पराली जलाने में किसान की मजबूरी का हल खोजें
पंकज चतुर्वेदी
अभी तीन महीने पहले दिल्ली के सभी एफएम रेडियो, हिंदी के सभी खबरिया चैनल पर दिल्ली के मुख्यमंत्री के मुस्कुराते फोटो व संवाद के साथ कोई पंद्रह दिन विज्ञापन चले जिसमें किसी ऐसे घोल की चर्चा थी , जिसके डालते ही पराली गायब हो जाती है व उसे जलानानहीं पड़ताजब दिल्ली’एनसीआर के पचास हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को स्माॅग ने ढंक लिया था, जब रेवाड़ी जिले के धारूहेडा से ले कर गाजियाबाद के मुरादनगर तक का वायु गुणवत्ता सूचकांक साढे चार सौ से अधक था तब दिल्ली सरकार द्वारा कई करोड़ के विज्ञापन उम्मीद जता रहे थे कि आने वाले दिन इतने घुटनभरे ना हों। ऐसा नहीं कि विज्ञापन में पराली जलाने से रोकने का काम केवल केजतरीवाल सरकार ही कर रही थी, हरियाणा व पंजाब सरकार के भी पूरे पन्ने के विज्ञापन स्वच्छ हवा के सपने दिखा रहे थे। अनुमान है कि यदि तीनो ंराज्यों के इस दिषा में विज्ञापन के खर्चा को जोड़ा जाए तो आधार अरब का व्यय हुआ होग लेकिन इसका हांसिल क्या हुआ ? हाल ही में भारत सरकार के पर्यावरण और वन ंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर बताया कि पंजाब में पिछले साल की तुलना में कहीं ज्यादा पराली जलाई गई तो हरियाणा, उप्र में कुछ कम तो हुई लेकिन इतननी नहीं कि वायु गुणवत्तासुधर जाती।
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि फसल अवषेश या पराली के निस्तारण हेतु किसान कल्याण विभाग ने पंजाब, हरियाणा, उप्र व दिल्ली में 2018 से 2020-21 की अवधि में एक योजना लागू की है जिसका पूरा धन केंद्र दे रहा है। इसके लिए केंद्र ने कुल 1726.67 करेाड़ रूपए जारी किए जिसका सर्वाािक हिस्सा पंजाब को 793.18 करोड दिया गया। विडंबना है कि इसी राज्य में सन 2020 के दौरान पराली जलाने की 76590 घटनाएं सामने आई, जबकि बीते साल 2019 में ऐसी 52991 घटनांए हुई थीं। जाहिर है कि पराली जलाने की घटना में इस राज्य में 44.5 फीसदी का इजाफा हुआ। हरियाण में जहां सन 2019 में पराली जलाने की 6652 घटनाएं हुई थीं, वे सन 2020 में 5000 रह गईं।
दिल्ली की आवोहवा जैसे ही जहरीली हुई पंजाब-हरियाणा के खेतों में किसान अपने अवषेश या पराली जलाने पर ठीकरा फोड़ा जाने लगा, हालांकि यह वैज्ञानिक तथ्य है कि राजधानी के स्माॅग में पराली दहन का योगदान बहुत कम है , लेकिन यह भी बात जरूरी है कि खेतों में जलने वाला अवशेष असल में किसान के लिए भी नुकसानदेह है। पराली का ध्ुाआं उनके स्वास्थ्य का दुष्मन है, खेती की जमीन की उर्वरा षक्ति कम करने वाला है और दूभर भी है। हालांकि खेतों में अवषेश जलाना गैरकानूनी घोशित है फिर भी धान उगाने वाला ज्यादातर किसान पिछली फसल काटने के बाद खेतों के अवशेषों को उखाड़ने के बजाए खेत में ही जला देते हैं।
विभिन्न राज्य सरकारें मुकदमें कायम कर रही हैं, किसानों की गिरफ्तारी भी हो रही है इसके बावजूद फसल अवषेश को खेत में जलाना ना रूक पाने के पीछे किसान की भी अपनी व्याहवारिक दिक्कतें हैं और विडंबना है कि नीतिनिर्धारक उस पर गौर करते नहीं। इन दिनों चल रहे किसान आंदोलन में पराली जलाने पर दर्ज मुकदमें भी एक मुद्दा बना हुआ है। जान लें देष में हर साल कोई 31 करोड़ टन फसल अवषेश को फूंका जाता है जिससे हवा में जहरीले तत्वों की मात्रा 33 से 290 गुणा तक बढ़ जाती है। एक अनुमान है कि हर साल अकेले पंजाब और हरियाणा के खेतों में कुल तीन करोड़ 50 लाख टन पराली या अवषेश जलाया जाता है। एक टन पराली जलाने पर दो किलो सल्फर डाय आक्साईड, तीन किलो ठोस कण, 60 किलो कार्बन मोनो आक्साईड, 1460 किलो कार्बन डाय आक्साईड और 199 किलो राख निकलती है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब कई करोड़ टन अवषेश जलते है तो वायुमंडल की कितनी दुर्गति होती होगी। इन दिनों सीमांत व बड़े किसान मजदूरों की उपलब्धता की चिक-चिक से बचने के लिए खरीफ फसल, खासतौर पर धान काटने के लिए हार्वेस्टर जैसी मषीनों का सहारा लेते हैं। इस तरह की कटाई से फसल के तने का अधिकांष हिस्सा खेत में ही रह जाता है। खेत की जैवविविधता का संरक्षण बेहद जरूरी है, खासतौर पर जब पूरी खेती ऐसे रसायनों द्वारा हो रही है जो कृशि-मित्र सूक्ष्म जीवाणुओं को ही चट कर जाते हैं। फसल से बचे अंष को इस्तेमाल मिट्टी जीवांश पदार्थ की मात्रा बढ़ाने के लिए नही किया जाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। जहां गेहूं, गन्ने की हरी पत्तियां, आलू, मूली, की पत्तियां पशुओं के चारे के रूप में उपयोग की जाती हैं तो कपास, सनई, अरहर आदि के तने गन्ने की सूखी पत्तियां, धान का पुआल आदि को जला दिया जाता है।
