पहाड़ों की रानी के अस्तित्व को खतरा है - मसूरी सुरंग
परियोजना
पंकज चतुर्वेदी
अमर उजाला २१ जून २१ |
पहाड़ों की रानी कहलाने वाले मसूरी में विकास के नाम पर जो योजना बन रही हैं , वह कई मायनों में न केवल विचित्र हो, बल्कि पहाड़ के लिए आफतों का न्योता भी है . कितना अजब है कि केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी सीधे सोशल मिडिया पर घोषणा कर देते हैं मसूरी में सडक जाम से बचने के लिए 2.74 किलोमीटर के लिए लंबी सुरंग के लिए 700 करोड़ रुपये मंजूर कर दिए गए हैं, दूसरी तरफ राज्य के वन विभाग से ले कर सार्वजनिक निर्माण विभाग तक तो इसकी कोई जानकारी ही नहीं है . श्री गटकरी ने "प्रगति का हाई वे" हेश टेग मॉल रोड, मसूरी शहर और लाल बहादुर शास्त्री आईएएस अकादमी की ओर निर्बाध यातायात के जिस दावे की घोषणा की है, वास्तव में वह पहाड पर विनाश का न्योता हो सकता है . जान लें मसूरी के लिए सुरंग बनाए के प्रयास पहले भी होते रहे हैं, यहाँ तक कि अंग्रेज शासन में वहाँ ट्रेन लाने के लिए जब सुरंग की बात आई तो जन विरोध के चलते उस काम को रोकना पड़ा था और आधी अधूरी पटरियां पड़ीं रह गयी थीं .
जानना जरुरी है कि हिमालय भारत के लिए महज एक भोगोलिक
संरचना नहीं है, इसे देश की जीवन रेखा खा जाना चाहिए-- नदियों का जल हो या मानसून
की गति-- सब कुछ हिमालय के पहाड़ तय करते हैं .भले ही यह कोई सात करोड साल पुरना हो
लेकिन दुनिया में यह युवा पहाड़ है और इसमें लगातार आंतरिक गतिविधियां चलती रहती
हैं . केदारनाथ त्रासदी से सबक न लेते हुए उत्तराखंड के हिमालय पर बेशुमार सड़कों
का जो दौर शुरू हुआ है उससे आये रोज, मलवा खिसकने, जंगल गायब होने जैसी त्रासदियाँ
उपज रही हैं . खासकर जलवायु परिवर्तन की
मार से सर्वाधिक प्रभावित उत्तराखंड के पहाड़ जैसे अब अपना संयम खो रहे हैं -देश को
सदानीरा गंगा-यमुना जैसे नदिया देने वाले पहाड़ के करीब 12 हजार प्राकृतिक स्रोत या
तो सूख चुके हैं या फिर सूखने की कगार पर हैं। ऐसे में बगैर किसी आकलन के महज
यातायात के लिए हिमालय की छाती खोदना किसी अनिष्टकारी त्रासदी का आमंत्रण प्रतीत होता है .
मसूरी के वन विभाग को इस परियोजना की
कोई जानकारी ही नहीं है . मसूरी की उप वन संरक्षक कहकंशां नसीम का कहना है कि उनके
विभाग के पास अभी इसका कोई आधिकारिक पत्र आया नहीं हैं न ही उनसे इस परियोजना के
पर्यावरणीय नुक्सान पर कोई जानकारी ली गयी . यह
एक ऐसे पहाड़ और वहाँ के वाशिंदों को खतरे में धकेलने जैसा है जिसे जोन-4 स्तर का अति भूकंपीय संवेदनशील इलाका खा जाता हो .
जाहिर है कि इसके लिए पेड़ भी काटेंगे और हज़ारों जीवों के प्राकृतिक पर्यावास पर भी
डाका डाला जायेगा . वैसे तो भारत सरकार का नियम यह कहता है कि इस तरह की किसी भी
योजना की पहले विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट
(डीपीआर) बनायी जानी चाहिए जिसमें उसके पर्यावरणीय निक्साना और उसके निदान पर
विमर्श हो. यह कार्य तो जंगल महकमे का होता है . मसूरी सुरंग योजना गवाह है कि
इसके पर्यावरणीय दुष्प्रभावों की परवाह
किये बगैर ही इसके लिए धन स्वीकृत कर दिया गया है.
यह बात कई सरकारी रिपोर्ट में दर्ज
है कि मसूरी के आसपास का इलाका भूस्खलन के मामले ने बहुत संवेदनशील है , यहाँ कि
भूगर्भ संरचना में छेड़ करना या कोई निर्माण करना कहीं बड़े स्तर पर पहाड़ का मालवा न गिरा दे .सन 2010 में मसूरी की आईएएस अकादमी ने एक शोध में बता
दिया था कि मसूरी के संसाधनों पर दबाव सहने की क्षमता चुक चुकी है.हिमालय के
सम्वेदना से परिचित पर्यावरणविद मसूरी में सुरंग बनने को आत्म हत्या निरुपित कर
रहे हैं क्योंकि मसूरी के पास फाड में बहुत बड़ी दरारें पहले से हैं , ऐसे में यदि
वहाँ भारी मशीनों से ड्रिलिंग हुई तो परिणाम कितने भयावह होंगे? कोई नहीं कह सकता .
