जंगल पर भारी कंक्रीट साम्राज्य
पंकज चतुर्वेदी
मध्य प्रदेश में वर्ष 2014-15 से 2019-20 तक 1638 करेाड़ रूपए खर्च कर 20 करोड़ 92 लाख 99 हजार 843 पेड़ लगाने का दावा सरकारी रिकार्ड करता है, अर्थात प्रत्येक पेड़ पर औसतन 75 रूपए का खर्च। इसके विपरीत भारतीय वन सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट कहती है कि प्रदेश में बीते छह सालों में कोई 100 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र कम हो गया। प्रदेष में जनवरी-2015 से फरवरी 2019 के बीच 12 हजार 785 हैक्टेयर वन भूमि दूसरे कामों के लिए आवंटित कर दी गई। मप्र के छतरपुर जिले के बक्सवाहा में हीरा खदान के लिए ढाई लाख पेड़ काटने के नाम पर बड़ा आंदोलन संघ परिवार से जुड़े लोगों ने ही खड़ा करवा दिया वहीं इसी जिले में केन-बेतवा नदी जोड़ परियोजना के चलते घने जंगलों के काटे जाने पर चुप्पी है। इस परियोजना के लिए गुपचुप 6017 सघन वन को 25 मई 2017 को गैर वन कार्य के लिए नामित कर दिया गया, जिसमें 23 लाख पेड़ कटना दर्ज है। वास्तव में यह तभी संभव है जब सरकार वैसे ही सघन वन लगाने लायक उतनी ही जमीन मुहैया करवा सके। आज की तारीख तक महज चार हजार हैक्टर जमीन की उपलब्धता की बात सरकार कह रही है वह भी अभी अस्पष्ट कि जमीन अपेक्षित वन क्षेत्र के लिए है या नहीं। चूंकि इसकी चपेट में आ रहे इलाके में पन्ना नेशनल पार्क का बाध आवास का 105 वर्ग किलोमीटर इलाका आ रहा है और यह प्रश्न निरूतरित है कि इसका क्या विकल्प है। नदी जोड़ के घातक पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमेटी ने अपनी रिपोर्ट कोर्ट को 30 अगस्तर 2019 को दी थी जिसमें वन्य जीव नियमों के उल्लघंन, जंगल कटने पर जानवरों व जैव विविधता पर प्रभाव आदि पर गहन शोध था। आज सरकारी कर्मचारी इन सभी को नजरअंदाज कर परियोजना को शुरू करवाने पर जोर दे रहे हैं।
हरियाली, जनजाति और वन्य जीव के लिए सुरम्य कहे जाने वाले उड़ीसा में हरियाली पर काली सड़के भारी हो रही हैं। यहां बीते एक दषक में एक रेाड़ 85 लाख पेड़ सउ़कों के लिए होम कर दिए गए। इसके एवज में महज 29.83 लाख पेड़ ही लगाए जा सके। इनमें से कितने जीवित बचे ? इसका कोई रिकार्ड नहीं। कानून तो कहता है कि गैर वानिकी क्षेत्र के एक पेड़ काटने पर दो पेड़ लगाए जाने चाहिए जबकि वन क्षेत्र में कटाई पर एक के बदले दस पेड़ का आदेष है। यहां तो कुल काटे गए पेड़ों का बामुष्किल 16 फीसदी ही बोया गया।
विश्व संसाधन संस्थान की शाखा ग्लोबल फ़ॉरेस्ट वॉच के अनुसार, 2014 और 2018 के बीच 122,748 हेक्टेयर जंगल विकास की आंधी में नेस्तनाबूद हो गए। अमेरिका के इस गैर सरकारी संस्था के लिए मैरीलैंड विश्वविद्यालय ने आंकड़े एकत्र किए थे। ये पूरी दुनिया में जंगल के नुकसान के कारणों को जानने के लिए नासा के सेटेलाईट से मिले चित्रों का आकलन करते हैं। रिपोर्ट बताती है कि केाविड लहर आने के पहले के चार सालों में जगल का लुप्त होना 2009 और 2013 के बीच वन और वृक्ष आवरण के नुकसान की तुलना में लगभग 36 फीसदी अधिक था। 2016 (30,936 हेक्टेयर) और 2017 (29,563 हेक्टेयर) में अधिकतम नुकसान दर्ज किया गया था। 2014 में भारतीय वन और वृक्ष आवरण का नुकसान 21,942 हेक्टेयर था, इसके बाद 2018 में गिरावट आई जब वन हानि के आंकड़े 19,310 हेक्टेयर थे।
दुखद यह है कि 2001 से 2018 के बीच काटे गए 18 लाख हैक्टेयर जगलों में सर्वाधिक नुकसान अपनी प्राकृतिक छटा के लिए मशहूर पूर्वोत्तर राज्यों - नगालेंड, त्रिपुरा मेघालय और मणिपुर में हुआ , उसके बाद मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में जम कर वन खोए।
