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शनिवार, 7 अगस्त 2021

Quit India movement 1942

  भारत छोडो आन्दोलन 



आज आज़ादी की लड़ाई का एक निर्णायक दिन है , इस पर संघी मौन रहेंगे क्योंकि वे इसमें अंग्रेजों के साथ खड़े थे सन १९४२ में आज के दिन शुरू हुए भारत छोडो आन्दोलन ने ही ब्रितानी हुकूमत को देश से जाने की तारीख जल्द मुकर्रर करने को मजबूर किया था .

इसकी पृष्ठ  भूमि में है दूसरा विश्व  ,जो सितंबर 1939 में शुरू  हुआ था . सारी दुनिया इसकी चपेट में थी | जर्मनी, जापान और इटली शेष विश्व पर भारी होते जा रहे थे। जापान भारत पर आक्रमण करना चाहता था और जापानी सेना रंगून तक पहुंच भी चुकी थी। ब्रिटेन को विश्व युद्ध में भारतीयों के सहयोग की उम्मीद नहीं थी, जबकि अमेरिका, चीन और रूस लगातार ब्रिटेन के ऊपर भारतीयों का सहयोग हासिल के लिए दबाव बना रहे थे।

ब्रिटिश सरकार ने मार्च 1942 में लेबर पार्टी के सर स्टेफोर्ड क्रिप्स,को  भारत को भेजा। इस समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल थे।ये क्रिप्स मिशन के नाम से जाना गया। क्रिप्स मिशन का मुख्य उद्देश्य विश्व युद्ध में कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के नेताओं के साथ मिलकर भारतीयों का सहयोग प्राप्त करना था। इसमें भारतीयों को वादा किया गया कि वह युद्ध के उपरांत भारत को औपनिवेशक राज्य (डोमिनियन स्टेट) का दर्जा दे देंगे। डोमिनियन स्टेट की मांग अगस्त 1928 में नेहरू रिपोर्ट के माध्यम से उठाई जा चुकी थी जो अब अप्रासंगिक हो चुकी थी। इस प्रस्ताव को कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग दोनों ने ठुकरा दिया। गांधीजी ने क्रिप्स मिशन को “दिवालिया बैंक का अग्रगामी चेककी संज्ञा दी। 

क्रिप्स मिशन जैसे हथकंडो से भारतीयों को अंदेशा हो गया था कि अंग्रेजी हुकूमत भारत का शासन भारतीयों को सौंपने का इरादा नहीं है। यही  क्रिप्स मिशन की असफलता ने भारत छोड़ो आंदोलन का सूत्रपात किया । इसके अलावा बर्मा में भारतीय शरणार्थियों के साथ दुर्व्यवहार, पूर्वी बंगाल में हिंसा  सहित अन्य कारण “करो या मरो” आन्दोलन में जुड़ते गये |

14 जुलाई 1942 को कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने वर्धा में भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पारित किया। इसके कुछ समय पश्चात ही 8 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस की बैठक ग्वालिया टैंक (मुंबई) में हुई। ग्वालिया टैंकअगस्त क्रांति मैदान के नाम से भी जाना जाता है। इस बैठक के दौरान गांधीजी ने 70 मिनट का भाषण दिया। इस भाषण के दौरान गांधीजी ने कहा कि जब भी सत्ता मिलेगी तो भारत के लोगों को मिलेगी और वह तय करेंगे कि इसे किसे सौंपा जाए। यह भाषण इतना प्रभावी था कि भारतीय जनता में एक नए जोश का संचार कर दिया। इसी भाषण के दौरान गांधीजी ने करो या मरोका नारा दिया था। इस नारे का साफ़ मतलब था कि आजादी के लिए अब हद से गुजरना पड़ेगा।

भारत छोड़ोका नारा युसूफ मेहर अली ने दिया था, जो एक अग्रणी स्वतंत्रता सेनानी थे। हमेशा से अहिंसा के पुजारी रहने वाले गांधी जी को जब लोगों ने ऐसे अवतार में देखा तो उन्हें समझ में आ गया कि अब  साम्राज्यवाद पर अंतिम प्रहार जरूरी है।

आठ अगस्त की रात ही महात्मा गांधी सहित सभी बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए |गांधी जी ने 8 अगस्त को ही सभी वर्गों को दिशा निर्देश जारी कर दिए गए थे। यह दिशानिर्देश थे-

§  सरकारी कर्मचारी–  सेवा से त्यागपत्र ना दे परंतु कांग्रेस से अपनी निष्ठा घोषित करें एवं सभी कामकाज ठप कर दें।

§  सैनिक- सैनिकों से अनुरोध किया गया कि वह अपने देशवासियों पर गोली चलाने से इंकार कर दे परंतु ऐसा कुछ हुआ नहीं।

§  छात्र- अगर आजादी तक लड़ने का साहस हो तो ही पढ़ाई छोड़े अन्यथा आंदोलन से दूर रहे।

§  राजा महाराजा- राजा महाराजाओं से अनुरोध किया गया कि वह जनता को सहयोग करें एवं जनता की संप्रभुता स्वीकार करें।

