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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

Women murdered in the name of witch-hunt


            

             औरत को मारने के बहाने

                     पंकज चतुर्वेदी


यह घटना है आठ जनवरी 2021 की राजधानी रांची के कांके थाना के तहत  हुसीरपुर गांव की है - साठ साल की जैतून खातुन ने इस लिए जहर खा कर कर खुदकुशी  कर ली क्योंकि उसके कुछ पड़ोसी उन्हें यह मान कर प्रताड़ित कर रहे थे कि मृतका डायन है व उसके जादू-टोने के चलते उनका दामाद बीमार हो गया। इस बार झारखंड से जिन झुटनी मेहतो को पद्म सम्मान से अलंकरण के लिए चयनित किया गया है , वे इसी डायन प्रथा के प्रति लोगों को सामाजिक व कानूनी रूप से जागरूक करने के लिए लगी हैं। इसमें सरायकेला की छुटनी मेहतो तो स्वयं इस अंध विश्वास  की शिकार हुई व उसके बाद उन्होंने लोगों को इसके प्रति सजग बनाने का जिम्मा उठाया। झारखंड में सन 2015 से अक्तूबर 2020 के बीच डायन करार दे कर प्रताड़ित करने के 46581 मामले पुलिस ने दर्ज किए और इस त्रासदी में 211 औरतों को निर्ममता से मार डाला गया। राज्य के गढवा जिले में तो कुल 1825 दिनों में टोनही-डायन के 1278 मुकदमे कायम हुए। एक बात और जान लें कि डायन कुरीति अकेले झारखंड तक सीमित नहीं है, यह बिहार, असम, मध्यप्रदेष सहित कोई आधा दर्जन राज्यों में ऐसे ही हर साल सैंकड़ों औरतों को बर्बर तरीके से मारा जा रहा है । 

देश्  के आदिवासी अंचलों में जमीन हदबंदी कानूनों के लचरपन और पंचायती राजनीति के नाम पर शुरू हुईं जातीय दुश्मनियों की परिणति महिलाओं की हत्या के रूप में हो रही है । कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर राज्य शासन ने एक जांच रिर्पोट तैयार की है जिसमें बताया गया है कि अंधविश्वास , अज्ञान  और अशिक्षा के कारण टोनही या डायन करार दे कर किस तरह निरीह महिलाओं की आदिकालीन लोमहर्षक ढ़ंग से हत्या कर दी जाती है । औरतों को ना केवल जिंदा जलाया जाता है, बल्कि उन्हें गांव में नंगा घुमाना, बाल काट देना, गांव से बाहर निकाल देना जैसे निर्मम कृत्य भी डायन या टोनही के नाम पर होते रहते हैं। इन शर्मनाक घटनाओं का सर्वाधिक अफसोसजनक पहलू यह है कि इन महिला प्रताडनाओं के पीछे ना सिर्फ महिला की प्रेरणा होती है,बल्कि वे इन कुकर्मों में बढ़-चढ़ कर पुरूषों का साथ भी देती हैं ।

आदिवासी बाहुल्य छत्तीसगढ़ राज्य में बेगा, गुनियाओं और ओझाओं के झांसे में आ कर पिछले तीन वर्षों में तीन दर्जन से अधिक औरतों को मार डाला गया है । कोई एक दर्जन मामलों में आदमियों को भी ऐसी मौत झेलनी पड़ी है । मरने वालों में बूढ़े लोगों की संख्या ज्यादा है । किसी को जिंदा जलाया गया तो किसी को जीवित ही दफना दिया गया । किसी का सिर धड़ से अलग करा गया तो किसी की आंखें निकाल ली गईं ।


 ये आंकड़े मात्र वही हैं जिनकी सूचना पुलिस तक पहुंची । खुद पुलिस भी मानती है कि दर्ज नहीं हो पाए मामलों की संख्या सरकारी आंकड़ों से कहीं अधिक है । किसी गांव में कोई बीमारी फैले या मवेशी मारे जाएं या फिर किसी प्राकृतिक विपदा की मार हो, आदिवासी इलाकों में इसे ‘टोनही’ का असर मान लिया जाता है । भ्रांति है कि टोनही के बस में बुरी आत्माएं होती हैं, इसी के बूते पर वह गांवों में बुरा कर देती है । 

