दूरस्थ अंचलों में हों पुस्तक मेले
हमारे देश में आज भी एक समृद्ध पुस्तक संस्कृति विकसित नहीं हो सकी। पाठकों में अच्छी किताबों को पढ़ने की भूख है लेकिन शहरों में किताबों की अच्छी दुकानें तक नहीं है। ऐसे में छोटे छोटे शहरों में पुस्तक मेले किए जाने की ज़रूरत है।
उत्तर प्रदेश के गांव-गांव जब चुनावी तपिश से सुर्ख हैं तभी पुरानी जीटी रोड पर दिल्ली-कानपुर का लगभग मध्य बिंदु कहलाने वाले एटा शहर में चर्चा थी किताबों की, कविता की, गीत और विमर्श की। राज्य के 34 सबसे पिछड़े जिलों में से एक एटा का आर्थिक जुगराफिया भले ही फाइलों में पिछड़ा क्षेत्र अनुदान राशि पाने वाला जनपद हो लेकिन यहां की जनता पुस्तकों पर खर्चा करती है। यह पुस्तक मेला बगैर किसी विशेष सरकारी मदद के स्थानीय समाज के लोग गत 2016 से लगाते रहे हैं। पत्रकार ज्ञानेंद्र रावत , शासकीय अधिकारी संजीव यादव जैसे उत्साही लोग प्रकाशकों को निशुल्क स्टॉल व ठहरने -भोजन की व्यवस्था भी कर देतें हैं। इस साल एक दिन पर्यावरण पर गोष्ठी थी तो एक दिन कौमी एकता सम्मेलन। बच्चों की काव्य, पोस्टर जैसी प्रतियोगिता हुईं और इसमें विजेता बच्चों को अपने पसंद की पुस्तकें खरीदने के वाउचर दे दिए गए।
भले ही इसे नाम मेला का दिया गया हो, असल में यह पुस्तकों के साथ जीने, उसे महसूस करने का उत्सव है। जिसमें गीत-संगीत हैं, आलेाचना है, मनुहार है, मिलन है, असहमतियां हैं और सही मायने में देश की विविधतापूर्ण वैचारिक एकता की प्रदर्शनी भी थी। गांधी, अंबेडकर, सावरकार, नेहरू और दीनदयाल उपाध्याय सभी के विचार एक साथ, एक छत के नीचे विमर्ष करते हुए इस असहिश्णु, वैचारिक तालीबान बन रही पीढ़ी का संदेश दे रही थी कि टकराव बे बेहतर है एक साथ एक मंच पर आ कर विमर्ष करना।
पिछले साल वर्चुअल पुस्तक मेले के बाद अब आठ जनवरी से 16 जनवरी 2022 तक दिल्ली के प्रगति मैदान में पुस्तक मेले की तैयारी चल रही है। इसका थीम है- आजादी का अमृत महोत्सव व अतिथि देश फ्रांस है। इस पर करोड़ेा का व्यय होता है और हर दिन लाखों पुस्तक प्रेमी, लेखक, विचारक, विभन्न सोच के लोग यहां आते हैं। बीते दो दशकों से, जबसे सूचना प्रौद्योगिकी का प्रादुर्भाव हुआ है , मुद्रण तकनीक से जुड़ी पूरी दुनिया एक ही भय में जीती रही है कि कहीं कंप्यूटर, टीवी सीडी की दुनिया छपे हुए काले अक्षरों को अपनी बहुरंगी चकाचौंध में उदरस्थ ना कर ले। जैसे-जैसे चिंताएं बढ़ीं, पुस्तकों का बाजार भी बढ़ता गया। उसे बढ़ना ही था- आखिर साक्षरता दर बढ़ रही है, ज्ञान पर आधारित जीवकोपार्जन करने वालो की संख्या बढ़ रही है। जो प्रकाशक बदलते समय में पाठक के बदलते मूड को भांप गया , वह तो चल निकला, बाकी के पाठकों की घटती संख्या का स्यापा करते रहे।
बौद्धिक-विकास, ज्ञान- प्रस्फुटन और शिक्षा के प्रसार के इस युग में यह बात सभी स्वीकार करते हैं कि देश की बात क्या करें ,दिल्ली में भी पुस्तकें सहजता से उपलब्ध नहीं हैं। गली-मुहल्लों में जो दुकाने हैं, वे पाठ्य पुस्तकों की आपूर्ति कर ही इतना कमा लेते हैं कि दीगर पुस्तकों के बारे में सोच नहीं पाते। हालांकि राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के वसंत कुंज स्थित बड़े से शो रूम व कश्मीरी गेट तथा विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन से पाठकों की पुस्तकों की भूख को शांत करने में मदद मिली है फिर भी यह आम शिकायत है कि लोगों को उनकी बोली-भाषा में, प्रामाणिक व गुणवत्तापूर्ण साथ ही किफायती दाम में पुस्तकें मिलती नहीं।
