My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2021

Pollution may be cause blast in Kshipra River Ujjain

 

लुप्त होती क्षिप्रा में क्यों उठी चिंगारियां
पंकज चतुर्वेदी

 


समुद्र मंथन के बाद देवता-असुर जब अमृत कलश को एक दूसरे से छीन रहे थे तब उसकी कुछ बूंदें धरती की जिन तीन नदियों में गिरी उनमेंं से एक क्षिप्रा में कई बार धमाकों की आवाज के साथ चिंगारियां उठ रही हैं। भले ही इसको ले कर अफवाह, अंध विश्वास  का माहौल गर्म है लेकिन असलियत यह है कि अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही क्षिप्रा में समय से पहले गर्मी आने के बाद बढ़ी गंदगी का रासायनिक प्रक्रिया के कारण यह सब हो रहा है और इससे एक पावन नदी के सामने चुनौतियां और बढ़ गई हैं।


उज्जैन के जिस त्रिवेणी घाट पर  कुंभ स्नान के बड़े कार्यक्रम होते हैं, वहां गत 28 फरवरी कम बाद कोई एक दर्जन बार छोटे पटाके की तरह धमाके हुए और चिंगारियां उठीं। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, ओएनजीसी आदि की टीम वहां पहुंची और पानी व उस स्थान की मिट्टी के नमूने उठाए और यह भी बता दिया गया कि नदी में कोई विस्फोटक पदार्थ नहीं मिला हे। गौर करने वाली बात यह है कि धमाके की घटनाएं  नदी में एक ही स्थान पर हुई हैं उस स्थान पर नदी बहुत उथली है।

यह एक कड़ी सच्चाई है कि क्षिप्रा सूखी रहती है। यही नहीं स्नान के समय क्षिप्रा में पानी के लिए नर्मदा का जल पाईप से लाया जाता है। विडंबना है कि जिस उज्जैन षहर का अस्तित्व और पहचान क्षिप्रा से है, वहां की सारी गंदगी रही-बची क्षिप्रा को नाबदान बना देती है। जिस क्षिप्रा के जल में करोड़ो लोग सिंहस्थ के दौरान मोक्ष की कामना से डुबकियां लगाते हैं, उसकी असलियत सरकारी रिकार्ड है, जो उसके जल को आचमन लायक भी नहीं मानता। मध्य प्रदेश प्रदूषण  नियंत्रण बोर्ड ने अक्तूबर-2017 में एक रिपोर्ट में बताया था कि शिप्रा नदी में रामघाट, गऊघाट और सिद्धवट पर नहाने योग्य पानी तक नहीं है। इसके अलावा त्रिवेणी के भी एक किलोमीटर क्षेत्र में प्रदूषण का स्तर काफी बढ़ा हुआ है। जबकि इन्हीं घाटों पर सोमवती व शनिश्चरी अमावस्या सहित अन्य प्रमुख पर्वों पर मुख्य स्नान होता है।


जहां धमाके हुए, उस त्रिवेणी घाट पर क्षिप्रा नदी का उज्जैन शहर  में प्रवेश  होता है। यही इसमें खान नदी मिलती है जो खुद में बदतर हालात में है। मालवा की महिमामयी जीवन रेखा क्षिप्रा के जल को अविरल और पावन रखने के लिए अभी तक किए गए सभी प्रयास विफल रहे हैं। सन 2016 से इसमें नर्मदा जल डाल कर जिलाने की योजनाएं चल रही हैं। सन 2018 तक नदी को प्रदूषण  मुक्त करने के नाम पर 715 करोड़ रूपए फूंक दिए गए। वहीं इसमें नर्मदा का पानी लाने के लिए भी 422 करोड़ रूपए खर्च हुए। सनद रहे कि नर्मदा का पानी यहां लाने के लिए इस्तेमाल बिजली के पंपों पर बिजली के बिल का खर्च 22 हजार रूपए प्रति मिनिट था।


हाल के धमाकों को ले कर संभावना है कि सीवर या सड़ा पानी अधिक एकत्र होने से उत्पन्न मीथेन इसका कारक हो सकती हैं। एक बात और घर की नीलियों से निकले पानी और कारखानों के निस्तार में आमतौर पर क्षारीय तत्व अधिक होते हैं। जब नदी में अपना पानी लुप्त हो जाता है व पानी के नाम पर अशोधित  ऐसे रसायन शेष  रह जाते है। जिसमें विभिन्न पदार्थ जैसे (नाइट्रोजन, फास्फोरस और कार्बन) एवं कैशन (सोडियम, पोटेशियम, कैल्शियम और मैग्नीशियम) शामिल हों तो इसमें चिंगार उठना या छोटे धमाके होना संभव है। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि नदी में मिल रहे जल में  कारखानों, गैराज से बहाए  डीजल.पेट्रोल, ग्रीस, डिटरजेंट, जल-मल है। मीथेन की परत जल के उपरी स्तर पर बढ़ जाने से भी आग लग जाती है।

