पराली जलाने में किसान की मजबूरी का हल खोजें
पंकज चतुर्वेदी
कई करोड़ के विज्ञापन चले जिसमें किसी ऐसे घोल की चर्चा थी , जिसके डालते ही पराली गायब हो जाती है व उसे जलाना नहीं पड़ता लेकिन जैसे ही मौसम का मिजाज ठंडा हुआ जब दिल्ली’एनसीआर के पचास हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को स्मॉग ने ढंक लिया । जब रेवाड़ी जिले के धारूहेडा से ले कर गाजियाबाद के मुरादनगर तक का वायु गुणवत्ता सूचकांक साढे चार सौ से अधिक था तो मामला सुप्रीम कोर्ट में गया व फिर सारा ठीकारा पराली पर थोप दिया गया। हालांकि इस बार अदालत इससे असहमत थी कि करोड़ों लोगों की सांस घोटने वाले प्रदूषण का कारण महज पराली जलाना है। चुनावी साल और किसान आंदोलन के चलते पंजाब में वैसे ही सख्ती कम है और सामने दिख रहा है कि इस साल हर बार से ज्यादा पराली जल रही है। नासा का आकलन है कि 13 नवंबर तक अकेले पंजाब में पराली जलाने की 57 हजार घटनाएं हुई हैं।
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि फसल अवशेश या पराली के निस्तारण हेतु किसान कल्याण विभाग ने पंजाब, हरियाणा, उप्र व दिल्ली में 2018
से 2020-21 की अवधि में एक योजना लागू की है जिसका पूरा धन केंद्र दे रहा है। इसके
लिए केंद्र ने कुल 1726.67 करेाड़ रूपए जारी किए जिसका सर्वाािक हिस्सा पंजाब को
793.18 करोड दिया गया। विडंबना है कि इसी
राज्य में सन 2020 के दौरान पराली जलाने की 76590 घटनाएं सामने आई, जबकि बीते साल 2019 में
ऐसी 52991 घटनांए हुई थीं। जाहिर है कि पराली जलाने की घटना में इस राज्य में 44.5
फीसदी का इजाफा हुआ। हरियाण में जहां सन 2019 में पराली जलाने की 6652 घटनाएं हुई
थीं, वे सन 2020 में 5000 रह गईं।
दिल्ली की आवोहवा जैसे ही जहरीली हुई पंजाब-हरियाणा के खेतों में
किसान अपने अवशेश या पराली जलाने पर ठीकरा फोड़ा जाने लगा, हालांकि यह वैज्ञानिक तथ्य
है कि राजधानी के स्मॉग में पराली दहन का योगदान बहुत कम है , लेकिन यह भी बात जरूरी है
कि खेतों में जलने वाला अवशेष असल में किसान के लिए भी नुकसानदेह है। पराली का
ध्ुाआं उनके स्वास्थ्य का दुश्मन है, खेती की जमीन की उर्वरा
षक्ति कम करने वाला है और दूभर भी है। हालांकि खेतों में अवशेश जलाना गैरकानूनी घोषित
है फिर भी धान उगाने वाला ज्यादातर किसान
पिछली फसल काटने के बाद खेतों के अवशेषों को उखाड़ने के बजाए खेत में ही जला देते
हैं।
जान लें देश में हर साल कोई 31 करोड़ टन फसल अवशेश को फूंका जाता
है जिससे हवा में जहरीले तत्वों की मात्रा 33 से 290 गुणा तक बढ़ जाती है। एक
अनुमान है कि हर साल अकेले पंजाब और हरियाणा के खेतों में कुल तीन करोड़ 50 लाख टन
पराली या अवशेश जलाया जाता है। एक टन पराली जलाने पर दो किलो सल्फर डाय आक्साईड, तीन किलो ठोस कण, 60 किलो कार्बन मोनो
आक्साईड, 1460 किलो कार्बन डाय आक्साईड और 199 किलो
राख निकलती है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब कई करोड़ टन अवशेश जलते है तो
वायुमंडल की कितनी दुर्गति होती होगी। इन दिनों सीमांत व बड़े किसान मजदूरों की
उपलब्धता की चिक-चिक से बचने के लिए खरीफ फसल, खासतौर पर धान काटने के
लिए हार्वेस्टर जैसी मशीनों का सहारा लेते हैं। इस तरह की कटाई से फसल के तने का
अधिकांश हिस्सा खेत में ही रह जाता है।
खेत की जैवविविधता का संरक्षण बेहद जरूरी है, खासतौर पर जब पूरी खेती
ऐसे रसायनों द्वारा हो रही है जो कृषि -मित्र सूक्ष्म जीवाणुओं को ही चट कर जाते
हैं। फसल से बचे अंश को इस्तेमाल मिट्टी जीवांश पदार्थ की मात्रा बढ़ाने के लिए नही
किया जाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। जहां गेहूं, गन्ने की हरी पत्तियां, आलू, मूली, की पत्तियां पशुओं के
चारे के रूप में उपयोग की जाती हैं तो कपास, सनई, अरहर आदि के तने गन्ने की