गौरतलब है कि भारत में पुस्तक व्यवसाय की सालान प्रगति 20 फीसदी से ज्यादा है, इससे लाखों लोगों को सीधे रोजगार मिला है। ऐसे में प्रगति मैदान के पुस्तक मेलों में जहां महानगर के लोगों को एक ही परिसर में पुस्तकों के विकल्प चुनने के अवसर होता है, वहीं एटा जैसे कस्बों में लोकतंत्र की ज्योति को प्रखर करने में पुस्तक मेले महति भूमिका निभाते हैं। जान लें जिस तरह लोकतंत्र विकल्प देता है आपनी पसंद की विचारधारा को चुन कर शासन सौंपने का, ठीक उसी तरह पुस्तक मेले भी विकल्प देते हैं कि पाठक को अपने पसंद के शब्द चुनने के। छोटे कस्बों और शहरों की त्रासदी रही है कि यहां इंटरनेट और पेप्सी जैसे उपभोग का चस्का तो बाजार ने लगवा दिया लेकिन यहां पठन सामग्री के नाम पर महज अखबार या पाठ्य पुस्तकें ही मिल पाती हैं। संयुक्त परिवार के बिखराव ही नहीं, समाज के मिलबैठ कर कोई निर्णय करने की परंपरा को भी सैटेलाइट टीवी और इंटरनेट खा गया।
आधुनिक संचार के माध्यम तथ्यहीन जहर उगल रहे हैं व टीवी-अखबार पूंजी से संचालित दुकान। ऐसे में हमारे अतीत और भविष्य के प्रामाणिक दस्तावेजीकरण के माध्यम से ही हम बेहतर चुनाव कर सकते हैं-विचारधारा का भी और बाजार के उत्पाद का भी, रिश्तों व समझ का भी। और एटा जैसे पुस्तक मेले जाति-धर्म, राजनैतिक प्रतिबद्धता, सामाजिक-आर्थिक भेदभाव से परे एक ऐसा मैदान तैयार करते हैं, जो विचार की तलवार की धार को दमकता रखते हैं।
केवल किताब खरीदने के लिए तो दर्जनों वेबसाईट उपलब्ध हैं जिस पर घर बैठे आदेश दो और घर बैठे डिलेवरी लो। असल में पुस्तक भी इंसानी प्यार की तरह होती है जिससे जब तक बात ना करो, रूबरू ना हो, हाथ से स्पर्ष ना करो, अपनत्व का अहसास देती नहीं हे। फिर तुलनातमकता के लिए एक ही स्थान पर एक साथ इनते सजीव उत्पाद मिलना एक बेहतर विपणन विकल्प व मनोवृति भी है। फिर अंाचलिक पुस्तक मेले तो एक त्योहार है, पाठकों, लेखकों, व्यापारियों , बच्चों के लिए।
अभी कुछ साल पहले तक नेशनल बुक ट्रस्ट दो साल में एक बार प्रगति मैदान का अतंरराश्ट्रीय पुस्तक मेला लगाता था और ऐसे ही हर दो साल में एक राश्ट्रीय पुस्तक मेला होता था, किसी राज्य की राजधानी में। इसके अलवा कई क्षेत्रीय पुस्तक मेले भी। आज कुछ निजी कंपनिया व्यावसायिक आधार पर पुस्तक मेलों का आयेाजन कर रही हैं, जहां साहित्यिक आयेाजन भी होते हैं। आज आवश्यकता है कि हर जिले में समाज व सरकार मिल कर पुस्तक मेला सामति बनाए और कम से कम दो साल में एक बार जिला स्तर पर मेले लगे। भले ही इसमें प्रकाशकों की भागीदारी बीस से पचास तक हो, लेकिन उनके ठहरने, स्थान आदि की व्यवस्थ हो, प्रशासन इसकी प्रचार-प्रसार की काम करे, जिले के षैक्षणिक संस्थान ऐसे मेलों से अपनी लायब्रेरी का समृ़द्ध करें और वहां हर दिन बच्चों व समाज के लिए साहित्यिक, सांस्कृतिक आयेाजन हो। समाज भी सालभर ऐसे गुणवत्तापूर्ण कार्यक्रमाकंे की तैयारी करे, बच्चे व मध्य वर्ग के लोग हर दिन एक रूपया जोउ़ कर पुस्तक मेले से कुछ ना कुछ खरीदने का श्रम करें।
एक बात जान लें अतीत में भारत की पहचान विश्व में एक ज्ञान पुज की रही है और आज जानने की लासा और नया करने की प्रतिबद्धता के लिए जरूरी है कि दूरस्थ अंचलों तक पुस्तकों की रोशनी पहुंचती रहे। यह भी जान लें कि जिन कस्बों-शहरों में ऐसी सांस्कृतिक-साहित्यिक गतिविधियां होती हैं वहां टकराव कम होते हैं। एटा इलाका पिछड़ी कही जाने वाली लोधी और यादव जाति के बाहुल्य का इलाका है अयोध्या के विवादस्पद ढांचा गिराए जाने से पहले यदि उमा भारती के गंजडुडवारा से गुजरने पर भड़के दंगे को छोड़ दें तो एटा में षंाति रहती है। लोग पुस्तक मेलेां में आ कर खुली बहस करने पर यकीन करते हैं।
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