आफत बनते आवारा पशु
पंकज चतुर्वेदी
पूरे देश में भले ही गौवंश को बचाने के लिए इंसान की जान लेने में लोग नहीं हिचक रहे हैं उत्तर प्रदेश में लाखों गायें सड़कों पर छुट्टा घूम रही हैं, या तो वे स्वयं किसी वाहन की चपेट में आती हैं या फिर उनके कारण लोग दुर्घटना के शिकार होते हैं। हजारों आवारा गायों का रेवड़ जहां से भी निकलता है, तबाही मचा देता है, बुंदेलखंड में इन्हें ‘अन्ना गाय’ कहा जाता है। विडंबना यह है कि जो ‘पशु संसाधन’ खेती की सेहत सुधारने के साथ-साथ उर्जा की बचत, लोकजीवन की समृद्धि का कारक बन सकता है वह बेसहारा जंगल-खेत -सड़कों पर डोलते हुए लेागों की जान का दुश्मन बन रहा है।
वैसे तो बुंदेलखंड सदियों से तीन साल में एक बार अल्प वर्शा का शिकार रहा है। यहां से रोजगार के लिए पलायन की परंपरा भी एक सदी से ज्यादा पुरानी है, लेकिन दुधारू मवेशियों को मजबूरी में छुट्टा छोड़े देने का रोग अभी कुछ दशक से ही है। ‘‘ अन्ना प्रथा’’ यानि दूध ना देने वाले मवेशी को आवारा छोड़ देने के चलते यहां खेत व इंसान दोनेां पर संकट है। उरई, झांसी आदि जिलों में कई ऐसे किसान है। जिनके पास अपने जल सांधन हैं लेकिन वे अन्ना पशुओं के कारण बुवाई नहीं कर पाए। जब फसल कुछ हरी होती है तो अचानक ही हजारों अन्ना गायों का रेवड़ आता है व फसल चट कर जाता है। यदि गाय को मारो तो धर्म-रक्षक खड़े हो जाते हैं और खदेड़ों तो बगल के खेत वाला बंदूक निकाल लेता है। गाय को बेच दो तो उसके व्यापारी को रास्ते मं कहीं भी बजरंगियों द्वारा पिटाई का डर। दोनों ही हालात में खून बहता है और कुछ पैसे के लिए खेत बोने वाले किसान को पुलिस-कोतवाली के चक्क्र लगाने पड़ते हैं। यह बानगी है कि बुंदेलखंड में एक करोड़ से ज्यादा चौपाये किस तरह मुसीबत बन रहे हैं और साथ ही उनका पेट भरना भी मुसीबत बन गया है।
प्रदेश की तुलना में उप्र के हिस्से वाले बुंदेलखंड में मात्र 12 फीसदी ही गोवंश हैं। पिछली पशु गणना के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में गोवंशीय पशुओं की संख्या 1,95,57,067 है, जबकि बुंदेलखंड के सातों जिलों- बांदा, चित्रकूट, हमीरपुर, महोबा, जालौन, झांसी और ललितपुर में यह संख्या 23,50,882 है। इनमें कोई आधे सड़क पर छुट्टा हैं जिन्हें अन्ना पशु कहते हैं। सरकारी कागजों पर ये पशु किसी गौशाला में बंद है। लेकिन थाना-पुलिस में दर्ज शिकायतें बताती हैं कि अब ये पशु आपसी दुश्मनी भी उपजा रहे हैं। पशुपालन विभाग की मानें तो बुंदेलखड के चित्रकूट मंडल के चार जिलो में बीते 28 महीने के दौरान 1,29,385 पशु गोशालाओं में 58 करोड़ 92 लाख 37 हजार रुपये का चारा खा गए।
पिछली सरकार के दौरान जारी किए गए विशेश बंुदेलखंड पैकेज में दो करोड़ रूपए का प्रावधान महज ‘‘अन्ना प्रथा’’ रोकने के लिए आम लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए था। अल्प वर्शा के कारण खेती ना होने से हताश किसानों को दुधारू मवेशी पालने के लिए प्रोत्साहत करने के लिए भी सौ करोड़ का प्रावधान था। दो करोड़ में कभी कुछ पर्चे जरूर बंटे थे, लेकिन सौ करोड़ में जिन लोगों ने मवेशी पालने का विकल्प चुना वे भयंकर सूखे में जानवर के लिए चारा-पानी ना होने से परेशान हैं। यहां जानना जरूरी है कि अभी चार दशक पहले तक बुंदेलखंड के हर गांव में चारागाह की जमीन होती थी। षायद ही कोई ऐसा गांव या मजरा होगा जहां कम से कम एक तालाब और कई कुंए नहीं हों। जंगल का फैलाव पचास फीसदी तक था। आधुनिकता की आंधी में बह कर लोगों ने चारागाह को अपना ‘चारागाह’ बना लिया व हड़प गए। तालाबों की जमीन समतल कर या फिर घर की नाली व गंदगी उसमें गिरा कर उनका अस्तित्व ख्षतम कर दिया। हैंड पंप या ट्यूबवेल की मृगमरिचिका में कुओं को बिसरा दिया। जंगलों की ऐसी कटाई हुई कि अब बुंदेलखंड में अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी नहीं बची है व वन विभाग के डिपो ती सौ किलोमीटर दूर से लकड़ी मंगवा रहे हैं। जो कुछ जंगल बचे हैं वहां मवेशी के चरने पर रोक है। कुल मिला कर देखें तो बंुदेलखंड के बाशिंदों ने खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी और अब इसका खामियाजा इंसान ही नहीं, मवेशी भी भुगत रहे हैं।
