वादों में ही क्यों डूब जाते हैं तालाब ?पंकज चतुर्वेदी
सरकार हो या समाज सभी मानते तो हैं कि तालाब के बगैर पानी के संकट से पार पाना मुश्किल है, योजना भी बनती हैं लेकिन ना जाने क्या होता है कि क्रियान्वयन स्तर पर पानी की दौड भूजल की और ही दिखती हैं। षायद ही याद हो कि सन 2016 के केंद्रीय बजट में खेतों में पांच लाख तालाब बनाने की बात की गई थी। उप्र में योगी सरकार-प्रथम के पहले सौ दिनोंके कार्य संकल्प में तालाब विकास प्राधिकरण का संकल्प या फिर राजस्थान में कई सालों पुराना झील विकास प्राधिकरण या फिर मप्र में सरोवर हमारी धरोहर या जल अभिशेक जैसे नारों के साथ तालाब-झील सहेजने की योजनाएं-- हर बार लगता है कि अब ताल-तलैयों के दिन बहुरेंगे। तभी जब गर्मी शुरू होते ही देश में पानी की मारा-मार, खेतों के लिए नाकाफी पानी और पाताल में जाते भूजल के आंकड़े उछलने लगते हैं तो समझ आता है कि असल में तालाब को सहजेने की प्रबल इच्छा शक्ति में या तो सरकार का पारंपरिक ज्ञान का सहारा न लेना आड़े आ रहा है या फिर तालाबों की बेशकीमती जमीन को धन कमाने का जरिया समझने वाले ज्यादा ताकतवर हैं। यह अब सभी के सामने हैं कि सिंचाई की बड़ी परियोजनाएं व्यय, समय और नुकसान की तुलना में छोटी व स्थानीय सिंचाई इकाई ज्यादा कारगर है। इसके बावजूद तालाबों को सहेजने का जज्बा कहीं नजर नहीं आता।
अभी फिर घोषणा हो गई कि आजादी के 75 साल के उपलक्ष में हर जिले में 75 तालाब खोद जाएंगे। लेकिन क्या सोचा गया कि हमें ॅिफलहाल नए तालाबों की जरूरत है या फिर क्या हमारी नई अभियांत्रिकी तालाब खोदने के पारंपरिक जोड़-घटाव को समझती है ? पानी-प्यास और पलायन के लिए कुख्यात बुंदेलखंड के सबसे दूभर जिले टीकमगढ़ में तो चार दशक पहले एक एक हजार तालाब थे और आज भी कोई 600 तालाब ऐसे हैं कि यदि उनमें महज नाली का पानी मिलने से रोक दिया जाए और थोड़े से कब्जे हटा दें तो ना केवल पूरा टीकमगढ़ पानी से तर होगा, बल्कि मछली, कमल गट्टा, सिंघाड़ा से आम लोग के घर लक्ष्मी प्रवेश कर जाएगी।
करीबी जिले छतरपुर में किशोर सागर तालाब से अवैध कब्जे हटा कर उसे संपूर्ण रूप देने के लिए एनजीटी से ले कर हाई कोर्ट तक कई बार आदेश दे चुकी है लेकिन एक दशक हो गया प्रशासन की लालफीताशाही अभी तब तालाब की माप ही नहीं कर पा रही।
उप्र के बलिया जिले का एक कस्बे का नाम रत्सड़ इसमें मौजूद सैंकड़ों निजी तालाबों के कारण पड़ा था, सर यानि सरोवर से “सड़” हुआ। कहते हैं कि कुछ दशक पहले तक वहां हर घर का एक तालाब था, लेकिन जैसे ही कस्बे को आधुनिकता की हवा लगी व घरों में नल लगे, फिर गुसलखाने आए, नालियां आई, इन तालाबों को गंदगी डालने का नाबदान बना दिया गया। फिर तालाबों से बदबू आई तो उन्हें ढंक कर नई कालेानियां या दुकानें बनाने का बहाना तलाश लिया गया। कालाहांडी हो या मणिपुर की लोकटक या भोपाल के तालाब या फिर तमिलनाडु में पुलीकट , देश के हर चप्पे पर ऐसे तालाब-सरोवर पहले से हैं जिन्हें देखभाल की दरकार है।
एक तो कागजों पर पानी के लिए लोक लुभावना सपना गढ़ने वालों को
समझना होगा कि तालाब महज एक गड्ढा नहीं है, जिसमें
बारिश का पानी जमा हो जाए और लोग इस्तेमाल
करने लगें। तालाब कहां खुदेगा, इसको
परखने के लिए वहां की मिट्टी, जमीन
पर जल आगमन व निगमन की व्यवस्था, स्थानीय
पर्यावरण का खयाल रखना भी जरूरी होता है। वरना यह भी देखा गया है ग्रेनाईट संरचना
वाले इलाकों में कुएं या तालाब खुदे, रात
में पानी भी आया और कुछ ही घंटों में किसी भूगर्भ की झिर से कहीं बह गया। दूसरा , यदि
बगैर सोचे -समझे पीली या दुरमट मिट्टी में तालाब खोद तो धीरे-धीरे पानी जमीन में बैठेगा, फिर
दल-दल बनाएगा और फिर उससे ना केवल जमीन नष्ट होगी, बल्कि
आसपास की जमीन के प्राकृतिक लवण भी पानी के साथ बह जाएंगे। ऐसे बेतरतीब खोदे कथित