सूखी पत्तियां, धान का पुआल आदि को जला दिया जाता है।
कानून की बंदिश और सरकार द्वारा प्रोत्साहन राशि के बावजूद पराली
के निबटान में बड़े खर्च और दोनो फसलों के बीच बहुत कम समय के चलते बहुत से किसान
अभी भी नहीं मान रहे। उधर किसान का पक्ष है कि पराली को मशीन से निबटाने पर प्रति
एकड़ कम से कम पांच हजार का खर्च आता है। फिर अगली फसल के लिए इतना समय होता नहीं
कि गीली पराली को खेत में पड़े रहने दें। विदित हो हरियाणा-पंजाब में कानून है कि
धान की बुवाई 10 जून से पहले नहीं की जा सकती है। इसके पीछे धारणा है कि भूजल का
अपव्यय रोकने के लिए मानसून आने से पहले
धान ना बोया जाए क्योंकि धान की बुवाई के लिए खेत में पानी भरना होता है। चूंकि
इसे तैयार होने में लगे 140 दिन , फिर उसे काटने के बाद
गेंहू की फसल लगाने के लिए किसान के पास इतना समय होता ही नहीं है कि वह फसल अवशेश
का निबटान सरकार के कानून के मुताबिक करे। जब तक हरियाणा-पंजाब में धान की फसल की
रकवा कम नहीं होता, या फिर खेतों में बरसात का पानी सहेजने के
कुंडं नहीं बनते और उस जल से धान की बुवाई 15 मई से करने की अनुमति नहीं मिलती ; पराली के संकट से निजात
मिलेगा नहीं। हाल ही में इंडियन इंस्टीट्यूट आफ ट्रापिकल मेट्रोलोजी, उत्कल यूनिवर्सिटी, नेशनल एटमोस्फिियर रिसर्च
लेब व सफर के वैज्ञानिकों के संयुक्त समूह द्वारा जारी रिपोर्ट बताती है कि यदि
खरीफ की बुवाई एक महीने पहले कर ली जाए जो राजधानी को पराली के धुए से बचाया जा
सकता है। अध्ययन कहता है कि यदि एक महीने पहले किसान पराली जलाते भी हैं तो हवाएं
तेज चलने के कारण हवा-घुटन के हालता नहीं होतेव हवा के वेग में यह धुआं बह जाता
है। यदि पराली का जलना अक्तूबर-नवंबर के स्थान पर सितंबर में हो तो स्मॉग बनेगा ही
नहीं।
कहने को राज्य सरकारें मशीनें खरीदने पर छूट दे रही हैं परंतु
किसानों का एक बड़ा वर्ग सरकार की सबसिडी योजना से भी नाखुश हैं। उनका कहना है कि
पराली को नष्ट करने की मशीन बाजार में 75
हजार से एक लाख में उपलब्ध है, यदि सरकार से सबसिड़ी लो
तो वह मशीन डेढ से दो लाख की मिलती है। जाहिर है कि सबसिडी उनके लिए बेमानी है।
उसके बाद भी मजदूरों की जरूरत होती ही है। पंजाब और हरियाणा दोनों ही सरकारों ने
पिछले कुछ सालों में पराली को जलाने से रोकने के लिए सीएचसी यानी कस्टम हाइरिंग
केंद्र भी खोले हैं. आसान भाषा में सीएचसी मशीन बैंक है, जो किसानों को उचित दामों
पर मशीनें किराए पर देती हैं।
किसान यहां से मशीन इस
लिए नहीं लेता क्योंकि उसका खर्चा इन मशीनों को किराए पर प्रति एकड़ 5,800 से 6,000
रूपए तक बढ़ जाता है। जब सरकार पराली जलाने पर 2,500 रुपए का जुर्माना लगाती है तो
फिर किसान 6000 रूपए क्यों खर्च करेगा? यही नहीं इन मशीनों को
चलाने के लिए कम से कम 70-75 हार्सपावर के ट्रैक्टर की जरूरत होती है, जिसकी कीमत लगभग 10 लाख
रूपए है, उस पर भी डीजल का खर्च अलग से करना पड़ता
है। जाहिर है कि किसान को पराली जला कर जुर्माना देना ज्यादा सस्ता व सरल लगता है।
उधर कुछ किसानों का कहना है कि सरकार ने
पिछले साल पराली न जलाने पर मुआवजा देने का वादा किया था लेकिन हम अब तक पैसों का
इंतजार कर रहे हैं।
दुर्भाग्य है कि पराली जलाना रोकने की अभी तक जो भी योजनाएं बनीं, वे मशीनी तो हैं लेकिन
मानवीय नहीं, वे कागजों -विज्ञापनो पर तो लुभावनी हैं
लेकिन खेत में व्याहवारिक नहीं। जरूरत है
कि माईक्रो लेबल पर किसानों के साथ मिल कर
उनकी व्याहवारिक दिक्कतों को समझतें हुए इसके निराकरण के स्थानीय उपाय
तलाशें जाएं। मशीनें कभी भी र्प्यावरण का विकल्प नहीं होतीं।, इसके लिए स्वनिंयंत्रण ही
एकमात्र निदान होता है।
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