कानून की बंदिष और सरकार द्वारा प्रोत्साहन राषि के बावजूद पराली के निबटान में बड़े खर्च और दोनो फसलों के बीच बहुत कम समय के चलते बहुत से किसान अभी भी नहीं मान रहे। उधर किसान का पक्ष है कि पराली को मषीन से निबटाने पर प्रति एकड़ कम से कम पांच हजार का खर्च आता है। फिर अगली फसल के लिए इतना समय होता नहीं कि गीली पराली को खेत में पड़े रहने दें। विदित हो हरियाणा-पंजाब में कानून है कि धान की बुवाई 10 जून से पहले नहीं की जा सकती है। इसके पीछे धारणा है कि भूजल का अपव्यय रोकने के लिए मानसून आने से पहले धान ना बोया जाए क्योंकि धान की बुवाई के लिए खेत में पानी भरना होता है। चूंकि इसे तैयार होने में लगे 140 दिन , फिर उसे काटने के बाद गेंहू की फसल लगाने के लिए किसान के पास इतना समय होता ही नहीं है कि वह फसल अवषेश का निबटान सरकार के कानून के मुताबिक करे। जब तक हरियाणा-पंजाब में धान की फसल की रकवा कम नहीं होता, या फिर खेतों में बरसात का पानी सहेजने के कुंडं नहीं बनते और उस जल से धान की बुवाई 15 मई से करने की अनुमति नहीं मिलती ; पराली के संकट से निजात मिलेगा नहीं। हाल ही में इंडियन इंस्टीट्यूट आफ ट्रापिकल मेट्रोलोजी, उत्कल यूनिवर्सिटी, नेषनल एटमोस्फिियर रिसर्च लेब व सफर के वैज्ञानिकों के संयुक्त समूह द्वारा जारी रिपोर्ट बताती है कि यदि खरीफ की बुवाई एक महीने पहले कर ली जाए जो राजधानी को पराली के धुए से बचाया जा सकता है। अध्ययन कहता है कि यदि एक महीने पहले किसान पराली जलाते भी हैं तो हवाएं तेज चलने के कारण हवा-घुटन के हालता नहीं होतेव हवा के वेग में यह धुआं बह जाता है। यदि पराली का जलना अक्तूबर-नवंबर के स्थान पर सितंबर में हो तो स्माॅग बनेगा ही नहीं।
कहने को राज्य सरकारें मषीनें खरीदने पर छूट दे रही हैं परंतु किसानों का एक बड़ा वर्ग सरकार की सबसिडी योजना से भी नाखुष हैं। उनका कहना है कि पराली को नश्ट करने की मषीन बाजार में 75 हजार से एक लाख में उपलब्ध है, यदि सरकार से सबसिड़ी लो तो वह मषीन डेढ से दो लाख की मिलती है। जाहिर है कि सबसिडी उनके लिए बेमानी है। उसके बाद भी मजदूरों की जरूरत होती ही है। पंजाब और हरियाणा दोनों ही सरकारों ने पिछले कुछ सालों में पराली को जलाने से रोकने के लिए सीएचसी यानी कस्टम हाइरिंग केंद्र भी खोले हैं. आसान भाषा में सीएचसी मशीन बैंक है, जो किसानों को उचित दामों पर मशीनें किराए पर देती हैं।
किसान यहां से मषीन इस लिए नहीं लेता क्योंकि उसका खर्चा इन मशीनों को किराए पर प्रति एकड़ 5,800 से 6,000 रूपए तक बढ़ जाता है। जब सरकार पराली जलाने पर 2,500 रुपए का जुर्माना लगाती है तो फिर किसान 6000 रूपए क्यों खर्च करेगा? यही नहीं इन मशीनों को चलाने के लिए कम से कम 70-75 हार्सपावर के ट्रैक्टर की जरूरत होती है, जिसकी कीमत लगभग 10 लाख रूपए है, उस पर भी डीजल का खर्च अलग से करना पड़ता है। जाहिर है कि किसान को पराली जला कर जुर्माना देना ज्यादा सस्ता व सरल लगता है। उधर कुछ किसानों का कहना है कि सरकार ने पिछले साल पराली न जलाने पर मुआवजा देने का वादा किया था लेकिन हम अब तक पैसों का इंतजार कर रहे हैं।
दुर्भाग्य है कि पराली जलाना रोकने की अभी तक जो भी योजनाएं बनीं, वे मषीनी तो हैं लेकिन मानवीय नहीं, वे कागजों -विज्ञापनो पर तो लुभावनी हैं लेकिन खेत में व्याहवारिक नहीं। जरूरत है कि माईक्रो लेबल पर किसानों के साथ मिल कर उनकी व्याहवारिक दिक्कतों को समझतें हुए इसके निराकरण के स्थानीय उपाय तलाषें जाएं। मषीनें कभी भी प्र्यावरण का विकल्प नहीं होतीं।, इसके लिए स्वनिंयंत्रण ही एकमात्र निदान होता है।
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