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गुरुवार, 6 जनवरी 2022

Rail track convert in dustbin

 

कूड़ादान बना है रेल पथ

पंकज चतुर्वेदी

 


सन
2014 में शुरू  हुए स्वच्छता अभियान की सफलता के दावे और आंकड़ों में जो कुछ भी फर्क हो लेकिनयह बात सच है कि इससे आम लोगों में साफ-सफाई के प्रति जागरूकता जरूर आई। अब शहरी क्षेत्रों पर केंद्रित स्वच्छता अभियान का दूसरा चरण शुरू  हुआ है लेकिन हकीकत यह है कि किसी भी शहरी-कस्बे में प्रवेश के लिए बिछाई गई रेल की पटरियों बानगी हैं कि यहां अभी स्वच्छता के प्रति निर्विकार भाव बरकरार है। कहते हैं कि भारतीय रेल हमारे समाज का असल आईना है। इसमें इंसान नहीं, बल्कि देश के सुख-दुख, समृद्धि- गरीबी, मानसिकता- मूल व्यवहार जैसी कई मनोवृत्तियां सफर करती हैं। भारतीय रेल 66 हजार किलोमीटर से अधिक के रास्तों के साथ दुनिया का तीसरा सबसे वृहत्त नेटवर्क है, जिसमें हर रोज बारह हजार से अधिक यात्री रेल और कोई सात हजार मालगाड़ियां षामिल हैं। अनुमान है कि इस नेटवर्क में हर रोज कोई दो करोड़ तीस लाख यात्री तथा एक अरब मीट्रिक टन सामान की ढुलाई होती है। दुखद है कि पूरे देश की रेल की पटरियों के किनारे गंदगी, कूड़े और सिस्टम की उपेक्षा की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। कई जगह तो प्लेटफार्म भी अतिक्रमण, अवांछित गतिविधियों और कूड़े का ढेर बने हुए हैं।


देश की राजधानी दिल्ली से आगरा के रास्ते दक्षिणी राज्यों, सोनीपत-पानीपत के रास्ते पंजाब, गाजियाबाद की ओर से पूर्वी भारत, गुडगांव के रास्ते जयपुर की ओर जाने वाले किसी भी रेलवे ट्रैक को दिल्ली शहर के भीतर ही देख लें तो जाहिर हो जाएगा कि देश का असली कचरा घर तो रेल पटरियों के किनारे ही संचालित हैं। सनद रहे ये सभी रास्ते विदेशी पर्यटकों के लोकप्रिय रूट हैं और जब दिल्ली आने से 50 किलोमीटर पहले से ही पटरियों के दोनों तरफ कूड़े, गंदे पानी, बदबू का अंबार दिखता है तो उनकी निगाह में देश की कैसी छबि बनती होगी। सराय रोहिल्ला स्टेशन से जयपुर जाने वाली ट्रैन लें या अमृतसर या चंडीगढ़ जाने वाली शताब्दी, जिनमें बड़ी संख्या में एनआरआई भी होते हैं, गाड़ी की खिड़की से बाहर देखना पसंद नहीं करते। इन रास्तों पर रेलवे ट्रैक से सटी हुई झुग्गियां, दूर-दूर तक खुले में षौच जाते लोग उन विज्ञापनों को मुह चिढ़ाते दिखते हैं जिसमें सरकार के स्वच्छता अभियान की उपलब्धियों के आंकड़े चिंघाड़ते दिखते हैं।


असल में रेल पटरियों के किनारे की कई-कई हजार एकड़ भ्ूामि अवैध अतिक्रमणों की चपेट में हैं। इन पर राजनीतिक संरक्षण प्राप्त भूमाफिओं का कब्जा है जो कि वहां रहने वाले गरीब मेहनतकश लोगों से वसूली करते हैं। इनमें से बड़ी संख्या में लेागां के जीवकोपार्जन का जरिया कूड़ा बीनना या कबाड़ी का काम करना ही हैं। ये लेाग पूरे शहर का कूड़ा जमा करते हैं, अपने काम का सामान निकाल कर बेच देते हैं और षेश के रेल पटरियों के किनारे ही फैंक देते हें, जहां धीरे-धरीे गंदगी के पहाउ़ बन जाते हैं। यह भी आगे चल कर नई झुग्गी का मैदान होता है।



दिल्ली से फरीदाबाद रास्ते को ही लें, यह पूरा औद्योगिक क्षेत्र है। हर कारखाने वाले  के लिए रेलवे की पटरी की तरफ का इलाका अपना कूड़ां, गंदा पानी आदि फैंकने का निशुल्क स्थान होता हे। वहीं इन कारखानों में काम करने वालों के आवास, नित्यकर्म का भी बेरोकटोक गलियारा रेल पटरियों की ओर ही खुलता है।