जान लें यह महज कुछ रासायनिक क्रिया मात्र नहीं है, यह क्षिप्रा के खतम होने की चेतावनी है।  जान लें शिप्रा और उसकी सहायक नदियों में मिल रहे गंदे नालों का पानी प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह है।  क्षिप्रा के जल को गंदा करने में सबसे बड़ी भूमिका खान नदी की है। खान कभी एक साफ-सुथरी नदी थी लेकिन इंदौर के विस्तार का खामियाजा इसी ने भुगता। यहां के कल-कारखानो और गटर का मल-जल इसमें इतना गिरा कि खान को नदी कहना ही बंद करना पड़ा।


वैसे श्रद्धा-आस्था और पूजा-पाठ ने भी क्षिप्रा का कम नुकसान नहीं किया। कालीदास की रचनाओं में बताया गया है कि नदी के तट पर सघन वन  थे लेकिन आज तो यहां दूर-दूर तक वीरान ही दिखता है। जाहिर है कि यह सारी हरियाली  को चौपट कर ही शहरीकरण, श्रद्धालुओं के लिए सुविधांए जुटाई गईं हैं। नदी तट पर मुर्दों के अंतिम संस्कार व उसकी राख को नदी में गिराने, शहर  के सैंकड़ों मंदिरों की पूजा सामग्री को नदी में समर्पित करने ने भी नदी को खूब दूशित किया। जब से सिंहस्थ एक मेगाशो या पर्यटन का जरिया बना, तब से षहर में खूब निर्माण हुए और निर्माण के लिए अनिवार्य इंर्टों के निर्माण के लिए दषकों तक नदी किनारे हजारों भट्टे चलते रहे, जिनसे तट की मिट्टी व हरियाली नष्ट हुई। फिर रेत के लिए भी इसी नदी का पेट खंगाला गया। ़ मालवा की महिमामयी जीवन रेखा क्षिप्रा के जल को अविरल और पावन रखने के लिए अभी तक किए गए सभी प्रयास विफल रहे हैं। सन 2016 से इसमें नर्मदा जल डाल कर जिलाने की योजनाएं चल रही हैं। सन 2018 तक नदी को प्रदूषण  मुक्त् करने के नाम पर 715 करोड़ रूपए फूंक दिए गए। वहीं इसमें नर्मदा का पानी लाने के लिए भी 422 करोड़ रूपए खर्च हुए। सनद रहे कि नर्मदा का पानी यहां लाने के लिए इस्तेमाल बिजली के पंपों पर बिजली के बिल का खर्च 22 हजार रूपए प्रति मिनिट था। इंदौर की नाला बन चुकी खान नदी को क्षिप्रा में मिलने से रोकने के लिए कबीटखेड़ी पर एक डायवर्सन बनाने की योजना पर दो सौ करोड़ खर्च कर दिए गए। नतीजा वही ढाक के तीन पात और गंदा पानी यथावत क्षिप्रा में मिलता रहा। 2016 के उज्जैन सिंहस्थ के पहले 93 करोड़ खर्च कर खान नदी का रुख मोड़ने की एक योजना और बनी थी। इसमें राघव पिपलिया से काल भैरव तक 19 किलोमीटर खान नदी के गंदे पानी को दूसरी तरफ स्थानांतरित किया जाना था। पैसा तो खर्च हुआ लेकिन बात नहीं बनी।  दुर्भाग्य है कि योजनाकार यह नहीं समझ रहे कि नदी एक प्राकृतिक संसाधन है और इसे किसी बाहरी तरीके से दुरूस्त नहीं किया जा सकता।

 

असल में क्षिप्रा में जलागमन इसके तट पर लहलहाते वनों से बरसाती पानी के माध्यम से होता था। और अब नदी का पूरा जल ग्रहण क्षेत्र कंक्रीट से पटा हुआ है। जंगल बचे नहीं और पानी की आवक के नाम पर गंदी नालियों का ही अस्तित्व शेष  है।

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Why do border fishermen not become an election issue?

                          सीमावर्ती मछुआरे क्यों नहीं बनते   चुनावी मुद्दा ?                                                   पंकज चतुर्व...