पानी की बर्बादी ना रोकी तो बेपानी हो जायगा देश
पंकज चतुर्वेदी
जाम्बा, करनाल से कैथल जाने वाले मुख्य मार्ग पर एक संपन्न गांव है। कोई 1250 की आबादी वाले पूरे गांव में 242 घर हैं और सभी पक्के हैं।, यहां ‘हर घर जल की सरकारी योजना के तहत प्रत्येक घर तक पानी की लाईन डली है। गांव में ही जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग हरियाणा ने एक ट्यूब वेल लगा रखा है, जिस पर 25 हार्स पावर की मोटर है। एक कर्मचारी सुबह-षाम एक-एक घंटा इसे चला कर घरों तक पानी पहुंचाता है। पानी को क्लोरिन से शुद्ध किया जाता है। सरकार इसके लिए महज चालीस रूपए महीना लेती है और वह भी कई ग्रामीण चुकाते नहीं। जब मैने गांव वालो से पूछा कि क्या वे जल आपूर्ति से संतुष्ट हैं ? बहुत से लेागों का कहना था कि पानी कम आता है। जल मिशन के सलाहकार दीपक षर्मा से जब इस बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि दिन में दो घंटे मोटर चलने से एक आठ लोगों के परिवार के पीने, रसोई, नहाने का पानी पर्याप्त पहुंच जाता है। जब बारिकी से देखा तो पता चला कि हर गांव में मवेशी पले है। और अब ग्रामीण चाहते हैं कि ढोर के नहलाने का पानी भी नल से ही आए। हरियाणा का कैथल जिला, पंजाब के पटियाला से सटा हुआ है, जिले की समृद्धि का दारोमदार खेती-किसानी को है और जब से धान की लत लगी, किसान ने जम कर भूजल उलीचां और आज यह जिला पाताल में पानी के मामले में काली सूची में है, अर्थात अब यहां का सारा पानी चुक गया है। आज इस जिले के हर छोटे-बड़े गांव में हर घर तक नल का जल है, पानी की जांच का तंत्र काम कर रहा है, टोल फ्री नंबर भी है, लेकिन यह पूरी सरकारी योजना जिस भूजल पर टिकी है, असल में वह किसी भी दिन धोखा दे सकती है।
जाम्बा को ही क्यों कोसें , दिल्ली एनसीआर के कई इलाकों को इस बात के लिए गर्व से प्रचारित किया जाता है कि वहां घरों में गंगा-वाटर आता है। ऐसे इलाकों में फ्लेट के दाम इस कारण अधिक होते हैं। जिस गंगा जल को घरों में एक बोतल में पवित्र निषानी की तरह रखा जाता है, वह गंगा जल लाखें घरों में शो चालय से ले कर कपड़े धोने तक में इस्तेमाल होता है। आज यह सरकारी दस्तावेज स्वीकार करते हैं कि देष के कोई 360 जिलों में पानी की मारामारी अब स्थाई हो गई है। कृषि मंत्रालय के भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् का एक ताजा शोध बताता है कि सन 2030 तक हमारे धरती के तापमान में 0.5 से 1.2 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि अवष्यंभावी है। साल-दर-साल बढ़ते तापमान का प्रभाव सन 2050 में 0.80 से 3.16 और सन 2080 तक 1.56 से 5.44 डिग्री हो सकता है। जान लेंकि तापमान में एक डिग्री बढ़ौतरी का अर्थ है कि खेत में 360 किलो फसल प्रति हैक्टेयर की कमी आ जाना। इस तरह जलवायु परिवर्तन के चलते खेती के लिहाज से 310 जिलों को संवेदनशील माना गया है। इनमें से 109 जिले बेहद संवेदनशील हैं जहां आने वाले एक दशक में ही उपज घटने, पषु धन से ले कर मुर्गी पालन व मछली उत्पाद तक कमी आने की संभावना है। तापमान बढ़ने से बरसात के चक्र में बदलाव, बैमौसम व असामान्य बारिष, तीखी गर्मी व लू, बाढ़ व सुखाड़ की सीधी मार किसान पर पड़ना है।
सामने दिख रहा है कि संकट अकेले का ही नहीं है, अलग-अलग किस्म का पानी, अलग-अलग इस्तेमाल के लिए कैसे छांटा जाए, इस बारे में तंत्र विकसित करना और सबसे बड़ी बात इसके लिए जागरूकता फैलाना अनिवाय है। कैथल के जिस जाम्बी गांव के लोग जब नल से जल पर ही पूरी तरह निर्भर होना चाहते हैं, वे गांव में मौजूए कोई डेढ एकडक्ष् के उस तालाब को बिसरा बैठे हैं, जो अभी कुछ साल पहले तक ही सारे गांव की जरूरतों का केंद्र था। वहां पक्का घाट तो है लेकिन पक्के घरों के शोचालयों के निस्तार से यह धीरे धरीे नाबदान बन रहा है। जिस ट्यूब वेल के पानी से लेागों को नल के पानी का चस्का लगा है, असल में इसका भूजल इसी तालाब के कारण अभी संपन्न है। चीन की राजधानी पेईचिंग में बहुमंजीली भवनों में पीने के पानी की सप्लाई बहुत कम समय को होती है और उसका दाम अधिक होता है। कपड़े, नहोने बर्तन माजने का पानी अलग से आता है। जबकि टायलेट के फ्लष जैसे कार्यों के लिए भवन वालों को ही अपने निस्तार का पुनर्चक्रीकरण करना होता है।
