लाॅकडाउन के चलते सब बंद रहा, पर पहाड़ों में घने जंगलों को उजाड़ने की अनुमति देने का काम चलता रहा
हिमालय पहाड़ न केवल हर साल बढ़ रहा है बल्कि इसमें भूगर्भीय उठापटक चलती रहती हैं। यहां पेड़ भूमि को बांधकर रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं जो कटाव व पहाड़ ढहने से रोकने का एकमात्र उपाय है। जब पहाड़ पर तोड़फोड़ या धमाके होते हैं, जब उसके प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड़ होती है तो दिल्ली तक भूकंप के खतरे तो बढ़ते ही हैं, यमुना में भी कम पानी का संकट भी खड़ा होता है। अधिक सुरंग या अविरल धारा को रोकने से पहाड़ अपने नैसर्गिक स्वरूप में रह नहीं पाता और उसके दूरगामी परिणाम विभिन्न प्राकृतिक आपदा के रूप में सामने आ रहे हैं।
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पंकज चतुर्वेदी
पर्यावरण मामलों के वरिष्ठ लेखक
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चमोली हादसे से मोदी सरकार की नीतियों पर फिर सवाल हैं। छह फरवरी, 2021 की सुबह कोई साढे दस बजे नंदा देवी पर्वतमाला पर चंदी के मुकुट से दमकते ग्लेशियर का एक हिस्सा टूटकर तेजी से नीचे फिसला और ऋषिगंगा नदी में गिर गया। विश्वप्रसिद्ध फूलों की घाटी के करीबी रैणी गांव के पास चल रहे छोटे से बिजली संयत्र में देखते ही देखते तबाही आ गई। उसका असर पांच किलोमीटर दायरे में बहने वाली धौली गंगा पर पड़ा और वहां निर्माणाधीन एनटीपीसी का पूरा प्रोजेक्ट तबाह हो गया। रास्ते के कई पुल टूट गए और कई गांवों का संपर्क खत्म हो गया। सवाल यह है कि जो क्षेत्र पहले से संवेदनशील हों, उससे छेड़छाड़ आत्मघाती हो सकती है, क्या यह बात नीतियां तय करने वालों को समझ में नहीं आ रही? इस घटना ने स्पष्ट कर दिया है कि हमें अभी अपने जल-प्राण कहलाने वाले उत्तरांचल के बारे में सतत अध्ययन और नियमित आकलन की बेहद जरूरत है। यह भी सोचने की बात है कि राज्य में पर्यटन को किस हद तक व किस शर्त पर बढ़ावा दिया जाए।
प्रकृति में जिस पहाड़ के निर्माण में हजारों-हजार साल लगते हैं, हमारा समाज उसे उन निर्माणों की सामग्री जुटाने के नाम पर तोड़ देता है जो बमुश्किल सौ साल चलते हैं। पहाड़ केवल पत्थर के ढेर नहीं होते, वे इलाके के जंगल, जल और वायु की दशा और दिशा तय करने के साध्य होते हैं। जहां सरकार पहाड़ के प्रति बेपरवाह है तो पहाड़ की नाराजगी भी समय-समय पर सामने आती है। यदि धरती पर जीवन के लिए वृक्ष अनिवार्य है तो वृक्ष के लिए पहाड़ का अस्तित्व जरूरी है। वृक्ष से पानी, पानी से अन्न तथा अन्न से जीवन मिलता है। ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या का जन्म भी जंगल उजाड़ दिए गए पहाड़ों से ही हुआ है। यह विडंबना है कि आम भारतीय के लिए पहाड़ पर्यटन स्थल है या फिर उसके कस्बे का पहाड़ एक डरावनी-सी उपेक्षित संरचना। विकास के नाम पर पर्वतीय राज्यों में बेहिसाब पर्यटन ने प्रकृति का हिसाब गड़बड़ाया तो गांव-कस्बों में विकास के नाम पर आए वाहनों के लिए चौड़ी सड़कों के निर्माण के लिए जमीन जुटाने या कंक्रीट उगाहने के लिए पहाड़ को ही निशाना बनाया गया।
हिमालय भारतीय उपमहाद्धीप के जल का मुख्य आधार है और यदि नीति आयोग के विज्ञान व प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा तीन साल पहले तैयार जल संरक्षण रिपोर्ट पर भरोसा करें तो हिमालय से निकलने वाली 60 फीसदी जल धाराओं में दिनों-दिन पानी की मात्रा कम हो रही है। ग्लोबल वार्मिंग या धरती का गरम होना, कार्बन उत्सर्जन, जलवायु परिवर्तन और इसके दुष्परिणामस्वरूप धरती को ठंडा करने का काम कर रहे ग्लेशियरों पर आ रहे भयंकर संकट व उसके कारण समूची धरती के अस्तित्व के खतरे की बातें अब महज कुछ पर्यावरण-विषेशज्ञों तक सीमित नहीं रह गई हैं। अब तो ऐसे दावों के दूसरे पहलू भी सामने आने लगे कि जल्द ही हिमालय के ग्लेशियर पिघल जाएंगे जिसके चलते नदियों में पानी बढ़ेगा और उसके कारण जहां एक तरफ कई नगर-गांव जलमग्न हो जाएंगे, वहीं धरती के बढ़ते तापमान को थामने वाली छतरी के नष्ट होने से भयानक सूखा, बाढ़ व गरमी पड़ेगी और जाहिर है कि ऐसे हालात में मानव-जीवन पर भी संकट होगा।