ग्रामीणों में ऐसी धारणाएं फैलाने का काम नीम-हकीम, बेगा या गुनिया करते हैं । छत्तीसगढ़ हो या निमाड़, या फिर झारखंड व ओडिषा ; सभी जगह आदिवासियों की अंधश्रद्धा इन झाड़-फूंक वालों में होती है । इन लोगों ने अफवाह उड़ा रखी है कि ‘टोनही’ आधी रात को निर्वस्त्र हो कर शम्सान जाती है और वहीं तंत्र-मंत्र के जरिए बुरी आत्माओं को अपना गुलाम बना लेती है । उनका मानना है कि देवी अवतरण के पांच दिनों- होली,हरेली,दीवाली और चैत्र व शारदीय नवरात्रि के मौके पर ‘टोनही’ सिद्धी प्राप्त करती है । गुनियाओं की मान्यता के प्रति इस इलाके में इतनी अगाध श्रद्धा है कि ‘देवी अवतरण’ की रातों में लोग घर से बाहर निकलना तो दूर, झांकते तक नहीं हैं । गुनियाओं ने लोगों के दिमाग में भर रखा है कि टोनही जिसका बुरा करना चाहती है, उसके घर के आस-पास वह अभिमंत्रित बालों के गुच्छे, तेल, सिंदूर, काली कंघी या हड्डी रख देती है । ये लोग केवल इशारा  करते हैं जैसे कि- डायन के घर का दरवाजा पश्चिम  को है या उसके दरवाजे साल का पेड़ है या कुआं है। फिर भीड़ सबसे कमजोर शिकार  का अंदाजा लगाती है और टूट पड़ती है। 


मप्र के झाबुआ-निमाड़ अंचल में भी महिलाओं को इसी तरह मारा जाता है ; हां, नाम जरूर बदल जाता है - डाकन । गांव की किसी औरत के शरीर में ‘माता’ प्रविष्ठ हो जाती है । यही ‘माता’ किसी दूसरी ‘माता’ को डायन घोषित कर देती है । और फिर वही अमानवीय यंत्रणाएं शुरू हो जाती हैं । 

यह समझना जरूरी है कि अधिकांश आदिवासी गांवों तक सरकारी स्वास्थ महकमा पहुंच नहीं पाया है । जहां कहीं अस्पताल खुले भी हैं तो कर्मचारी इन पुरातनपंथी वन पुत्रों में अपने प्रति विश्वास नहीं उपजा पाए है । तभी मवेशी मरे या कोई नुकसान हो, गुनिया हर मर्ज की दवा होता है । उधर गुनिया के दांव-पेंच जब नहीं चलते हैं तो वह अपनी साख बचाने कि लिए किसी महिला को टोनही घोषित कर देता है । गुनिया को शराग, मुर्गे, बकरी की भेंट मिलती है; बदले में किसी औरत को पैशाचिक कुकृत्य सहने पड़ते हैं । ऐसी महिला के पूरे कपड़े उतार कर गांव की गलियों में घुमाया जाता है, जहां चारों तरफ से पत्थर बरसते हैं । ऐसे में हंसिए से आंख फोड़ दी जाती है ।


ठेठ आदिम परंपराओं में जी रहे आदिवासियों के  इस दृढ़ अंध विश्वास का फायदा इलाके के असरदार लोग बड़ी चालाकी से उठाते है । अपने विरोधी अथवा विधवा-बूढ़ी औरतों की जमीन हड़पने के लिए ये प्रपंच किए जाते हैं । थोड़े से पैसे या शराब के बदौलत गुनिया बिक जाता है और किसी भी महिला को टोनही घोषित कर देता है । अब जिस घर की औरत को ‘दुष्टात्मा’ बता दिया गया हो या निर्वस्त्र कर सरेआम घुमाया गया हो, उसे गांव छोड़ कर भागने के अलावा कोई चारा नहीं बचता है । कई मौकों पर ऐसे परिवार की बहु-बेटियों के साथ गुनिया या असरदार लोग कुकृत्य करने से बाज नहीं आते हैं । यही नहीं अमानवीय संत्रास से बचने के लिए भी लोग ओझा को घूस देते हैं ।

मप्र शासन की जांच रपट में कई रोंगटे खड़े कर देने वाले हादसों का जिक्र है । लेकिन अब अधिकारी सांसत में हैं कि अनपढ़ आदिवासियों को इन कुप्रथाओं से बचाया कैसे जाए । एक तरफ आदिवासियों के लिए गुनिया-ओझा की बात पत्थर की लकीर होती है, तो दूसरी ओर इन भोले-भाले लोगों के वोटों के ठेकेदार ‘परंपराओं’ में सरकारी दखल पर भृकुटियां तान कर अपना उल्लू सीधा करने में लगे रहते हैं । 



डायन प्रथा से निबटने के लिए बिहार में सन 1999 में व झारखंड में 2001 में अलग से कानून भी बना। कानून अपराध होने के बाद  काम करता है लेकिन आज जरूरत तो लोगों की मिथ्या धारणाओं से ओतप्रोत जनजातीय लोगों में औरत के प्रति दोयम नज़रिए को बदलना है। एक तो गांवों में स्वास्थ्य की बेहतर सुविधाएं हों , दूसरा समाज के बीच से ही ऐसे लोगों को तैयार किया जाए जो पर्व-त्योहर पर आदिवासियों को सहज तरीके से इसकी जानकारी दे सकें।

   

पंकज चतुर्वेदी


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