जो बचा ना सका बम का दुरूपयोग
एनरिको फेर्मि(1901-1954)
पंकज चतुर्वेदी
उसने कायनात के सबसे मासूम और छोटे कण की ताकत का जान लिया था, वह चाहता था कि इस असीम शक्ति का इस्तेमाल मानवता की भलाई में हो; इसके लिए उसने देश छोड़ा, घर-बार छोड़ा लेकिन बम तो विध्ंवस के लिए ही होता है। बस! हाथ बदले, अणु शक्ति का दुरूपयोग नहीं बदला। 29 सितंबर 1901 को रोम में जन्मे एनरिको फेर्मि जब स्कूल में थे, तब उनकी रूचि गणित विषय में अधिक थी। फेमि के बचपन का सबसे अच्छा दोस्त उनका बड़ा भाई था। वे दोनों साथ-साथ बिजली की मोटरें व मशीनें बनाते, । दोनों ने कई किताबें खंगालीं और हवाई जहाज के नक्शें व माडल भी तैयार किए। दुर्भाग्य सन 1915 में फेर्मि के भाई ग्यूलियों की मौत हो गई । 16 साल के फेर्मि के लिए यह बहुत बड़ा सदमा था। लेकिन उसने अब किताबों को अपना साथी बना लिया। 19 साल की आयु में उन्हें ‘स्कूलो नार्मले सुपरिएरे’ फेलोशिप मिली। फेर्मि ने चार साल पीसा विश्वविद्यालय में बिताए और 1922 में भौतिकी में डाक्टरेट की डिगरी हांसिल की। 1927 में उन्हें पीसा यूनिवर्सिटी में भौतिकी के प्रोफेसर का पद मिला और वे इस पर सन 1838 तक रहे। सन 1928 में प्रोफेसर फेर्मि का विवाह लोरा केपान से हुआ । इनके एक बेटी नेल्ला व एक बेटा ग्लूडो हुआ।
आने वाले सालों में फेर्मि ने सांख्यिकी के एक महत्वपूर्ण सिद्धांत की ख्,ाोज की, लो आज भी ‘‘फेर्मि स्टेटिस्टीक’’ के नाम से माहूर है। एक तरफ फेर्मि जैसे वैज्ञानिक मानवता के विकास के लिए नई-नई खोाजेंा में लगे हुए थे तो दूसरी ओर हिटलर ने यहूदियों के सफाए की मुहिम चला रखी थी। 1934 में क्यरी और जोलिअट द्वारा रेडियो एक्टिव विकिरण कर अणु-शक्ति की दुनिया का नया अध्याय खुल चुका था। ठीक इसी समय फेर्मि ने ‘बीटा-क्षरण सिद्धांत’ का प्रतिपादन कर सबसे छोटे कण की ताकत के इस्तेमाल का मार्ग प्रशस्त कर दिया था। अब पूरी दुनिया पर अपनी सत्ता कायम करने के लिए जर्मनी परमाणु बम की संभावनाओं पर काम कर रहा था। उधर रोम में मुसोलीन का फासीवाद भी चरम पर था। फेर्मि का अपने ही देश में दम घुट रहा था। एक सार्वजनिक आयेाजन में फेर्मि ने खुल कर कहा-‘‘विज्ञान की उन्नति के लिए हर तरह की स्वतंत्रता चाहिए, किसी तरह की पांबदी नहीं।’’ फासी-सत्ता को इस तरह के बयान कहां सहन होते ? वे दिन इस महान वैज्ञानिक के घुटन के थे।
फेर्मि ने परमाणु आंतरिक संरचना, नाभिकीय अभिक्रियाओं और न्यूट्रान की बौछारों से एक तत्व को दूसरे में परिवर्तित करने का महत्वपूर्ण काम किया । इस खोज पर उन्हें 1938 में नोबेल पुरस्कार मिला। नोबेल सम्मान लेने के नाम पर उन्होंने देश से बाहर जाने की अनुमति ली और सपरिवार रोम से बाहर आ गए। बाद में वे अमेरिका में बस गए। सन 1938 से 1942 तक वे कोलंबिया यूनिवर्सिटी में भौतिकी के प्रोफेसर रहे। वे परमाणु बम बनाने की पहली मेनहट्टन परियोजना के प्रमुख बनाए गए। तभी उन्होंने अल्बर्ट आईन्स्टीन को बताया कि किस तरह युद्ध पर आमादा जर्मनी अणु बम बनाने की कोशिशें कर रहा है। आईन्स्टीन ने इसकी जानकारी अमेरिका केे राश्ट्रपति रूजवेल्ट को दी। इधर फेर्मि परमाणु की ताकत की चरम ताकत के इस्तेमाल की विधि को जान चुके थे। 02 दिसंबर 1942 को शिकागो यूनिवर्सिटी में परमाणु की नियंत्रित श्रृंखला का परीक्षण किया गया और इस तरह अमेरिका ने परमाणु बम बना लिया।
यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि विश्व षांति के लिए अपना देश छोड़ने वाले वैज्ञानिक की महानतम खोज का दुरूपयोग 16 अगस्त 1946 को जापान के हिरोशिमा और इसके तीन दिन बाद नागासाकी पर किया गया। षायद दूसरे विश्व युद्ध का अंत इसी तरह होना था। घूमने, पहाड़ो पर चढ़ने जैसे रोमांचक खेलों के षौकीन फेर्मि इस दुरूपयोग से बेहद दुखी थे। वे परमाणु षक्ति का प्रयोग षांतिपूर्ण कार्यों में करने के हिमायती थे। 28 नवंबर 1954 में शिकागो में उनका देहांत हो गया।
पंकज चतुर्वेदी
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