इससे पहले सन 2014 में लोक
निर्माण विभाग ने बाईपास पर चार सुरंग बनाने का प्रस्ताव तैयार किया था, जिसमें कार्ट
मैकेंजी रोड से कैंपटी फॉल तक सुरंग बनाने की योजना थी . लोंबार्डी इंडिया
प्राइवेट लिमिटेड कंपनी ने जांच भी की थी लेकिन पर्यावरणीय कारणों से उस परियोजना
को शुरू नहीं किया जा सका था
ब्रितानी सरकार के दौर में हिंदुस्तान के कुछ
राजे-रजवाड़ों ने वर्ष 1928
में अंग्रेजों के साथ मिलकर
मसूरी-देहरा ट्रॉम-वे कंपनी बनाई थी। इस कंपनी ने 23 लाख
रुपये की लागत से मसूरी के लिए रेल लाइन बिछाने का काम शुरू किया था। वर्ष 1924 में एक सुरंग बनाते समय हाद्स्सा हो गया-- फिर स्थानीय किसानों को लगा कि
रेल की पटरी से उनके बासमती के खेत और घने जंगल उजाड जायेंगे , बड़ा आंदोलन हुआ और
उस परियोजना को अंग्रेजों ने रोक दिया था
.
इतने पुराने कटु अनुभवों के बाद भी सन 2020
में ही राज्य सरकार ने गुपचुप सुरंग की योजना पर काम करना शुरू कर दिया था,
कोविड की पहली लहर के दौरान जब सारे देश
में काम-काज बंद थे तब इस योजना की कागज
तैयार कर लिए गए लेकिन स्थानीय प्रशासन की जानकारी के बगैर. .उत्तराखंड में हिमालय की हर गैतिविधि के घन
शोध में रत संस्था वाडिया इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिक डॉ. विक्रम गुप्ता , भूस्खलन के विशेषग्य हैं
और उनका कह्मना है कि का कहना है कि जमीन खिसकने के प्रति अति संवेदनशील मसूरी और
उसके करीबी पहाड़ों में बगैर किसी जांच पड़ताल के इस तरह की योजना, वह भी बगैर किसी
भूगर्भीय पड़ताल के, , बेहद चौंकाने वाली है . श्री गुपता बताते हैं कि देहरादून-
मसूरी के इलाके में चूने की चट्टाने हैं जो सदियों से पानी को अवशोषित करती हैं और
इन चट्टानों की पानी को ग्रहण करने की अपनी क्षमता होती है। ये चट्टाने कभी भी
खिसकने लगती हैं और भूस्खलन की घटनाएं घट जाती हैं। इस लिहाज से तमाम पहलुओं को
पहले अध्ययन किए जाने के बाद ही सुरंग पर काम हो . एक मोटा अनुमान है कि यदि यह
योजना मूर्तरूप लेती है कि कोई ओक , देवदार जैसे तीन हजार ऐसे पेड़ काटेंगे जिनकी
उम्र कई दशा कैन और जो नैसर्गिक जंगल का हिस्सा हैं .
वरिष्ठ राजनेता और पर्यावरण प्रेमी किशोर
उपाध्याय का कहना है कि बगैर पर्यावरणीय मंजूरी, बगैर किसी तकनिकी परिक्षण के इस
तरह बजट की घोषण अक्रना एक अपराध हैं , श्री उपाध्याय बताते हैं कि किस तरह जब सन 1981 में अंधाधुंध चूना खुदाई से मसूरी एक कोढ़-
कस्बा जीसस दिखने लगा था तब "सेव मसूरी सोसाईट" से जुड़े अव्देश कौशल,
आदि इंदिरा गांधी से मिलने गए थे और इंदिराजी ने चूना खदानों पर रोक के आदेश दिए
थे, टब उत्तर प्रदेश सरकार ने राजस्व हानि का वास्ता भी दिया था , श्री उपाध्याय
कहते हैं कि मसूरी से थोड़ी भी पर्यावरणीय छेड़छाड़
बन्दर पूछ ग्लेशियर पर असर करेगी और यह अकेले उत्तरांचल ही नहीं देश के लिए
भयावह होगा . इस तरह चोरी छुपे, सरकारी कायदों के बेपरवाही के साथ मसूरी जैसे
स्थान के पर्यावरण के लिए खतरा बनने वाली सात
सौ करोड की परियोजना से स्थानीय नागरिक खुश नहीं हैं , कई संगठन इस पर
विरोध की योजना बना रहे हैं.
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