पराली बदल सकती है खेत की किस्मत
पंकज चतुर्वेदी
दिल्ली की आवोहवा जैसे ही जहरीली हुई पंजाब-हरियाणा के खेतों में किसान अपने अवषेश या पराली जलाने पर ठीकरा फोड़ा जाने लगा, हाांकि यह वैज्ञानिक तथ्य है कि राजधानी के स्मॉग में पराली दहन का योगदान महज दस फीसदी ह, लेकिन यह भी बात जरूरी है कि खेतों में जलने वाला अवशेष असल में किसान की तकदीर बदल सकता है। हालांकि खेतों में अवषेश जलाना गैरकानूनी घोशित है फिर भी धान उगाने वाला ज्यादातर किसान पिछली फसल काटने के बाद खेतों के अवशेषों को उखाड़ने के बजाए खेत में ही जला देते हैं या फिर ऐसे बर्बाद होने देते हैं। यह ना केवल जमीन की उर्वरा षक्ति को प्रभावित करता है , बल्कि यदि यदि थोड़ी समझदारी दिखाई जाए तो किसान फसल अवशेषों से खाद बनाकर अपने खेत की उर्वरता बढ़ा सकते हैं। यह जानना जरूरी है कि पराली जलाने की समस्या लगभग पूरे भारत में होती है।
चूंकि जब तक राजधानी दिल्ली पर कोई संकट ना आए तब तक ना तो प्रषासन चेतता है और ना ही समाज। सो जब-जब दिल्ली में हवा जहरीली होती है, पराली को कोसा जाने लगता है। कभी इस बात पर गंभीरता से विचार किया नहीं गया कि किसान की भी क्या मजबूरी है कि जो धुआं उसके पूरे घर के स्वास्थ्य का दुष्मन है, वह आखिर क्यों उसे उपजाता है ?
देष में हर साल कोई 31 करोड़ टन फसल अवषेश को फूंका जाता है जिससे हवा में जहरीले तत्वों की मात्रा 33 से 290 गुणा तक बढ़ जाती है। एक अनुमान है कि हर साल अकेले पंजाब और हरियाणा के खेतों में कुल तीन करोड़ 50 लाख टन पराली या अवषेश जलाया जाता है। एक टन पराली जलाने पर दो किलो सल्फर डाय आक्साईड, तीन किलो ठोस कण, 60 किलो कार्बन मोनो आक्साईड, 1460 किलो कार्बन डाय आक्साईड और 199 किलो राख निकलती है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब कई करोड़ टन अवषेश जलते है तो वायुमंडल की कितनी दुर्गति होती होगी। इन दिनों सीमांत व बड़े किसान मजदूरों की उपलब्धता की चिक-चिक से बचने के लिए खरीफ फसल, खासतौर पर धान काटने के लिए हार्वेस्टर जैसी मषीनों का सहारा लेते हैं। इस तरह की कटाई से फसल के तने का अधिकांष हिस्सा खेत में ही रह जाता है। खेत की जैवविविधता का संरक्षण बेहद जरूरी है, खासतौर पर जब पूरी खेती ऐसे रसायनों द्वारा हो रही है जो कृशि-मित्र सूक्ष्म जीवाणुओं को ही चट कर जाते हैं। फसल से बचे अंष को इस्तेमाल मिट्टी जीवांश पदार्थ की मात्रा बढ़ाने के लिए नही किया जाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। जहां गेहूं, गन्ने की हरी पत्तियां, आलू, मूली, की पत्तियां पशुओं के चारे के रूप् में उपयोग की जाती हैं तो कपास, सनई, अरहर आदि के तने गन्ने की सूखी पत्तियां, धान का पुआल आदि को जला दिया जाता है।
