गुम होती बोली-भाषाएँ
पंकज चतुर्वेदी
यूनेस्को द्वारा जारी दुनिया की भाषाओँ के मानचित्र में जब यह आरोप लगा कि भारत अपनी बोली-भाषाओँ को भूलने के मामले में दुनिया में अव्वल है तो लगा था कि शायद सरकार व समाज कुछ चेतेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कैसी विडंबना है कि देश की आजादी के बाद हमारी पारंपरिक बोली-भाशाओं पर सबसे बड़ा संकट आया और उनमें भी आदिवासी समाज की बोलियां लुप्त होने में अव्वल रहीं। श्री गणेश देवी के सर्वे के अनुसार हम कोई 300 बोलियों को बिसरा चुके हैं और कोई 190 अंतिम सांसे ले रही हैं। दुखद बात यह है कि बोलियों के गुम जाने का संकट सबसे अधिक आदिवासी क्षेत्रों में है। चूंकि देश के अधिकशं जनजातिया बाहुल्य इलाके प्राकृतिक संसाधन से संपन्न हैं सो बहारी समाज के लोभ की गिरफ्त में यही क्षेत्र सबसे ज्यादा होते हैं हिंसा-प्रतिहिंसा , विकास और रोजगार की छटपटाहट के चलते आदिवासियों के पलायन और उनके नए जगह पर बस जाने की रफ्तार बढ़ी तो उनकी कई पारंपरिक बोलियां पहले कम हुई और फिर गुम गईं। एक बोली के लुप्त होने का अर्थ उसके सदियों पुराने संस्कार, भोजन, कहानियां, खानपान सभी का गुम हो जाना ।
झारखंड में आदिम जनजातियों की संख्या कम होने के आंकड़ै बेहद चौंकाते हैं जोकि सन 2001 में तीन लाख 87 से हजार से सन 2011 में घट कर दो लाख 92 हजार रह गई। ये जनजातियां हैं - कंवर, बंजारा, बथुडी, बिझिया, कोल, गौरेत, कॉड, किसान, गोंड और कोरा। इसके अलावा माल्तो-पहाड़िया, बिरहोर, असुर, बैगा भी ऐसी जनजातियां हैं जिनकी आबादी लगातार सिकुड़ रही है। इन्हें राज्य सरकार ने पीवीजीटी श्रेणी में रखा है। एक बात आश्चर्यजनक है कि मुंडा, उरांव, संताल जैसे आदिवासी समुदाय जो कि सामाजिक, राजनीतिक , अािर्थक और शैक्षणिक स्तर पर आगे आ गए, जिनका अपना मध्य वर्ग उभर कर आया, उनकी जनगणना में आंकड़े देश के जनगणना विस्तार के अनुरूप ही हैं। बस्तर में गौंड , देारले, धुरबे आबादी के लिहाज से सबसे ज्यादा पिछड़ रहे हैं। कोरिया, सरगूजा, कांकेर जगदलपुर,नारायणपुर, दंतेवाड़ा, सभी जिलों में आदिवासी आबादी तेजी से घटी है। यह भी गौर करने वाली बात है कि नक्सलग्रस्त क्षेत्रों में पहले से ही कम संख्या वाले आदिवासी समुदायों की संख्या और कम हुई है। ये केवल किसी आदि समाज के इंसान के लुप्त होने के आंकड़े ही नहीं है, बलिक उसके साथ उनकी बोली-भाशा के भी समाप्त होने की दास्तान है।
प्रसिद्ध नृशास्त्री ग्रियर्सन की सन 1938 में लिखी गई पुस्तक ‘माड़िया गोंड्स ऑफ बस्तर ’ की भूमिका में एक ऐस व्यक्ति का उल्लेख है जो कि बस्तर की 36 बोलियों को समझता-बूझता था। जाहिर है कि जानकार था जाहिर है कि आज से अस्सी साल पहले वहां कम से कम 36 बोलियां तो थी हीं। सभी जनजातियों की अपनी बोली, प्रत्येक हस्तशिल्प या कार्य करने वाले की अपनी बोली। राजकाज की भाशा हल्बी थी जबकि जंगल में गोंडी का बोलबाला था। गोंडी का अर्थ कोई एक बोली समझने का भ्रम ना पालें - घेाटुल मुरिया की अलग गोंडी तो दंडामी और अबूझमाड़िया की गोंडी में अलग किस्म के षब्द। उत्तरी गोंडी में अलग भेद। राज गोंडी में छत्तीसगढ़ी का प्रभाव ज्यादा है। इसका इस्तेमाल गोंड राजाओं द्वारा किया जाता था। सन 1961 की जनगणना में इसको बोलने वालों की संख्या 12,713 थी और आज यह घट कर 500 के लगभग रह गई है। चूंकि बस्तर भाषा के आधर पर गठित ती राज्यों महाराष्ट्र , उड़िसा, तेलंगाना(आंध््रा प्रदेश) से घिरा हुआ है , सो इसकी बोलिया छूते राज्य की भाषा से अछूती नहीं है।। दक्षिण बस्तर में भोपालपट्टनम,कोंटा आदि क्षेत्रों में दोरली बोली जाती है जिसमें तेलंगांना/आंध्रप्रदेश