तबाही का गठजोड होगा नदियों को जोड़ना
पंकज चतुर्वेदी
सदियों से हर तीन साल में अल्प वर्शा की मार झेल रहे व देश के पिछड़े इलाकों में से एक बुंदेलखंड में व्यापक पर्यावरणीय तबाही की खबर है । कहा जा रहा है कि नदियों के जोड़ की देश में पहली परियोजना जल्दी ही षुरू हांे सकती है। पूरे दस साल लगे इसे अपने क्रियान्वयन के स्तर पर आने पर। जाहिर है कि जिस इलाके के जन प्रतिनिधि जनता के प्रति कुछ कम जवाबदेह होतेे हैैं, जहां की जनता में जागरूकता की कमी होती है, जो इलाके पहले से ही षोशित व पिछड़ा होते हैं, सरकार में बैठे लोग उस इलाके को नए-नए खतरनाक व चुनौतीपूर्ण प्रयोगोें के लिए चुन लेतेे हैं । सामाजिक-आर्थिक नीति का यही मूल मंत्र है । बुंदेलखंड का पिछड़ापन जगजाहिर है , इलाका भूकंप-प्रभावित क्षेत्र है । कारखाने हैं नहीं । जीवकोपार्जन का मूल माध्यम खेती है और आधी जमीन उचित सिंचाई के अभाव में कराह रही है । नदियों को जोड़ने के प्रयोग के लिए इससे बेहतर षोशित इलाका कहां मिलता । सो देश के पहले नदी-जोड़ो अभियान का समझौता इसी क्षेत्र के लिए कर दिया गया । विडंबना है कि यह सब खुद सरकार द्वारा स्थापति पर्यावरणीय मानकों की अवहेलना कर हो रहा है।
केन-बेतवा जोड़ योजना सन 2008 में 500 करोड की लागत से तैयार हुई थी, सन 2015 में इसकी अनुमानित लागत 1800 करोड़ और अब पूरे 45 00 करोड़ बताई जा रही है। सबसे बड़ी बात जब नदियों को जोड़ने की योजना बनाई गई थी, तब देश व दुनिया के सामने ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन क्षरण, ग्रीन हाउस इफेक्ट, जैसी चुनौतियां नहीं थीं और गंभीरता से देखें तो नदी जोड़ जैसी परियोजनाएं इन वैश्विक संकट को और बढ़ा देंगी। नेशनल इंस्टीट्यूट फार स्पेस रिसर्च(आईएनपीसी), ब्राजील का एक गहन षोध है कि दुनिया के बड़े बांध हर साल 104 मिलियन मेट्रीक टन मीथेन गैस का उत्सर्जन करते हैं और यह वैश्विक तापमान में वृद्धि की कुल मानवीय योगदान का चार फीसदी है। सनद रहे बड़े जलाशय, दलदल बड़ी मात्रा में मीथेन का उत्सर्जन करती है। ग्लोबल वार्मिंग के लिए ज़िम्मेवार माने जाने वाली गैसों को ग्रीन हाउस या हरितगृह गैस कहते हैं। ये गैसें सूर्य की गर्मी के बड़े हिस्से को परावर्तित नहीं होने देती हैं, जिससे गर्मी की जो मात्रा वायुमंडल में फंसी रहती है, उससे तापमान में वृद्धि हो जाती है।
केन-बेतवा नदी को जोड़ने के लिए छतरपुर जिले के ढोढन में 77 मीटर उंचा और 2031 मीटर लंबा बंाध और 221 किलोमीटर लंबी नहरें भी बनेंगी। इससे होने वाले निर्माण, पुनर्वास आदि के लिए जमीन तैयार करने व इतने बड़े बांध व नहरों से इतना दलदल बनेगा और यह मीथेन गैस उत्सर्जन का बड़ा कारण बनेगा।
देश की सूखी नदियों को सदानीरा नदियों से जोड़ने की बात लगभग आजादी के समय से ही षुरू हो गई थी । प्रख्यात वैज्ञानिक-इंजीनियर सर विश्वैसरैया ने इस पर बाकायदा षोध पत्र प्रस्तुत किया था । पर्यावरण को नुकसान, बेहद खर्चीली और अपेक्षित नतीजे ना मिलने के डर से ऐसी परियोजनाओं पर क्रियान्वयन नहीं हो पाया । केन-बेतवा नदी को जोड़ने की परियोजना को फौरी तौर पर देखें तो स्पश्ट हो जाता है कि इसकी लागत, समय और नुकसान की तुलना में इसके फायदे नगण्य ही हैं । विडंबना है कि उत्तर प्रदेश को इस योजना में बड़ी हानि उठानी पड़ेगी तो भी राजनैतिक षोशेबाजी के लिए वहां की सरकार इस आत्महत्या को अपनी उपलब्धि बताने से नहीं चूक रही है ।
‘‘नदियों का पानी समुद्र में ना जाए, ’’ - इस मूल भावना को ले कर नदियों को जोड़ने के पक्ष में तर्क दिए जाते रहे हैं । लेकिन यह विडंबना है कि केन-बेतवा के मामले में तो ‘‘ नंगा नहाए निचोडै़ क्या’ की लोकोक्ति सटीक बैठती है । केन और बेतवा दोनों का ही उदगम स्थल मध्यप्रदेश में है । दोनो नदियां लगभग समानांतर एक ही इलाके से गुजरती हुई उत्तर प्रदेश में जा कर यमुना में मिल जाती हैं । जाहिर है कि जब केन के जल ग्रहण क्षेत्र में अल्प वर्शा या सूखे का प्रकोप होगा तो बेतवा की हालत भी ऐसी ही होगी । केन का इलाका पानी के भयंकर संकट से जूझ रहा है । सरकारी दस्तावजे दावा करते हैं कि केन में पानी का अफरात है ,जबकि हकीकत इससे बेहद परे है ।
