कुओं से बुझेगी बुंदेलखंड की प्यास
पंकज चतुर्वेदी
बुंदेलखंड की प्यास, पलायन और अल्प-वर्षा पर अब इतना कहा-सुना और लिखा जा चुका है कि इस पर किसी की संवेदना जाग्रत नहीं होती. मौसम की तरह पानी का रोना होता है और सभी मान बैठे हैं कि यह इस इलाके की नियति ही है. अभी गरमी शुरू ही हुई है, लेकिन बुंदेलखंड के बड़े शहरों में से एक, छतरपुर के हर मुहल्ले में पानी की त्राहि-त्राहि शुरू हो गई है. तीन लाख से अधिक आबादी वाले इस शहर में सरकार की तरफ से रोपे गए कोई 2100 हैंडपंपों में से अधिकांश या तो हांफ रहे हैं या सूख गए हैं. बुदेलखंड के दूसरे शहरी इलाकों में भी जल-संकट ने दस्तक दे दी है.
ग्रामीण अंचलों में हर बार की तरह हैंडपंप से कम पानी आने की शिकायतें आ रही हैं और ललितपुर जिले के आंचलिक क्षेत्रों के सभी नलकूप सूख गए हैं. सागर जिले की खुरई नगरपालिका का एनीकट सूख चुका है और इंटेकवैल का जलस्तर घट रहा है. नदी की जलधारा भी नहीं चल रही. प्रतिदिन तीन इंच पानी नदी से घट रहा है. इंटेकवैल में 15 से 20 फीट पानी ही बचा है जिससे एक माह पानी की सप्लाई हो सकेगी. छतरपुर जिले के बक्सवाहा के पठारी इलाकों में पानी के लिए कई किलोमीटर दूर जाना पड़ रहा है. अपने हजार तालाबों के लिए मशहूर रहे टीकमगढ़ जिले में दो दिन में एक बार पानी की आपूर्ति हो रही है.
बुंदेलखंड की पुरानी परंपरा रही है कि घर में बच्चे का जन्म हो या फिर नई दुल्हन आए तो घर-मुहल्ले के कुएं की पूजा की जाती है. जिस इलाके में जल की कीमत जान से ज्यादा हो वहां अपने घर के इस्तेमाल का पानी उगाहने वाले कुएं को मान देना तो बनता ही है. बीते तीन दशकों के दौरान भले ही प्यास बढ़ी हो, लेकिन सरकारी व्यवस्था ने घर में नल या नलकूप का ऐसा प्रकोप बरपाया है कि पुरखों की परंपरा के निशान कुएं गुम होने लगे हैं. अब कुओं की जगह हैंडपंप पूजकर ही परंपरा पूरी कर ली जाती है.
सभी जानते हैं कि बुंदेलखंड की जमीन की गहराई में ग्रेनाईट जैसी कठोर चट्टानों का बसेरा है और इसे चीरकर भूजल निकालना लगभग नामुमकिन. असल में यहां स्थापित अधिकांश हैंडपंप बरसात के रिसन या सीपेज के जल पर टिके हैं जो कि गरमी आते-आते सूखने लगते हैं. रिसन यानि बरसात होने पर जमीन की कम गहराई में कड़े पत्थरों की ओट में छुपा पानी जब तक रहता है, तब तक नलकूप चलता है और फिर खत्म होने पर यह भी मुंह चिढ़ाता है.
एक दशक में कम-से-कम तीन बार उम्मीद से कम मेघ बरसना बुंदेलखंड की सदियों की परंपरा रही है. यहां के पारंपरिक कुएं, तालाब और पहाड़ कभी भी समाज को इंद्र देवता की बेरूखी के सामने झुकने नहीं देते थे. यह बात अब समझना होगा कि इस क्षेत्र की प्यास का हल किन्हीं बड़ी परियोजनाओं में नहीं है, इसका स्थाई समाधान पारंपरिक जल-स्त्रोतों को स्थानीय स्तर पर सहेजने में ही है. खासकर मजरे-गांव-मुहल्लों की प्यास की कुंजी उन कुओं के पास ही है, जिन्हें समाज नल से घर तक पानी आने की आस में नष्ट कर चुका है.
बात दो साल पहले की है, बुंदेलखंड से बादल पूरी तरह रूठ गए थे. ब्रितानी हुकुमत के दौर में पॉलिटिकल एजेंट का मुख्यालय रहे नौगांव जनपद के करारा गांव की जल-कुंडली शेष बुंदेलखंड से बिल्कुल विपरीत थी. पहले यहां के लोग भी पानी के लिए दो-तीन किलोमीटर दूर जाया करते थे. वर्ष 2018 में जब ग्रामीणों को समझ आ गया कि सावन बहुत संकट के साथ आएगा तो उन लोगों ने गांव के ही एक कुंए के भीतर बोरिंग करवा दी, जिसमें खूब पानी मिला. फरवरी आते-आते पूरे गांव ने जुटकर अपने पुराने बड़े तालाब की सफाई, मरम्मत व गहरीकरण कर दिया. लगभग सौ फुट लंबा एक पाईप कुंए से तालाब तक डाला गया. फिर दो महीने मोटर चलाकर तालाब भरा जाता रहा. उसके बाद यहां भरे पानी से घर के काम, मवेशियों के लिए पानी तो पर्याप्त मिलता ही रहा, पूरे गांव के अन्य कुओं व हैंडपंप का जल-स्तर भी ऊंचा हो गया.
