कोरोना काल के दौर में साइकिल बदल सकती है तस्वीर
कोरोना के खतरे के बीच जैसे ही जिंदगी सामान्य होने के ताले खुले, राजधानी दिल्ली की सुबह सड़कों पर हजारों साइकिलों ने यहां के लोगों की परिवहन-अभिरुचि में बदलाव का इशारा कर दिया। कुछ लोग अपने कार्यस्थल तक जाने के लिए साइकिल का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो बच्चे व युवा इस इरादे से साइकिल की आदत डाल रहे हैं कि स्कूल-कॉलेज खुलने पर सार्वजनिक परिवहन में संभावित संक्रमण से बचने का उपाय होगा कि वे अपने खर्च रहित वाहन से ही जाएं। कोरोना संकट के दौरान भारत में 45 लाख साइकिलें बिकी हैं। यह विचित्र है कि एक ओर, दिल्ली-एनसीआर में साइकिल की कमी हो रही है, दूसरी ओर, वर्ष 1951 में शुरू हुई, सालाना चालीस लाख साइकिलों का उत्पादन करने वाली और हजारों लोगों को रोजगार देने वाली एटलस साइकिल की कंपनी में ताला लग गया। साइकिल के प्रति आम लोगों का लगाव बढ़ना शुभ है, पर इस पर भी विचार करना होगा कि हमारी सड़कें और यातायात व्यवस्था साइकिल का इस्तेमाल करने वालों के अनुरूप हैं भी कि नहीं।
सालाना 2.2 करोड़ उत्पादन के साथ भारत साइकिल उत्पादन में दुनिया में दूसरे स्थान पर आता है, पर नीति आयोग की विगत मार्च की रिपोर्ट बताती है कि आज भी देश में करीब बीस करोड़ लोग ऐसे हैं, जो 10 किलोमीटर दूर अपने कार्य स्थल तक पैदल जाते हैं, क्योंकि उनकी हैसियत साइकिल खरीदने की भी नहीं है। दिल्ली-एनसीआर में इन दिनों सुबह जो हजारों साइकिल सवार दिख रहे हैं, उनमें से अधिकांश कम से कम एक कार के मालिक तो हैं ही। भारत में प्रति एक हजार पर मात्र 90 साइकिलें हैं, जबकि यह आंकड़ा चीन में 300, जापान में 700 और नीदरलैंड में 1,100 है। जाहिर है कि देश में साइकिलों की मांग में वृद्धि की संभावना है। साइकिल उत्पादक एसोसिएशन का कहना है कि वर्ष 2025 तक देश में सालाना पांच करोड़ साइकिल का उत्पादन अपने स्थानीय बाजार के लिए करना होगा। वर्ष 2018-19 में भारत ने सात लाख साइकिलें आयात कीं और अधिकांश चीन से आईं।
साइकिल की सवारी न केवल स्वास्थ्य की दृष्टि से, बल्कि पर्यावरण और देश की आर्थिक स्थिति की मजबूती के लिए भी महत्वपूर्ण है। पिछले साल टेरी की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि छोटी दूरी के लिए साइकिल का इस्तेमाल बढ़ाने से अर्थव्यवस्था को 1.8 खरब का फायदा होगा। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश के 45 फीसदी घरों में यानी 11.1 करोड़ लोगों के पास साइकिल थी। वर्ष 2001 से 2011 के बीच देश में कारों की संख्या में 2.4 गुना वृद्धि दर्ज की गई, दोपहिया वाहन 2.3 प्रतिशत बढ़े, पर इस दौरान साइकिल खरीदने वालों की संख्या में मात्र 1.3 फीसदी वृद्धि हुई। भारत की सामाजिक-आर्थिक स्थिति साइकिल के लिए माकूल है। यह किफायती व सुरक्षित है तथा इसका रख-रखाव भी सस्ता है। इसके बावजूद इसकी मांग कम होने का असल कारण ईंधन संचालित वाहनों को बेचने में वित्तीय संस्थाओं के कर्ज बांटने की रणनीति है। ऐसे हजारों लोग हैं, जिन्होंने बगैर जरूरत दिखावे के लिए बाइक-स्कूटर ले ली है। जबकि उसके कर्ज की किस्त, हर साल बीमा राशि, मरम्मत और महंगा ईंधन उनकी जेब में छेद करता है।
हमारे यहां साइकिल के लिए अलग से कोई परिवहन कानून है ही नहीं। बाजार, कार्यालय या अन्य सार्वजनिक स्थानों पर इसकी पार्किंग की सुरक्षित व्यवस्था नहीं है। कहने को दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़, अहमदाबाद सहित कुछ शहरों में साइकिल के लिए अलग से रास्ते बने हैं, पर अधिकांश जगह उन पर कब्जे हैं या वे साइकिल चलाने लायक नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार ने लखनऊ, गाजियाबाद, नोएडा में कई किलोमीटर लंबे साइकिल पथ बनवाए थे। पर उसके बड़े हिस्से पर साइकिलें कभी चली ही नहीं। साइकिल चलाने से न केवल कच्चे तेल के आयात का बिल घटाकर विदेशी मुद्रा बचाई जा सकती है, बल्कि इससे वायु प्रदूषण में भी भारी कमी आ सकती है। साइकिल का चलन बढ़ने से लाखों लोगों को रोजगार मिल सकता है। अकेले लुधियाना में साइकिल से जुड़े 4,000 हजार लघु व मध्यम कारखाने हैं, जहां 10 लाख लोगों को रोजगार मिला है। कोरोना संकट और खतरनाक होते वायु प्रदूषण के बीच देश में साइकिल को प्रोत्साहित करने की जरूरत है।
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