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शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

Why should there not be a library in every hospital

फिर क्यों ना हो हर अस्पताल में पुस्तकालय

पंकज चतुर्वेदी

मई के दूसरे सप्ताह में दिल्ली से सटे गाजियाबद में कोरोना के मरीजों के मिलने का सिलसिला तेज था, मरीज भी भय और भ्रम के चलते बदवहास से थे। उनके लिए एकांतवास या क्वारंटीन किसी सजा की तरह था। आए रोज एकांतवास केंद्रो से मरीजों के झगडे या तनाव की खबरें आ रही थीं। तभी जिला प्रषासन ने नेषनल बुक ट्रस्ट के सहयोग से कोई 200 बच्चें की पुस्तकें वहां वितरित कर दीं। उस समय 65 महिलाओं सहित लगभग 250 लोगों को कोविड-19 के सामान्य लक्षण या एहतियात के तौर पर एकांतवास शिविर  में थे। रंगबिरंगी पुस्तकों ने कुछ ही दर में उनके दिल में जगह बना ली, कोई जोर-जोर से पढ़ कर दूसरे को सुना रहा था तो कोई चित्र देख कर ही खुश  थे। जहां एक-एक पल बिताना मुश्किल  हो रहा था, उनका समय पंख लगा कर उड़ गया। डॉक्टर्स ने भी माना कि पुस्तकों ने क्वारंटीन किए गए लोगों को तनावरहित बनाया, उन्हें गहरी नींद आई और सकारात्मकता का संचार भी हुआ। इससे उनके स्वस्थ्य होने की गति भी बढ़ी | इसी को देख कर दिल्ली में भी छतरपुर स्थित राधास्वामी सतसंग में बनाए गए विश्व  के सबसे बड़े क्वारंटीन सेंटर में हजारों पुस्तकों के साथ लायब्रेरी शुरू  करने की पहल की गई है। यहा नेशनल बुक ट्रस्ट ने एक हज़ार किताबों के साथ उनकी पत्रिका - पाठक मंच बुलेटिन ओर पुस्तक संस्कृति के सौ -सौ अंक भी रखे हैं |


वैसे दुनिया के विकसित देशों  के अस्पतालो में पुस्तकालय की व्यवस्था का अतीत सौ साल से भी पुराना है। अमेरिका में 1917 में सेना के अस्पतालों में कोई 170 पुस्तकालय स्थापित कर दिए गए थे। ब्रिटेन में सन 1919 में वार लायब्रेरी की शुरू आत हुई। इसके बाद आज अधिकांश  यूरोपीय देशों  के अस्पतालों में मरीजों को व्यस्त रखने, उन्हें ठीक होने का भरोसा देने के लिए उन्हें ऐसी पुस्तकों प्रदान करने की व्यवस्था हैं। आस्ट्रेलिया के सार्वजनिक अस्पतालों में तो ऐसे पुस्तकालय हैं जहां से आम लोग अर्थात जो मरीज नहीं हैं, वे भी पुस्तकें पढ़ने के लिए ले सकते हैं। इंग्लैंड के मैनचेस्टर का क्रिस्टी कैंसर अस्पताल का पुस्तकालय तो बहुत बड़ा और अनूठा है, वहां पुस्तकों का वर्गीकरण रंगों में है-जैसे पर्यावरण की पुस्तकें हरे रंग का बैज, जानवरों की पुस्तकें भूरे रंग का बैज- जो मरीज या उनका तिमारदार जितनी अधिक पुस्तकें पढता है, उसे उस रंग के उतने ही बैज मिलते हैं और वह अस्ताल से विदा होते समय उन रंग से संबंधित कोई किताब उपहार में पाने का हकदार होता है। ऐसे ही कई प्रयोग स्पैन और जर्मनी के अस्पतालों में पुस्तकालयों की भीड़ व आकर्षण  बढ़ाने का कारक बने हुए हैं। जापान के अस्पतालों में बच्चों की किताबे ढेर सारी  मिल जाती हैं ओर उन्हें अक्सर वयस्क ही पढते हैं |