से लगे होने के कारण तेलुगु का प्रभाव दिखता है तो दंतेवाड़ा, बीजापुर, सुकमा दण्डामी बोली का क्षेत्र है। जगदलपुर, दरभा, छिन्द्गढ़ धुरवी बोली का बोलबाला है वहीं कोंडागांव क्षेत्र के मुरिया अधिकतर हल्बी बोलते हैं । नारायणपुर घोटुल मुरिया और माड़िया क्षेत्र है। बस्तर और ओडिशा राज्य के बीच सबरी नदी के किनारे धुरवा जनजाति की बहुलता है। जगदलपुर का नेतानार का इलाका, दरभा और सुकमा जिले के छिंदगढ़ व तोंगपाल क्षेत्र में धुरवा आदिवासी निवास करते हैं। इस जनजाति की बोली धुरवी है। इसी तरह नारायणपुर ब्लॉक में निवासरत अबूझमाड़िया माड़ी बोली बोलते हैं। इन दोनों जनजातियों की आबादी मिलाकर भी 50 हजार से अधिक नहीं है। इन जनजातियों की पुरानी पीढ़ी के लोगों के बीच आज भी धुरवी और माड़ी ही संवाद का जरिया है पर नई पीढ़ी में इन बोलियों का प्रचलन धीरे-धीरे घट रहा है।
राजस्थान में आधा दर्जन बोलियां यूनेस्को की लुप्तप्राय बोलियों की सूची में शामिल हैं। राजस्थान के पश्चिम में मारवाड़ी के साथ मेवाड़ी, बांगडी, ढारकी, बीकानेरी, शेखावटी, खेराड़ी, मोहवाडी और देवडावाटी; उत्तरद- पूर्व में अहीरवाटी और मेवाती; मध्यद-पूर्व में ढूंढाड़ी और उसकी उप बोलियां - तोरावटी, जैपुरी, काटेड़ा, राजावाटी, अजमेरी, किसनगढ़ी, नागर चौल और हाडौती; दक्षिणद-पूर्व में रांगडी व सौंधवाड़ी (मालवी); और दक्षिण में निमाड़ी बोली जाती हैं।. घुमंतू जातियों की अपनी बोलियां हैं. जैसे गरोडिया लुहारों की बोली-गाडी। अब ये या तो दूसरी ाबेलियों के साथ मिल कर अपना मूल स्वरूप खो चुकी हैं या नई पीढ़ी इनमें बात ही नहीं करती। मध्यप्रदेश की 12 आदिवासी बोलियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। इनमें ज्यादातर आदिवासी बोलियां हैं- भीली, भिलाली, बारेली, पटेलिया, कोरकू, मवासी निहाली, बैगानी, भटियारी, सहरिया, कोलिहारी, गौंडी और ओझियानी जैसी जनजातीय बोलियां यहां सदियों से बोली जाती रही हैं, लेकिन अब ये बीते दिनों की कहानी बनने की कगार पर हैं।
उत्तरकाशी के बंगाण क्षेत्र की बंगाणी बोली को अब मात्र 12 हजार लोग बोलते हैं. पिथौरागढ़ की दारमा और ब्यांसी, उत्तरकाशी की जाड और देहरादून की जौनसारी बोलियां खत्म होने के कगार पर हैं. दारमा को 1761, ब्यांसी को 1734, जाड को 2000 और जौनसारी को 1,14,733 लोग ही बोलते-समझते हैं। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि चूंकि ये बोलियां ना तो रोजगार की भाषा बन पाईं और ना ही अगली पीढ़ी में इनमें बात करने वले बच रहे हैं, सो इनका मूल स्वरूप षनेः-शनेः समाप्त हो रहा है। याद करना होगा कि अंडमान निकोबार और कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में बीते चार दशक में कई जनजातियां लुप्त हो गईं और उनके साथ उनकी आदिम बोलियां भी अतीत के गर्त में समा गईं।
प्रत्येक बोली-भाषा समुदास की अपनी ज्ञान-श्रंखला है। एक बोली के विलुप्त होने के साथ ही उनका कृषि , आयुर्वेद, पशु-स्वास्थ्य, मौसम, खेती आदि का सदियों नहीं हजारों साल पुराना ज्ञान भी समाप्त हो जाता है। यह दुखद है कि हमारी सरकारी योजनाएं इन बोली-भाशआों की परंपराओं और उन्हें आदि-रूप में संरक्षित करने के बनिस्पत उनका आधुनिकीकरण करने पर ज्यादा जोर देती है। हम अपना ज्ञान तो उन्हें देना चाहते हैं लेकिन उनके ज्ञान को संरक्षित नहीं करना चाहते। यह हमें जानना होगा कि जब किसी आदिवासी से मिलें तो पहले उससे उसकी बोली-भाषा का ज्ञान को सुनें फिर उसे अपना नया ज्ञान देने का प्रयास करें। आज जरूरत बोलियों को उनके मूल स्वरूप में सहेजने की है।
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