भारत में जिस साल अल्प वर्षा होती है, उस साल भी इतनी कृपा बरसती है कि सारे देश की जरूरत पूरी हो सकती है लेकिन हमारी असली समस्या बरसात की हर बूंद को रोक रखने के लिए हमारे पुरखों द्वारा बनाए तालाब-बावड़ी या नदियों की दुर्गति करना है। बारिष का कुछ हिस्सा तो भाप बनकर उड़ जाता है और कुछ समुद्र में चला जाता है। हम यह भूल जाते हैं कि प्रकृति जीवनदायी संपदा यानी पानी हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है और इस चक्र को गतिमान रखना हमारी जिम्मेदारी है। इस चक्र के थमने का अर्थ है हमारी जिंदगी का थम जाना। प्रकृति के खजाने से हम जितना पानी लेते हैं उसे वापस भी हमें ही लौटाना होता है। पानी के बारे में एक नहीं, कई चौंकाने वाले तथ्य हैं जिसे जानकर लगेगा कि सचमुच अब हममें थोड़ा सा भी पानी नहीं बचा है। कुछ तथ्य इस प्रकार हैं-मुंबई में रोज गाड़ियां धोने में ही 50 लाख लीटर पानी खर्च हो जाता है। दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों में पाइपलाइनों के वॉल्व की खराबी के कारण 17 से 44 प्रतिशत पानी प्रतिदिन बेकार बह जाता है। ब्रह्मपुत्र नदी का प्रतिदिन 2.16 घन मीटर पानी बंगाल की खाड़ी में चला जाता है। भारत में हर वर्ष बाढ़ के कारण करीब हजारों मौतें व अरबों का नुकसान होता है। इजरायल में औसत बारिष 10 सेंटीमीटर है , इसके बावजूद वह इतना अनाज पैदा कर लेता है कि वह उसका निर्यात करता है। दूसरी ओर भारत में औसतन 50 सेंटीमीटर से भी अधिक वर्षा होने के बावजूद सिंचाई के लिए जरूरी जल की कमी बनी रहती है।
पिछले 74 वर्षो में भारत में पानी के लिए कई भीषण संघर्ष हुए हैं, कभी दो राज्य नदी के जल बंटवारे पर भिड़ गए तो कहीं सार्वजनिक नल पर पानी भरने को ले कर हत्या हो गई। खेतों में नहर से पानी देने को हुए विवादों में तो कई पुष्तैनी दुष्मिनियों की नींव रखी हुई हैं। यह भी कडवा सच है कि हमारे देष में औरत पीने के पानी की जुगाड़ के लिए हर रोज ही औसतन चार मील पैदल चलती हैं। पानीजन्य रोगों से विश्व में हर वर्ष 22 लाख लोगों की मौत हो जाती है। पूरी पृथ्वी पर एक अरब 40 घन किलोलीटर पानी है। इसमें से 97.5 प्रतिशत पानी समुद्र में है जोकि खारा है, शेष 1.5 प्रतिशत पानी बर्फ के रूप में धु्रव प्रदेशों में है। बचा एक प्रतिशत पानी नदी, सरोवर, कुआं, झरना और झीलों में है जो पीने के लायक है। इस एक प्रतिशत पानी का 60वां हिस्सा खेती और उद्योगों में खपत होता है। बाकी का 40वां हिस्सा हम पीने, भोजन बनाने, नहाने, कपड़े धोने एवं साफ-सफाई में खर्च करते हैं। यदि ब्रश करते समय नल खुला रह गया है तो पांच मिनट में करीब 25 से 30 लीटर पानी बरबाद होता है। बॉथ टब में नहाते समय धनिक वर्ग 300 से 500 लीटर पानी गटर में बहा देते हैं। मध्यम वर्ग भी इस मामले में पीछे नहीं हैं जो नहाते समय 100 से 150 पानी लीटर बरबाद कर देता है। हमारे समाज में पानी बरबाद करने की राजसी प्रवृत्ति है जिस पर अभी तक अंकुश लगाने की कोई कोशिश नहीं हुई है।
यदि अभी पानी को सहेजने और किफायती इस्तेमाल पर काम नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब सरकार की हर घर नल जैसी योजनाएं जल-स्त्रोत ना होने के कारण रीती दिखेंगी। जान लें, पानी की कमी, मांग में वृद्धि तो साल-दर-साल ऐसी ही रहेगी। अब मानव को ही बरसात की हर बूंद को सहेजने और उसे किफायत से खर्च करने पर विचार करना होगा। इसमें अन्न की बर्बादी सबसे बड़ा मसला है- जितना अन्न बर्बाद होता है, उतना ही पानी जाया होता है।
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