तालाबों के शुरूआत में भले ही अच्छे परिणाम आएं, लेकिन
यदि नमी, दलदल, लवण
बहने का सिलसिला महज पंद्रह साल भी जारी रहा तो उस तालाब के आसपास लाइलाज बंजर
बनना वैज्ञानिक तथ्य है।
यदि तालाबों को ध्यान दें तो यह महज ऐसी प्राकृतिक संरचना मात्र नहीं थे जहां जल जा हो जाता था। पानी को एकत्र करने के लिए इलाके की जलवायु, न्यूनतम बरसात का आकलन, मिट्टी का परीक्षण, भूजल की स्थिति, सदानीरा नदियाँ ,उसके बाद निर्माण सामग्री का चयन, गहराई का गणित जैसी कई बातों का ध्यान रखा जाता है। यह कड़वा सच है कि अंग्रेजीदां इंजीनियरिंग की पढ़ाई ने युवा को सूचनाओं से तो लाद दिया लेकिन देशज ज्ञान उसकी पाठ्य पुस्तकों में कभी रहा नहीं। तभी जब सरकारी इंजीनियर को तालाब सहेजने का कहा जाता है तो वह उस पर स्टील की रेलिंग लगाने, उसके किनारे बगीचा व जल कुंभी मारने को मशीन या गहरा खोदने से अधिक काम कर नहीं पाता। पुरानी संरचनाएं बानगी हैं कि उस काल में भी उन्नत जल-विज्ञान और कुशल जलविज्ञानी मौजूद थे। कई बार लगता है कि जल संरचनाओं के निर्माणकर्ताओं के हाथों में अविष्वसनीय कौषल तथा प्राचीन वास्तुविदों की प्रस्तुति में देष की मिट्टी और जलवायु की बेहतरीन समझ की सोंधी गंध मौजूद थी।
हाल की अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट हों या फिर 1944
की बंगाल दुर्भिक्ष के बाद गठित आयोग का दस्तावेज, सभी
में साफ जताया गया है कि भारत जैसे देश में
सिंचाई के लिए तालाब ही मजबूत जरिया
हैं।खासकर जब हमारे सामने जलवायु परिवर्तन के खतरे मुंह बाए खड़े हैं, अन्न
में पौष्टिकता की कमी, रासायनिक
खाद-दवा के अतिरेक से जहर होती फसल , बढ़ती
आबादी का पेट भरने की चुनौती, फसलों
में विविधता का अभाव और प्राकृतिक आपदाओं की त्वरित मार, सहित
कई एक चुनौतियां खेती के सामने हों, तो
तालाब ही एकमात्र सहारा बचता है।
नए तालाब जरूर बनें, लेकिन
आखिर पुराने तालाबों का जिंदा करने से क्यों बचा जा रहा है? सरकारी
रिकार्ड कहता है कि मुल्क में आजादी के समय लगभग 24
लाख तालाब थे। सन 2000-01
में जब देश के तालाब,- पोखरों
की गणना हुई तो पाया गया कि हम आजादी के बाद कोई 19
लाख तालाब-जोहड़ पी गए। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढे पांच लाख से
ज्यादा है, इसमें से करीब 4
लाख 70
हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि
करीब 15
प्रतिशत बेकार पड़े हैं।
यदि सरकार तालाबों के संरक्षण के प्रति गंभीर है तो गत पांच दशकों
के दौरान तालाब या उसके जल ग्रहण क्षेत्र में हुए अतिक्रमण हटाने, तालाबों के जल
आगमन क्षेत्र में बाधा खड़े करने पर कड़ी कार्यवाही करने , नए
तालाबों के निर्माण के लिए आदि-ज्ञान हेतु समाज से स्थानीय योजनाएं तैयार करवना
जरूरी है। और यह तभी संभव है जब देष में
न्यायीक अधिकार संपन्न तालाब विकास प्राधिकरण का गठन ईमानदारी से किया जाए।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने नए तालाबों का निर्माण तो नहीं ही किया, पुराने
तालाबों को भी पाटकर उन पर इमारतें खड़ी कर दीं। भू-मफियाओं ने तालाबों को पाटकर
बनाई गई इमारतों का अरबों-खरबों रुपये में सौदा किया और खूब मुनाफा कमाया। इस
मुनाफे में उनके साझेदार बने राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी। माफिया-प्रशासनिक
अधिकारियों और राजनेताओं की इस जुगलबंदी ने देश को तालाब विहीन बनाने में कोई कसर
बाकी नहीं रखी।
काष नदी-जोड जैसी किसी एक योजना का समूचे व्यय के बराबर राषि एक
बार एक साल विषेश अभियान चला कर पूरे देश के पारंपरिक तालाबों की गाद हटाने, अतिक्रमण
मुक्त बनाने और उसके पानी की आवक-जावक के
रास्ते को निरापद बनाने में खर्च कर दिया जाए तो भले ही कितनी भी कम बारिश हो, ना
तो देश का कोई कंठ सूखा रहेगा और ना ही जमीन की नमी मारी जाएगी।
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