हम खान-पान बदलकर ही बे-पानी होने से बचेंगे
अब देश में कई राज्य सरकारें किसानों को धान की जगह अन्य फसल उगाने के लिए प्रेरित कर रही हैं। बीते कुछ दशकों में खेत से ज्यादा मुनाफा कमाने की फिराक में किसानों को ऐसी फसलें बोने को प्रेरित कर दिया गया, जो ना तो उनके जलवायु के अनुकूल हैं और ना ही स्थानीय भोजन के अनुकूल। बात पंजाब की हो या फिर हरियाणा या उत्तर प्रदेश में गंगा-यमुना के दोआब के बीच बसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश या बिहार की, सदियों से यहां के समाज के भोजन में कभी चावल था ही नहीं, सो उसकी पैदावार भी यहां नहीं होती थी।
दक्षिण भारत में अच्छी बरसात होती है। पारंपरिक रूप से वहीं धान की खेती होती थी और वहीं के लोगों का मूल भोजन चावल था। उत्तर भारत के ज्यादातर राज्यों की जमीन में नमी रहती थी, अत: इधर चना, गेहूं, राजमा, जैसी फसलें हुआ करती थीं। मोटे अनाजों का ज्यादा चलन था। यदि समूचे भारत को बारिकी से देखें, तो प्रकृति ने स्थानीय परिवेश व जरूरत को देखते हुए वहां के भोजन को विकसित किया है। चावल उत्पादन में जल खपत सबसे ज्यादा है और पौष्टिकता सबसे कम। वहीं मोटे अनाज अर्थात बाजरा, मक्का, ज्वार आदि की पौष्टिकता और कीमत, दोनों ज्यादा है व इन्हें उगाने में पानी की मांग सबसे कम।अमेरिका के मशहूर विज्ञान जर्नल साइंस एडवांसेस में प्रकाशित एक लेख - अल्टरनेटिव सेरिल्स केन इंप्रूव वाटर यूजेस ऐंड न्यूट्रिन में यह बताया गया है कि किस तरह भारत के लोगों की बदली भोजन-अभिरूचियों के कारण उनके शरीर में पौष्टिक तत्व कम हो रहे हैं और जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव का उनके स्वास्थ्य पर तत्काल विपरीत असर हो रहा है। रिपोर्ट कहती है कि भारत में गत चार दशकों के दौरान अन्न का उत्पादन 230 प्रतिशत तक बढ़ा, लेकिन उसमें पौष्टिक तत्वों की मात्रा घटती गई। चावल की तुलना में मक्का ज्यादा पौष्टिक है, लेकिन उसकी खेती व मांग लगातार घट रही है। 1960 में भारत में गेहूं की मांग 27 किलोग्राम प्रति व्यक्ति थी, जो आज बढ़कर 55 किलोग्राम के पार हो गई है। वहीं मोटा अनाज ज्वार-बाजरा की मांग इसी अवधि में 32.9 किलोग्राम से घट कर 4.2 किलोग्राम रह गई। जाहिर है कि इन फसलों की बुवाई भी कम हो रही है। यह भी जान लें कि जहां मोटी फसल के लिए बरसात या साधारण सिंचाई पर्याप्त थी, वहीं धान के लिए भूजल को पूरा निचोड़ लिया गया। आज देश में भूजल के कुल इस्तेमाल का 80 फीसदी खेती में हो रहा है और वह भी धान जैसी फसल पर।
याद होगा कि चार साल पहले चीन ने गैर-बासमती चावल भारत से मंगवाने की अनुमति दी थी। हम भले ही इसे व्यापारिक सफलता समझें, लेकिन इसके पीछे चीन का जल-प्रबंधन था। जो चीन सारी दुनिया के गली-मुहल्लों तक अपने सामान के साथ कब्जा किए है, वह आखिर भारत व अन्य देशों से चावल क्यों मंगवा रहा है? असल में कुछ देशों ने ऐसी सभी खेती-बाड़ी को नियंत्रित कर दिया है, जिसमें पानी की मांग ज्यादा होती है। भारत ने बीते सालों में कोई 37 लाख टन बासमती चावल विभिन्न देशों को बेचा है। असल में हमने केवल चावल बेचकर कुछ धन नहीं कमाया, उसके साथ एक खरब लीटर पानी भी उन देशों को दे दिया, जो इतना चावल उगाने में हमारे खेतों में खर्च हुआ था। हम एक किलो गेहूं उगाने में 1700 लीटर और एक कप कॉफी के लिए 140 लीटर पानी का व्यय करते हैं। एक किलो बीफ के उत्पादन में 17 हजार लीटर पानी खर्च होता है। 100 ग्राम चॉकलेट के लिए 1712 लीटर व 40 ग्राम चीनी के लिए 72 लीटर पानी व्यय होता है।
यह जानना बहुत जरूरी है कि भारत में दुनिया के कुल उपधब्ध पानी का सिर्फ चार फीसदी है, जबकि आबादी 16 प्रतिशत है। नीति आयोग की ताजा रिपोर्ट में भी पानी के लिए बुरे हालात का मूल कारण खराब जल प्रबंधन बताया है। जरूरत है कि अब लोगों के भोजन में स्थानीय व मोटे अनाज को फिर से लौटा कर लाने के लिए जागरूकता अभियान, इनके पकवानों के प्रशिक्षण, जलवायु परिवर्तन के खतरे जैसे मसलों पर व्यापक रूप से काम किया जाए। कृषि संबंधी पारंपरिक ज्ञान को यदि फिर से अपनाया जाए, तो खेती में पानी के अपव्यय से बचा जा सकता है।
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