आंदोलन के दौरान जनता सरकारी दफ्तर, पुलिस थाने, पोस्ट ऑफिस की तरफ कुच कर गई एवं उन पर कब्जा कर लिया गया। उत्साही जनता ने हड़ताल, प्रदर्शन, जुलूस प्रारंभ कर दिए। अंग्रेजी सरकार ने लोगों के ऊपर पूर्ण दमन की नीति अपनाते हुए लाठीचार्ज, गोलीबारी कि इससे लोगों का प्रदर्शन हिंसक हो गया। लोगों के द्वारा रेल की पटरियां उखाड़ दी गई , तोड़फोड़, मारपीट , डाक-तार व्यवस्था अस्त-व्यस्त कर दी गई।सरकारी आंकड़ों के अनुसार 208 पुलिस थानों, 1275 सरकारी दफ्तरों, 382 रेलवे स्टेशनों और 945 डाकघरों को जनता द्वारा नष्ट कर दिया गया। जनता द्वारा हिंसा बेकाबू होने के पीछे मुख्य कारण यह था कि पूरे देश में कांग्रेसी नेतृत्व को जेलों में डाल दिया गया था और कांग्रेस संगठन को हर स्तर पर गैर कानूनी घोषित कर दिया गया था। कांग्रेसी नेतृत्व के अभाव में अराजकता का होना बहुत गैर स्वाभाविक नहीं था। यह सच है कि नेतृत्व का एक बहुत छोटा हिस्सा गुप्त रूप से काम कर रहा था परंतु आमतौर पर इस आंदोलन का स्वरूप स्वतः स्फूर्त बना रहा।

9 अगस्त 1942 को ही अरुणा आसफ अली द्वारा ग्वालिया टैंक मुंबई पर तिरंगा  फ़हरा दिया गया। 11 अगस्त 1942 को पटना के छात्रों के समूह ने सचिवालय पर तिरंगा फ़हरा दिया। इससे गुस्साई सरकार ने गोलीबारी के आदेश दिए जिससे 7 छात्र शहीद हो गए।

पूरे देश में ब्रितानी हुकुमत को जबर्दस्त नुक्सान उठाना पड़ा | अंग्रेज समझ गए कि अब जनता बगैर बड़े नेता के भी अपने तरीके से आन्दोलन चलाना सीख गई है और अब इतना विद्रोह वह सह नहीं सकते |इसकी तुलना फ्रांस के इतिहास में बास्तील के पतन या सोवियत रूस की अक्टूबर क्रान्ति से की जा सकती है।

सावरकर की भूमिका

 हिंदू महासभा के सर्वेसर्वा वीर सावरकर ने 1942 में कानपुर में अपनी इस नीति का खुलासा करते हुए कहा,

सरकारी प्रतिबंध के तहत जैसे ही कांग्रेस एक खुले संगठन के तौर पर राजनीतिक मैदान से हटा दी गयी है तो अब राष्ट्रीय कार्यवाहियों के संचालन के लिए केवल हिंदू महासभा ही मैदान में रह गयी हैहिंदू महासभा के मतानुसार व्यावहारिक राजनीति का मुख्य सिद्धांत अंग्रेज सरकार के साथ संवेदनपूर्ण सहयोग की नीति है। जिसके अंतर्गत बिना किसी शर्त के अंग्रेजों के साथ सहयोग जिसमें हथियार बंद प्रतिरोध भी शामिल है।

श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल में मुस्लिम लीग के नेतृत्व वाली सरकार में गृह और उप-मुख्य मंत्री रहते हुए ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलनको दबाने के लिए गोर आक़ाओं को उपाए सुझाए

हिन्दू महासभा के नेता नंबर दो श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तो हद ही करदी।  आरएसएस के प्यारे इस महान हिन्दू राष्ट्रवादी ने बंगाल में मुस्लिम लीग के मंत्री मंडल में गृह मंत्री और उप-मुख्यमंत्री  हुए अनेक पत्रों में बंगाल के ज़ालिम अँगरेज़ गवर्नर को दमन के वे तरीक़े सुझाये जिन से बंगाल में भारत छोड़ो आंदोलन को पूरे तौर पर दबाया जा सकता था। मुखर्जी ने अँगरेज़ शासकों को भरोसा दिलाया कि  कांग्रेस अँगरेज़ शासन को देश के लिया अभिशाप मानती है लेकिन उनकी मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की मिलीजुली सरकार इसे देश के लिए वरदान मानती है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का रवैया 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के प्रति जानना हो तो इसके दार्शनिक एम.एस. गोलवलकर के इस शर्मनाक वक्तव्य को पढ़ना काफी होगा:

“1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आंदोलन था। इस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प लिया।

 श्री गुरुजी के इन शब्दों से लगाया जा सकता हैः

दो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं तो आवश्यकता अनुसार जुर्माना भरने की भी पर्याप्त व्यवस्था उन्होंने कर रखी है।तो डाक्टर जी ने कहा-आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब दो साल के लिए संघ का ही कार्य करने के लिए निकलो। घर जाने के बाद वह सज्जन न जेल गये न संघ का कार्य करने के लिए बाहर निकले। नित्यकर्म में सदैव संलग्न रहने के विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है। समय-समय पर देश में उत्पन्न परिस्थिति के कारण मन में बहुत उथल-पुथल होती ही रहती है। सन् 1942 में ऐसी उथल-पुथल हुई थी। उसके पहले सन् 1930-31 में भी आंदोलन हुआ था। उस समय कई लोग डाक्टर जी के पास गये थे। इस शिष्टमंडलने डाक्टर जी से अनुरोध किया कि इस आंदोलन से स्वातं़़त्रय मिल जायेगा और संघ को पीछे नहीं रहना चाहिए। उस समय एक सज्जन ने जब डाक्टर जी से कहा कि वे जेल जाने के लिए तैयार हैं, तो डाक्टर जी ने कहा-जरूर जाओ। लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलायेगा?’ उस सज्जन ने बतायादो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं तो आवश्यकता अनुसार जुर्माना भरने की भी पर्याप्त व्यवस्था उन्होंने कर रखी है।तो डाक्टर जी ने कहा-आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब दो साल के लिए संघ का ही कार्य करने के लिए निकलो। घर जाने के बाद वह सज्जन न जेल गये न संघ का कार्य करने के लिए बाहर निकले।

 

 

 

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