भारत में अंदाजन अडतीस हजार अस्पताल हैं जिनमें कोई आठ लाख से अधिक मरीज हर दिन भर्ती होते हैं। इनके साथ तिमारदार भी होते हैं तो मोटा अनमान है कि कोई बीस लाख लोग चौबीसों घंटे अस्पताल परिसर में होते हैं। इनमें बीस फीसदी ही बेहद गंभीर होते हैं,  शेष लोग बुद्धि से चैतन्य और ऐसी अवस्था में होते हैं जहां उन्हें बिस्तर पर लेटने या बाहर अपने मरीज का इंतजार करना एक उकताहट भरा काम होता है। आमतौर पर बड़े अस्पतालों में अब तिमारदारों के लिए बने प्रतीक्षा कक्ष और निजी कक्ष में भर्ती मरीजों के लिए टीवी की व्यवस्था कर दी गई है।  इन टेलीविजन पर या तो सांप्रदायिक, बेवजह सनसनी फैलाने वाली खबरें या विमर्ष या फिर अपराध-साजिश - प्रतिघात वाले सोप ऑपेरा चलते रहते हैं। ऐसे कार्यक्रम मरीज के रक्तचाप को प्रभावित करते है। और बैचेनी  बढ़ाते हैं, वहीं अपने मरीज के स्वास्थय के लिए पहले से चिंतित और समय काट रहे तिमारदार के लिए भी या सबकुछ देखना महज समय को काटना ही होता है। यदि मरीज या उनका तिमारदार टेलीविजन ना देखे तो वह मोबाईल में व्यस्त रहता है। मोबाईल भी इन दिनो अफवाह, झूठे दावों के प्रसार का माध्यम बना है। मरीज के जल्दी स्वस्थ होने की लालसा हो या बाहर बैठे उनके रिश्तेदार  या शुभचिंतक , मोबाईल के लगातार इस्तेमाल से अपनी आंख की रेाषनी और गैरप्रामाणिक सूचनाओं के जाल में उलझे हैरान-परेशान से ही रहते हैं।

यह सर्वविदित हैं कि पुस्तकें एकांत में सबसे अच्छा साथ निभाती हैं। ये काले छपे हुए षब्द दर्द और उदासी के दौर में दवा का काम करते हैं। हर किसी की जिंदगी में कुछ अच्छी किताबों का होना जरूरी है। किताबें सिर्फ मनोरंजन या इम्तेहान उत्तीर्ण करने के लिए नहीं होतीं, जिंदगी के रास्ते बनाने के लिए होती हैं। जैसे व्यक्ति अपने  दोस्त का हर पल, हर घड़ी, हर मुश्किल में साथ देते हैं, वैसे ही किताबें भी हर विषम परिस्थिति में मनुष्य की सहायक होती है। किताबों में हर मुश्किल सवाल, परिस्थिति का हल भले ही ना छुपा हो लेकिन दुविधा काल में कितबों में पढ़ने से, समझने से उसकी सोच का विस्तार होता है। अस्पताल या बीमारी के दिन किसी भी इंसान के षारीरिक, मानसिक, आर्थिक  और  सामाजिक चुनौती के दिन होते हैं। अच्छी पुस्तकें लोगों को एक सात्विक मानसिक खुराक  दे सकती हैं, जो उनके जल्दी रोगमुक्त होने में सहायक हो सकता है ।

.यदि देश  के सभी जिला अस्पतालों, मेडीकल कालेज और बड़े समूह के निजी अस्पतालों में हिंदी, अंग्रेजी और स्थानी भाशा की कुछ सौ अच्छी पुस्तकें रखी जाएं, प्रत्येक भर्ती मरीज से सौ-दो सौ रूपए ले कर उनका पुस्तकालय से एक या दो किताबों जारी करने का कार्ड बना दिया जाए तो यह नए तरीके का पुस्तकालय अभियान बन सकता है। यदि प्रशासन या अस्पताल चाहें तो हर शहर में कुछ साहित्यप्रेमी लोग, सेवानिवृत जागरूक व्यक्ति ऐसे पुस्तकालयों के लिए निषुल्क सेवा देने को भी तैयार हो जाएंगे। प्रारंभ में साहित्य, सूचना, बाल साहित्य की पुस्तकें रखी जाएं जो मरीज या तिमारदार को भाषा -विषयवस्तु और प्रस्तुति के स्तर पर ज्यादा कठिन ना लगे। जब एक बार पढने की आदत हो जाएगी तो पाठक को हर तरह का साहित्य या सूचनात्मक पुस्तकें दी जा सकती हैं। प्राय अस्पताल के दिनों में लगे समय को मरीज और उनके साथ आए लोग अपनी जिंदगी का बुरा समय ही मानते हैं, लेकिन यदि पुस्तकों से आया आत्मविश्वास  व सकारात्मक उर्जा मरीज को दी जा रही दवा के साथ उत्प्ररेक का काम करे तो जब वह वे जब अस्पताल से जायेंगे तो उनके पास ज्ञान, सूचना, जिज्ञासा का एक ऐसा खजाना होगा जो उनके साथ जीवनभर रहेगा और अस्पताल के दिन उन्हें एक उपलब्धी की तरह प्रतीत होंगे । यही नहीं ये पुस्तकें अस्पताल में काम कर रहे लोगों के लिए भी एक उर्जा का संचार कर सकती हैं। देष की स्वास्थय नीति बनाते हुए हर अस्पताल में पुस्तकालय के लिए बजट का प्रावाधान किसी निशुल्क  दवा के वितरण की तरह ही प्रभावी कदम होगा।


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