बुंदेलखंड की असली समस्या अल्प-वर्षा नहीं है, वह तो यहां सदियों, पीढ़ियों से होता रहा है. पहले यहां के बाशिंदे कम पानी में जीवन जीना जानते थे. आधुनिकता की अंधी आंधी में पारंपरिक जल-प्रबंधन तंत्र नष्ट हो गए और उनकी जगह ‘सूखा’ और ‘सरकारी राहत’ जैसे शब्दों ने ले ली. बड़े करीने से यहां के आदि-समाज ने बूंदों को बचाना सीखा था. दो तरह के तालाब - एक केवल पीने के लिए, दूसरे केवल मवेशी व सिंचाई के. पहाड़ की गोदी में बस्ती और पहाड़ की तलहटी में तालाब. तालाब के इर्द-गिर्द कुंए, ताकि समाज को जितनी जरूरत हो, उतना पानी खींचकर इस्तेमाल कर ले. अभी वर्ष 1960 तक इस अंचल में 60 हजार से ज्यादा कुंए और कोई 25 हजार छोटे-बड़े तालाब हुआ करते थे.
छतरपुर जिला मुख्यालय के पुराना महोबा नाके की छोटी तलैया के आसपास अभी वर्ष 1990 तक दस से ज्यादा कुंए होते थे. इनमें से एक कुंए पर तो बाकायदा नगरपालिका का पंप था जिससे आसपास के घरों को जल-आपूर्ति होती थी. पुराने नाके के सामने का एक कुआं लगभग दो सौ साल पुराना है. पतली ककैया ईंटों व चूने की लिपाई वाले इस कुंए के पानी का इस्तेमाल पूरा समाज करता था. यहां से निकलने वाले पानी की कोई बूंद बर्बाद ना हो, इसलिए इसकी पाल को बाहर की तरफ ढलवां बनाया गया था. साथ ही इसके ओने यानी जल निकलने की नाली को एक हौदे से जोड़ा गया था, ताकि इसके पानी से मवेशी अपना गला तर कर सकें.
सिद्धगनेशन, कोरियाना मुहल्ला, साहू मुहल्ला आदि के कुओं में सालभर पानी रहता था और समाज सरकार के भरोसे पानी के लिए नहीं बैठता था. यह गाथा अकेले महोबा रोड की नहीं, छतरपुर शहर के सभी पुराने मुहल्लों की थी- गरीबदास मार्ग, तमरहियाई, शुक्लाना, कड़ा की बरिया, महलों के पीछे, हनुमान टौरिया सभी जगह शानदार कुएं थे, जिनकी सेवा-पूजा समाज करता था. ठीक यही हाल टीकमगढ़, पन्ना और दमोह के भी थे.
बांदा शहर में तो अभी भी 67 कुंए जिंदा हैं. इस शहर के मुहल्लों के नाम कुओं पर ही थे, जैसे- राजा का कुआं, कुन्ना कुआं आदि. वर्ष 2018 में वहां जिला प्रशासन ने 470 पंचायतों में जनता के सहयोग से कुओं को जिंदा करने का एक कार्यक्रम चलाया था और उसका सकारात्मक असर पिछले साल यहां दिखा भी. सागर जिले की रहली तहसील के रजवांस गांव में तो एक सदानीरा कुएं पर हैंडपंप लगाकर सारे गांव की प्यास बुझाई जा रही है. वहीं इलाके के सैंकड़ों कुएं ऐसे भी हैं जहां यदि किसी ने कूदकर आत्महत्या कर ली तो समाज ने उसे मिट्टी से भर कर पूर दिया. झांसी के खंडेराव गेट के शीतलामाता मंदिर की पंचकुईयां में आज भी सैंकड़ों मोटरें पड़ी हैं जो यहां के कई सौ परिवारों के पानी का साधन हैं. यह कुएं कभी-भी सूखे नहीं.
प्राचीन जल-संरक्षण व स्थापत्य के बेमिसाल नमूने रहे कुओं को ढकने, उनमें मिट्टी डालकर पूरने और उन पर दुकान-मकान बना लेने की रीत वर्ष 1990 के बाद तब शुरू हुई, जब लोगों को लगने लगा कि पानी, वह भी घर में मुहैया करवाने की जिम्मेदारी सरकार की है और फिर आबादी के बोझ ने जमीन की कीमत प्यास से महंगी कर दी. पुराने महोबा नाके के सामने वाले कुंए की हालत अब ऐसी है कि इसका पानी पीने लायक नहीं रहा. सनद रहे, जब तक कुंए से बालटी डालकर पानी निकालना जारी रहता है, उसका पानी शुद्ध रहता है. जैसे ही पानी ठहर जाता है, उसकी दुर्गति शुरू हो जाती है.
चूंकि बुंदेलखंड में आवास कुंए-ताल-तलैयों के ईद-गिर्द ही रहता रहा है, ऐसे में इनसे पानी का लेन-देनकर धरती के जल-स्तर को सहेजने, मिट्टी की नमी बनाए रखने जैसे कार्य भी होते रहते हैं. छतरपुर शहर में अभी भी कोई पांच सौ पुराने कुंए इस अवस्था में हैं कि उन्हें कुछ हजार रूपए खर्च कर जिंदा किया जा सकता है. ऐसे कुंओं को जीवित करके उनकी जिम्मेदारी स्थानीय समाज को सौंप दी जाए तो हर कंठ को पर्याप्त जल मुहैया करवाना कोई कठिन कार्य नहीं होगा. यदि बुंदेलखंड के सभी कुओं का अलग से सर्वेक्षण करा कर उन्हें पुनर्जीवित करने की एक योजना शुरू की जाए तो यह बहुत कम कीमत पर जन-भागीदारी के साथ हर घर को पर्याप्त पानी देने का सफल प्रयोग हो सकता है. एक बार कुओं में पानी आ गया तो समाज फिर खुद लोक-परंपरा और प्यास दोनों के लिए कुओं पर निर्भर हो जाएगा. (सप्रेस)
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