कट कर नदी में उदरस्थ हो चुकी है. सरकार भले ही वन के परिक्षेत्र को बढ़ाने के लिए नये इलाके शामिल कर रही हो, लेकिन हकीकत में वहां की जमीन लगातार कम हो रही है.
आज जरूरत है कि नदी तट के लगभग 20 किलोमीटर इलाके में पक्के मजबूत तटबंध या अन्य व्यवस्था से भूक्षरण को रोका जाये. बाढ़ तो प्राकृतिक आपदा है, लेकिन इसमें फंस कर इतनी बड़ी संख्या में जानवरों का मारा जाना तंत्र की नाकामी है. कभी 11 स्पीड बोट भी खरीदी गयी थीं, आज उनमें से एक भी उपलब्ध नहीं है. बचाव के लिए दूरगामी योजना बनाना अनिवार्य है क्योंकि जंगल में दूसरा खतरा पानी उतरने के बाद शुरू होता है, जब दलदल बढ़ जाता है, सूखा पर्यावास बचता नहीं और पानी मरे जानवरों के सड़ने से दूषित हो जाता है.
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