कचरे का निबटान पूरे देश के लिए समस्या बनता जा रहा है। यह सरकार भी मानती है कि देश के कुल कूड़े का महज पांच प्रतिशत का ईमानदारी से निबटान हो पाता है।  राजधानी दिल्ली का तो 57 फीसदी कूड़ा परोक्ष या अपरोक्ष रूप से यमुना में बहा दिया जाता है या फिर रेल पटरियों के किनारे फैंक दिया जाता है। राजधानी दिल्ली में कचरे का निबटान अब हाथ से बाहर निकलती समस्या बनता जा रहा है। इस समय अकेले दिल्ली शहर 16 हजार मीट्रिक टन कचरा उपजारहा है आर उसके अपने कूड़-ढलाव पूरी तरह भर गए हैं और आसपास 100 किलोमीटर दूर तक कोई नहीं चाहता कि उनके गांव-कस्बे में कूड़े का अंबार लगे। कहने को दिल्ली में पंाच साल पहले पोलीथीन की थैलियों पर रोक लगाई जा चुकी है, लेकिन आज भी प्रतिदिन 583 मीट्रिक टन कचरा प्लास्टिक का ही है। इलेक्ट्रानिक और मेडिकल कचरा तो यहां के जमीन और जल को जहर बना रहा है। घर-घर से कूड़ा जुटाने वाले अपने मतलब  का माल निकाल कर ऐसे सभी अपशिश्ट को ठिकाने लगाने के लिए रेल पटरियों के किनारे ही जाते हैं, क्योंकि वहां कोई रोक-टोक करने वाला नहीं है।


पटरियों के किनारे जमा कचरे में खुद रेलवे का भी बड़ा योगदान है। खासकर षताब्दी, राजधानी जैसी ऐस गाड़ियों में, जिसमें ग्राहक को अनिवार्य रूप से तीन से आठ तक भोजन परोसने होते हैं। इन दिनों पूरा भोजन पेक्ड और एक बार इस्तेमाल  होने वाले बर्तनों में ही होता है। यह हर रोज होता है कि अपना मुकाम आने से पहले खानपान व्यवस्था वाले कर्मचारी बचा भोजन, बोतल, पैकिंग सामग्री के बड़े-बड़े थप्पे चलती ट्रैन से पटरियों के किनारेे ही फैंक देते हैं।यदि हर दिन एक रास्ते पर दस डिब्बों से ऐसा कचरा फैंका जाए तो जाहिर है कि एक साल में उस वीराने में प्लास्टिक जैसी नश्ट ना होने वाली चीजों का अंबार हागा। कागज, प्लास्टिक, धातु  जैसा बहुत सा कूड़ा तो कचरा बीनने वाले जमा कर रिसाईकलिंग वालों को बेच देते हैं। सब्जी के छिलके, खाने-पीने की चीजें, मरे हुए जानवर आदि कुछ समय में सड़-गल जाते हैं। इसके बावजूद ऐसा बहुत कुछ बच जाता है, जो हमारे लिए विकराल संकट का रूप लेता जा रहा है। उल्लेखनीय है कि दिलली तो महज एक उदाहरण है, ठीक यही हाल इंदौर या पटना या बंगलूरू या गुवाहाटी या फिर इलाहबाद रेलवे ट्रैक के भी हैं। शहर आने से पहले गंदगी का अंबार पूरे देश में एकसमान ही है। 


राजधानी दिल्ली हो या फिर दूरस्थ कस्बे का रेलवे प्लेटफार्म, निहायत गंदे, भीड़भरे, अव्यवस्थित और अवांछित लोगों से भरे होते हैं, जिनमें भिखारी से ले कर अवैध वैंडर और यात्री को छोड़ने आए रिश्तेदारों से ले कर भांति-भांति के लोग होते हैं। ऐसे लेाग रेलवे की सफाई के सीमित संसाधनों को तहर-नहस कर देते हैं। कुछ साल पहले बजट में रेलवे स्टेशन विकास निगमके गठन की घोशणा की गई थी, जिसने रेलवे स्टेशन को हवाई अड्डे की तरह चमकाने के सपने दिखाए थे। कुछ स्टेशनों पर काम भी हुआ, लेकिन जिन पटरियों पर रेल दौड़ती है और जिन रास्तों से यात्री रेलवे व देश की संुदर छबि देखने की कल्पना करता है, उसके उद्धार के लिए रेलवे के पास ना ता कोई रोड़-मेप हैं और ना ही परिकल्पना।


 

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