गत मार्च महीने के तीसरे सप्ताह से भारत में कोरोना संकट के चलते लागू की गई बंदी में भले ही दफ्तर-बाजार आदि पूरी तरह बंद रहे लेकिन 31 विकास परियोजनाओं के लिए 185 एकड़ घने जंगलों को उजाड़ने की अनुमति देने का काम बदस्तूर जारी रहा। 7 अप्रैल, 2020 को राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की स्थायी समिति की बैठक वीडियो कांफ्रेस से आयोजित की गई और ढेर सारी आपत्तियों को दरकिनार करते हुए घने जंगलों को उजाड़ने की अनुमति दे दी गई। समिति ने पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील 2933 एकड़ के भू-उपयोग परिवर्तन के साथ-साथ 10 किलोमीटर संरक्षित क्षेत्र की जमीन को भी कथित विकास के लिए सौंपने पर समिति सहमत दिखती है। इस श्रेणी में प्रमुख प्रस्ताव उत्तराखंड के देहरादून और टिहरी गढ़वाल जिलों में लखवार बहुउद्देशीय परियोजना (300 मेगावाट) का निर्माण जारी है। यह परियोजना बिनोग वन्यजीव अभयारण्य की सीमा से 3.1 किमी दूर स्थित है और अभयारण्य के डिफॉल्ट ईएसजेड में गिरती है। परियोजना के लिए 768.155 हेक्टेयर वन भूमि और 105.422 हेक्टेयर निजी भूमि की जरूरत होगी। परियोजनाओं को दी गई पर्यावरणीय मंजूरी को पिछले साल नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने निलंबित कर दिया था। इसके बावजूद इस परियोजना पर राष्ट्रीय बोर्ड द्वारा विचार किया जा रहा हे।
दुनिया के सबसे युवा और जिंदा पहाड़ कहलाने वाले हिमालय की पर्यावरणीय छेड़छाड़ से उपजी सन 2013 की केदारनाथ त्रासदी को भुलाकर उसकी हरियाली उजाड़ने की कई परियोजनाएं उत्तराखंड राज्य के भविष्य के लिए खतरा बनी हुई हैं। नवंबर, 2019 में राज्य की कैबिनेट से स्वीकृत नियमों के मुताबिक कम-से-कम दस हेक्टेयर में फैली हरियाली को ही जंगल कहा जाएगा। यही नहीं, वहां न्यूनतम पेड़ों की सघनता घनत्व 60 प्रतिशत से कम न हो और जिसमें 75 प्रतिशत स्थानीय वृक्ष प्रजातियां उगी हों। जाहिर है कि जंगल की परिभाषा में बदलाव का असल उद्देश्य ऐसे कई इलाकों को जंगल की श्रेणी से हटाना है जो कथित विकास के राह में रोड़ा बने हुए हैं। उत्तराखंड में बन रही पक्की सड़कों के लिए 356 किलोमीटर के वन क्षेत्र में कथित रूप से 25 हजार पेड़ काट डाले गए। मामला एनजीटी में भी गया लेकिन तब तक पेड़ काटे जा चुके थे। यही नहीं, सड़कों का संजाल पर्यावरणीय लिहाज से संवेदनशील उत्तरकाशी की भागीरथी घाटी से भी गुजर रहा है। उत्तराखंड के चार प्रमुख धामों को जोड़ने वाली सड़क परियोजना में 15 बड़े पुल, 101 छोटे पुल, 3596 पुलिया, 12 बाइपास सड़कें बनाने का प्रावधान है। कोई 12 हजार करोड़ रुपये के अलावा ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक रेलमार्ग परियोजना भी स्वीकृति हो चुकी है जिसमें न सिर्फ बड़े पैमाने पर जंगल कटेंगे, वन्य जीवन प्रभावित होगा और पहाड़ों को काटकर सुरंगे और पुल निकाले जाएंगे।
यह बात स्वीकार करनी होगी कि ग्लेशियर के करीब बन रही जल विद्युत परियोजना के लिए हो रहे धमाकों व तोड़-फोड़ से शांत-धीर-गंभीर रहने वाले जीवित हिम-पर्वत नाखुश हैं। हिमालय भू-विज्ञान संस्थान का एक अध्ययन बताता है कि गंगा नदी का मुख्य स्रोत गंगोत्री हिंम खंड भी औसतन 10 मीटर के बनिस्पत 22 मीटर सालाना की गति से पीछे खिसका है। सूखती जल धाराओं के मूल में ग्लेशियर क्षेत्र के नैसर्गिक स्वरूप में हो रही तोड़फोड है।
सनद रहे, हिमालय पहाड़ न केवल हर साल बढ़ रहा है बल्कि इसमें भूगर्भीय उठापटक चलती रहती हैं। यहां पेड़ भूमि को बांधकर रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं जो कटाव व पहाड़ ढहने से रोकने का एकमात्र उपाय है। जानना जरूरी है कि हिमालयी भूकंपीय क्षेत्र में भारतीय प्लेट का यूरेशियन प्लेट के साथ टकराव होता है और इसी से प्लेट बाउंड्री पर तनाव ऊर्जा संग्रहित हो जाती है जिससे क्रस्टल छोटा हो जाता है और चट्टानों का विरुपण होता है। ये ऊर्जा भूकंपों के रूप में कमजोर जोनों एवं फाल्टों के जरिए सामने आती है। जब पहाड़ पर तोड़फोड़ या धमाके होते हैं, जब उसके प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड़ होती है तो दिल्ली तक भूकंप के खतरे तो बढ़ते ही हैं, यमुना में भी कम पानी का संकट भी खड़ा होता है। अधिक सुरंग या अविरल धारा को रोकने से पहाड़ अपने नैसर्गिक स्वरूप में रह नहीं पाता और उसके दूरगामी परिणाम विभिन्न प्राकृतिक आपदा के रूप में सामने आ रहे हैं।
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