कानून की बंदिष और सरकार द्वारा प्रोत्साहन राषि के बावजूद पराली के निबटान में बड़े खर्च और दोनो फसलों के बीच बहुत कम समय के चलते बहुत से किसान अभी भी नहीं मान रहे। किसान चाहें तो गन्ने की पत्तियों, गेहूं के डंठलों जैसे अवषेशों से कंपोस्ट तैयार कर अपनी खाद के खर्चें व दुश्प्रभाव से बच सकते हैं। इसी तरह जहां मवेषियों के लिए चारे की कमी नहीं है , वहां धान की पुआल को खेत में ढेर बनाकर खुला छोडऩे के बजाय गड्ढ़ों में कम्पोस्ट बनाकर उपयोग कर सकते हैं। आलू और मूंगफली जैसी फसलों को खुदाई कर बचे अवशेषों को भूमि में जोत कर मिला देना चाहिए। मूंग व उड़द की फसल में फलियां तोड़कर खेत में मिला देना चाहिए। इसी तरह केले की फसल के बचे अवशेषों से यदि कम्पोस्ट तैयार कर ली जाए तो उससे 1.87 प्रतिशत नाइट्रोजन 3.43 फीसदी फास्फोरस तथा 0.45 फीसदी पोटाश मिलता है।
वैसे आधुनिक मषीन रोटावेटर भी फसल अवषेश को सोना में बदलने में बेहद कारगर है। इस मषीन से जुताई करने पर फसल अवषेश मषीन से बारीक-बारीक कतरे हो कर मिट्टी में ही मिल जाते हैं। यह बात किसानों तक पहुंचाना जरूरी है कि जिन इलाकों में जमीन की नमी कम हो रही है और भूजल गहराई में जा रहा है, वहां रासायनिक खाद के बनिस्पत कंपोस्ट ज्यादा कारगर है और पराली जैसे अवषेश बगैर किसी व्यय के आसानी से कंपोस्ट में बदले जा सकते हैं। लेकिन इस मषीन के साथ दिक्कत है कि यह अवषेश की ऊपरी हिस्सा तो काट देता है लेकिन उसकी जड़ या ठुंठ हाथ से ही उखाड़ना पड़ता है।
सनद रहे यदि मिट्टी में नमी कम हो जाए तो जमीन के बंजर होने का खतरा बढ़ जाता है। यदि पराली को ऐसे ही खेत में कुछ दिनों पड़े रहने दिया जाए तो इससे मिट्टी की नमी बढ़ती है और कम सिंचाई से काम चल जाता है। फसल अवशेष को जलाने से खेत की छह इंच परत, जिसमें विभिन्न प्रकार के लाभदायक सूक्ष्मजीव जैसे राइजोबियम, एजेक्टोबैक्टर, नील हरित काई, मित्र कीट के अंडे आदि होते हैं , आग में भस्म हो जाते हैं। साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति भी जर्जर हो जाती है।
फसल अवशेषों का उचित प्रबंधन जैसे फसल कटाई के बाद अवशेषों को एकत्रित कर कम्पोस्ट गड्ढे या वर्मी कम्पोस्ट टांके में डालकर कम्पोस्ट बनाया जा सकता है। खेत में ही पड़े रहने देने के बाद जीरो सीड कर फर्टिलाइजर ड्रिल से बोनी कर अवशेष को सड़ने हेतु छोड़ा जा सकता है। इस प्रकार खेत में अवशेष छोडऩे से नमी संरक्षण खरपतवार नियंत्रण एवं बीज के सही अंकुरण के लिए मलचिंग का कार्य करता है।
उधर किसान का पक्ष है कि पराली को मषीन से निबटाने पर प्रति एकड़ कम से कम पांच हजार का खर्च आता है। फिर अगली फसल के लिए इतना समय होता नहीं कि गीली पराली को खेत में पड़े रहने दें। विदित हो हरियाणा-पंजाब में धान की बुवाई 10 जून से पहले नहीं होती नहीं। इसे तैयार होने में लगे 140 दिन , फिर उसे काटने के बाद गेंहू की फसल लगाने के लिए किसान के पास इतना समय होता ही नहीं है कि वह फसल अवषेश का निबटान सरकार के कानून के मुताबिक करे। जब तक हरियाणा-पंजाब में धान की फसल की रकवा कम नहीं होता, दिल्ली को पराली के संकट से निजात मिलेगी नहीं।
कहने को राज्य सरकारें मषीनें खरीदने पर छूट दे रही हैं परंतु किसानों का एक बड़ा वर्ग सरकार की सबसिडी योजना से भी नाखुष हैं। उनका कहना है कि पराली को नश्ट करने की मषीन बाजार में 75 हजार से एक लाख में उपलब्ध है, यदि सरकार से सबसिड़ी लो तो वह मषीन डेढ से दो लाख की मिलती है। जाहिर है कि सबसिडी उनके लिए बेमानी है। उसके बाद भी मजदूरों की जरूरत होती ही है।
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