कुछ योजनाएं -सागरमाला परियोजना, मुंबई तटीय सड़क, मुंबई मेट्रो, स्टैच्यू ऑफ यूनिटी, चार धाम रोड, अहमदाबाद-मुंबई बुलेट ट्रेन, मुंबई-गोवा राजमार्ग का विस्तार आदि जो जंगल उजाड कर उभारी गईं। चार धाम ऑल वेदर रोड के लिए लगभग 40,000 पेड़, मुंबई-गोवा राजमार्ग के विस्तार के लिए 44,000 पेड़, अन्य 8,300 पेड़ काटे जाएंगे। इसके अलावा, बुलेट ट्रेन परियोजना के लिए महाराष्ट्र में 77 हेक्टेयर वन भूमि को उजाड़ा जा रहा है।
असम में तिनसुकिया, डिब्रुगढ़ और सिवसागर जिले के बीच स्थित देहिंग पतकली हाथी संरक्षित वन क्षेत्र के घने जंगलों को ‘पूरब का अमेजन’ कहा जाता है। कोई 575 वर्ग किलोमीटर का यह वन 30 किस्म की विलक्षण तितलियों, 100 किस्म के आर्किड सहित सैंकड़ों प्रजाित के वन्य जीवों व वृक्षों का अनूठा जैव विविधता संरक्षण स्थल है। कई सौ साल पुराने पेड़ों की घटाघोप को अब कोयले की कालिख प्रतिस्थापित कर देगी क्योंकि सरकार ने इस जंगल के 98.59 हैक्टर में कोल इंडिया लिमिटेड को कोयला उत्खनन की मंजूरी दे दी है। यहां करीबी सलेकी इलाके में कोई 120 साल से कोयला निकाला जा रहा है। हालांकि कंपनी की लीज सन 2003 में समाप्त हो गई और उसी साल से वन संरक्षण अधिनियम भी लागू हो गया, लेकिन कानून के विपरत वहां खनन चलता रहा और अब जंगल के बीच बारूद लगाने, खनन करने, परिवहन की अनुमति मिलने से तय हो गया है कि पूर्वोत्तर का यह जंगल अब अपना जैव विविधता भंडार खो देगा। यह दुखद है कि भारत में अब जैव विविधता नश्ट होने, जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान के दुश्परिणाम तेजी से सामने आ रहे हैं फिर भी पिछले एक दषक के दौरान विभिन्न विकास परियोजना, खनन या उद्योगों के लिए लगभग 38.22 करोड़ पेड़ काट डाले गए। विष्व के पर्यावरण निश्पालन सूचकांक(एनवायरमेंट परफार्मेंस इंडेक्स) में 180 देषों की सूची में 177वें स्थान पर हैं।
पिछले साल मार्च महीने के तीसरे सप्ताह से भारत में कोरोना संकट के चलते लागू की गई बंदी में भले ही दफ्तर-बाजार आदि पूरी तरह बंद हों लेकिन 31 विकास परियोजनाओं के लिए 185 एकड़ घने जंगलों को उजाड़ने की अनुमति देने का काम जरूर होता रहा। सात अप्रैल 2020 को राश्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (एनबीडब्लूएल ) की स्थाई समिति की बैठक वीडियो कांफ्रेस पर आयोजित की गई ढेर सारी आपत्तियों को दरकिनार करते हुए घने जंगलों को उजाड़ने की अनुमति दे दी गई। समिति ने पर्यावरणीय दृश्टि से संवेदनषील ं 2933 एकड़ के भू-उपयोग परिवर्तन के साथ-साथ 10 किलोमीटर संरक्षित क्षेत्र की जमीन को भी कथित विकास के लिए सौंपने पर सहमति दी। इस श्रेणी में प्रमुख प्रस्ताव उत्तराखंड के देहरादून और टिहरीगढवाल जिलों में लखवार बहुउद्देशीय परियोजना (300 मेगावाट) का निर्माण और चालू है। यह परियोजना बिनोग वन्यजीव अभयारण्य की सीमा से 3.10 किमी दूर स्थित है और अभयारण्य के डिफ़ॉल्ट ईएसजेड में गिरती है। परियोजना के लिए 768.155 हेक्टेयर वन भूमि और 105.422 हेक्टेयर निजी भूमि की आवश्यकता होगी। परियोजनाओं को दी गई पर्यावरणीय मंजूरी को पिछले साल नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने निलंबित कर दिया था।
कोविड ने बता दिया है कि यदि धरती पर इंसान को सुख से जीना है तो जंगल और वन्य जीव को उनके नैसर्गिक परिवेष में जीने का अवसर देना ही होगा। इसके अलावा ग्लोबल वार्मिग का खतरा अब सिर पर ही खड़ा है और इसका निदान कार्बन उत्सर्जन रोकना व हरियाली बढ़ाना है। समूची मानवता पर आसन्न् संकट के बावजूद पिछले पांच वर्षों में हमारे देष में ऐसी कई योजनाएं षुरू की गई जिनसे व्यापक स्तर पर हरियाली नहीं, बल्कि जंगल का नुकसान हुआ। जान लें ंिक जंगल एक प्राकृतिक जैविक चक्र से निर्मित क्ष्ेात्र होता है और उसकी पूर्ति इक्का दुक्का, षहर-बस्ती में लगाए पेड़ नहीं कर सकते।
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