यह तथ्य सरकार में बैठे लेाग जानते हैं कि भारत में मवेशियों की संख्या कोई तीस करोड़ है। इनसे लगभग 30 लाख टन गोबर हर रोज मिलता है। इसमें से तीस प्रतिशत को कंडा/उपला बना कर जला दिया जाता है। ब्रिटेन में गोबर गैस से हर साल सोलह लाख यूनिट बिजली का उत्पादन होता हे। चीन में डेढ करोड परिवारों को घरेलू उर्जा के लिए गोबर गैस की सप्लाई होती है। यदि गोबर का सही इस्तेमाल हो तो हर साल छह करोड़ टन के लगभग लकड़ी को बचाया जा सकता है। साढे तीन करोड़ टन कोयला बच सकता है। इसे कई करोड़ लेागों को रेाजगार मिल सकता है। यदि बुंदेलखंड के पचास ला के करीब अन्ना पशुओं से कार्य प्रारंभ किया जाए तो खेती के व्यय को कम करने के लिए कंपोस्ट, बिजली-डीजल व्यय घटाने के लिए गोबर गैस तथा जमीन की सेहत को बरकरार रखने के लिए खेती कर्म में बैल के इस्तेमाल की षुरूआत की जा सकती है। यहां की जमीन कड़ी है और छोटे नटवा यानि बैल से दो बार हल-बखर कर जमीन को खेती के काबिल बनाया जा सकता है। अधिकांश किसान छोटी जोत के हैं सो, उन्हें जब ट्रैक्टर की जगह बैल के इस्तेमाल को प्रेरित किया जाएगा तो उनका खेती का व्यय आधा हो जाएगा। सबसे बड़ी बात अन्ना पशुओं की संख्या घटने से उनकी मेहनत पर संभावित डाका तो नहीं पडेगा।
वैसे कुछ स्थानों पर समाज ने गौशालाएं भी खोली हैं लेकिन एक जिले में दो हजार से ज्यादा गाय पालने की क्षमता इन गौशालाओं में नहीं है। लेकिन यहां गोबर गैस जैसे अन्य प्रयोग हो नहीं रहे हैं। गौशालओं का खर्चा चल नहीं रहा है। तभी इन दिनों बंुदेलखंड के किसी भी हाईवे पर चले जाएं हजारों गायें सड़क पर बैठी मिलेंगी। यदि किसी वाहन की इन गायों से टक्क्र हो जाए तो हर गांव में कुछ धर्म के ठेकेदार भी मिलेंगे जो तोड़-फोड़ व वसूली करते हैं , लेकिन इन गाय के मालिकों को इन्हें अपने ही घर में रखने के लिए प्रेरित करने वाले एक भी नहीं मिलेंगे। यह समझना जरूरी है कि गौशाला खोलना सामाजिक विग्रह का कारक बने बेसहारा पशुओं का इलाज नहीं है। वहां केवल बूढ़े या अपाहिज जानवरों को ही रखा जाना चाहिए। गाय या बैल से उनकी क्षमता के अनुरूप् कार्य लेना अनिवार्य है। इससे एक तो उर्जा की बचत होती है, दूसरा खेती-किसानी की लागत भी कम होती है। जान लें कि छोटी जोत में ट्रैक्टर या बिजली के पंप का खर्चा बेमानी है। इसके अलावा गोबर और गौमूत्र खेती में रासायनिक खाद व दवा की लागत कम करने में सहायक हैं। यह काम थोड़े से चारे और देखभाल से चार बैलों से लिया जा सकता है। आज आवार घूम कर आफत बने मवेशियों की अस्सी फीसदी संख्या काम में लाए जाने वाले मवेषियों की है।
बुंदेलखंड में जीवकोपार्जन का एकमात्र जरिया खेती ही है और मवेशी पालन इसका सहायक व्यवसाय। यह जान लें कि एक करोड़ से ज्यादा संख्या का पशु धन तैयार करने में कई साल व कई अरब की रकम लगेगी, लेकिन उनके चारा-पानी की व्यवस्था के लिए कुछ करोड़ ही काफी होंगें। हो सकता है कि इस पर भी कुछ कागजी घोड़े दौड़े लेकिन जब तक ऐसी योजनाओं की क्रियान्वयन एजेंसी में संवेदनशील लोग नहीं होंगे, मवेशी का चारा इंसान के उदरस्थ ही होगा।
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