सन 1990 में केंद्र की एनडीए सरकार ने नदियों के जोड़ के लिए एक अध्ययन षुरू करवाया था और इसके लिए केन बेतवा को चुना गया था। यहां जानना जरूरी है कि 11 जनवरी 2005 को केंद्र के जल संसाधन विभाग के सचिव की अध्यक्षता में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के मुख्य सचिवों की बैठक हुई थी, जिसमें केन-बेतवा को जोड़ने पर विचार हुआ था । उस मीटिंग में उ.प्र. के अधिकारियों ने स्पश्ट कहा था कि केन में पानी की अधिकता नहीं है और इसका पानी बेतवा में मोड़ने से केन के जल क्षेत्र में भीशण जल संकट उत्पन्न हो जाएगा । केंद्रीय सचिव ने इसका गोल मोल जवाब देते हुए कह दिया कि इस विशय पर पहले ही चर्चा हो चुकी है, अतः अब इस पर विचार नहीं किया जाएगा । इस मीटिंग में उ.्रप्र. के अफसरों ललितपुर के दक्षिणी व झांसी जिले के वर्तमान में बेहतरीन सिंचित खेतों का पानी इस परियोेजना के कारण बंद होने की संभावना भी जताई, जिस पर कोई माकूल उत्तर नहीं मिला ।
केन-बेतवा मिलन की सबसे बड़ी त्रासदी तो यह होगी कि राजघाट व माताटीला बांध पर खर्च अरबों रूपए व्यर्थ हो जाएंगे । यहां बन रही बिजली से भी हाथ धोना पड़ेगा । उल्लेखनीय है कि राजघाट परियोजना का काम जापान सरकार से प्राप्त कर्जे से अभी भी चल रहा है, इसके बांध की लागत 330 करेाड से अधिक तथा बिजली घर की लागत लगभग 140 करोड़ है । राजघाट से इस समय 953 लाख यूनिट बिजली भी मिल रही है । यह बात भारत सरकार स्वीकार कर रही है कि नदियों के जोड़ने पर यह पांच सौ करोड बेकार हो जाएगा ।
केन-बेतवा को जोड़ना बेहद दूभर और संवेदनशील मसला है । इस इलाके में सामान्य बारिश होती है और यहां की मिट्टी कमजोर है , जबकि ऊंचे-ऊंचे उतार हैं जहां से पानी तेजी से नीचे उतरता है । यहां जौ, दलहन, तिलहन, गेंहू जैसी फसलें होती हैं,जो कम सिंचाई मांगती है, जबकि इस योजना में सिंचाई का खाका धान जैसे अधिक सिंचाई वाली फसल के लिए कारगर है ।
इस परियोजना के लिए गुपचुप 6017 सघन वन को 25 मई 2017 को गैर वन कार्य के लिए नामित कर दिया गया, जिसमें 23 लाख पेड़ कटना दर्ज है। वास्तव में यह तभी संभव है जब सरकार वैसे ही सघन वन लगाने लायक उतनी ही जमीन मुहैया करवा सके। आज की तारीख तक महज चार हजार हैक्टर जमीन की उपलब्धता की बात सरकार कह रही है वह भी अभी अस्पश्ट है कि जमीन अपेक्षित वन क्षेत्र के लिए है या नहीं। चूंकि इसकी चपेट में आ रहे इलाके में पन्ना नेशनल पार्क का बाध आवास का 105 वर्ग किलोमीटर इलाका आ रहा है और यह प्रश्न निरूतरित है कि इसका क्या विकल्प है।
नदी जोड़ के घातक पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमेटी ने अपनी रिपोर्ट कोर्ट को 30 अगस्तर 2019 को दी थी जिसमें वन्य जीव निमों के उल्लघंन, जंगल कटने पर जानवरों व जैव विविधता पर प्रभाव आदि पर गहन षोध था। आज सरकारी कर्मचारी इन सभी को नजरअंदाज कर परियोजना को षुरू करवाने पर जोर दे रहे हैं।
ऐसे में जरूरी है कि सरकार नई वैश्विक परिस्थितियों में नदियों को जोड़ने की योजना का मूल्यांकन करे। सबसे बड़ी बात इतने बड़े पर्यावरणीय नुकसान, विस्थापन, पलायन और धन व्यय करने के बाद भी बुंदेलखंड के महज तीन से चार जिलों को मिलेगा क्या? इसका आकलन भी जरूरी है। इससे एक चौथाई से भी कम धन खर्च कर समूचे बुंदेलखंड के पारंपरिक तालाब, बावड़ी कुओं और जोहड़ों की मरम्म्त की जा सकती है। सिकुड़ गई छोटी नदियों को उनके मूल स्वरूप् में लाने के लिए काम हो सकता है।
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