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गुरुवार, 5 मई 2022

METROS ON MELTING POINT

तपते महानगर बढ़ाते चिंता

पंकज चतुर्वेदी



अभी आगे पूरा मई और जून बकाया है , इस बार तो मनमोहक कहे जाने वाले वसंत के मौसम में हे गर्मी ने जेठ की तपन का अहसास करवा दिया . दिल्ली में  अप्रैल के आखिरी दिनों में अधिकतम तापमान 43.2 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया था। करीबी शहर फरीदाबाद और गुरुग्राम का तापमान 44.5 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया जो कि औसत से 10 डिग्री ज्यादा था।  गाज़ियाबाद भी तपने में पीछे नहीं था . ठीक यही हाल भोपाल या भुवनेश्वर का भी रहा . यह सर्वविदित है कि भारत में भीषण गर्मी पड़ती है, ,  हालांकि, बहुत कम लोगों को पता होगा कि इस प्रचंड गर्मी ने देश में पिछले 50 साल में 17,000 से ज्‍यादा लोगों की जान ली है। 1971 से 2019 के बीच लू चलने की 706 घटनाएं हुई हैं।लेकिन गत पांच सालों में चरम ताप्मानौर लू की घटनाएँ न केवल समय के पहले हो रही हैं , बल्कि  लम्बे समय तक इनकी मार रहती है, खासकर शहरीकरण ने इस मौसमी आग में ईंधन का काम किया है, शहर अब जितने दिन में तपते हैं, रात उससे भी अधिक गरम हवा वाली होती है . जान लें आबादी से उफनते महानगरों में बढ़ता तापमान अकेले संकट नहीं होता , उसके साथ  बढती बिजली और पानी की मांग , दूषित होता पर्यावरण भी नया संकट खड़ा करता है .



अमरीका की कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के शीर्ष वैज्ञानिकों के एक अध्ययन के मुताबिक बढ़ती आबादी और गर्मी के कारण देश के चार बड़े शहर नई दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई और चेन्नई सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। पूरी दुनिया में बांग्लादेश की राजधानी ढाका इस मामले में पहले पायदान पर है। कोलकाता में बढ़ते जोखिम के पीछे 52 फीसदी गर्मी तथा 48 फीसदी आबादी जिम्मेदार है। वैज्ञानिकों का कहना है कि बाहरी भीड़ को नही रोका गया तो तापमान तेजी से बढ़ेगा यह स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह साबित होगा।

पिछली जनगणना के मुताबिक़ भारत की की कोई 31.1 प्रतिशत आबादी , जो कि 37.7 करोड़ होती है, शहरों में बसती है और अनुमान अहि की सन 2050 तक और 40 करोड़ लोग शहर का रुख करेंगे , ऐसे में शहरों का बढ़ता तापमान न केवल पर्यावरणीय संकट है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक त्रासदी-असमानता और संकट का कारक भी बनेगा , गर्मी अकेले शरीर को नहीं प्रभावित करती, इससे इंसान की कार्यक्षमता प्रभावित होती है , पानी और बिजली की मांग बढती है , उत्पादन लागत भी बढती है . शिकागो विश्वविद्यालय के एक शोध से पता चला है कि वर्ष 2100 तक दुनिया में गर्मी का प्रकोप इतना ज्यादा होगा कि महामारी, बीमारी, संक्रमण से भी ज्यादा लोग भीषण गर्मी, लू और प्रदूषण से मरने लगेंगे। अगर ग्रीनहाउस गैसों  के उत्सर्जन पर जल्द ही लगाम नहीं लगाई गई जो आज से 70-80 साल बाद की दुनिया हमारे रहने लायक भी नहीं रह जाएगी। वर्ष 2100 आते-आते दुनिया में होने वाली प्रति एक लाख व्यक्ति में से 73 लोगों की मौत गर्मी और लू की वजह से होगी। इस तरह की प्राक्रतिक आपदा का सर शहरों में ही ज्यादा होगा . यह इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि यह संख्या एचआईवी, मलेरिया और येलो फीवर से होने वाली संयुक्त मौतों के बराबर है।



शहरों में बढ़ते तापमान के  कई कारण है – सबसे बड़ा तो शहरों के विस्तार में हरियाली का होम होना . भले ही दिल्ली जैसे शहर दावा करें कि उनके यहाँ हरियाली की छतरी का विस्तार हुआ है लेकिन हकीकत यह है की इस महानगर में लगने वाले अधिकाँश पेड़ पारम्परिक ऊँचे वृक्ष की जगह जल्दी उगने वाले झाड हैं , जो कि धरती के बढ़ते तापमान की विभीषिका से निबटने में अक्षम हैं . शहरी ऊष्मा द्वीप शहरों की कई विशेषताओं के कारण बनते हैं। बड़े वृक्षों के कारण वाष्पीकरण और वाष्पोत्सर्जन होता है जो कि धरती के बढ़ते तापमान को नियंत्रित करता है . वाष्पीकरण अर्थात मिट्टी, जल संसाधनों आदि से हवा में पानी का प्रवाह.  वाष्पोत्सर्जन  अर्थात पौधों की जड़ों के रास्ते  रंध्र कहलाने वाले पत्तियों में छोटे छिद्रों के माध्यम से हवा में पानी की आवाजाही। शहर के डीवायडर पर लेगे बोगेनवेलिया या ऐसी ही हरियाली  धरती के शीतलीकरण की नैसर्गिक प्रक्रिया में कोई भूमिका निभाते नहीं हैं .


महानगरों की गगनचुम्बी इमारतें भी इसे गरमा रही हैं , ये भवन सूर्य की तपन  से गर्मी को प्रतिबिंबित और अवशोषित करते हैं। इसके अलावा, एक-दूसरे के करीब कई ऊंची इमारतें भी हवा के प्रवाह में बाधा बनती हैं, इससे शीतलन अवरुद्ध होता हैं. शहरों की सड़कें उसका तापमान बढ़ने में बड़ी कारक हैं . महानगर में सीमेंट और कंक्रीट के बढ़ते जंगल, डामर की सड़कें और ऊंचे ऊंचे मकान बड़ी मात्रा में सूर्य की किरणों को सोख रहे हैं। इस कारण शहर में गर्मी बढ़ रही है। वैज्ञानिकों के मुताबिक तापमान में जितनी वृद्धि होगी बीमारियां उतना ही गुणा बढ़ेगी और लोग मौत के मुंह में समा जाएंगे। सडक डामर की हो या कंक्रीट की, यह गर्मी को अवशोषित करते हैं और फिर वायुमंडल का तापमान जैसे ही कम हुआ तो उसे उत्सर्जित कर देते हैं . शहर को सुंदर और समर्थ बनाने वाली कंक्रीट की ऊष्मा क्षमता बहुत अधिक होती है और यह ऊष्मा के भंडार के रूप में कार्य करती है। इसके अलावा, शहरों के ऊपर वायुमंडलीय स्थितियों के कारण अक्सर शहरी हवा जमीन की सतह के पास फंस जाती है, जहां इसे गर्म शहरी सतहों से गर्म किया जाता है।  हालाँकि शहरों को भट्टी बनाने में इंसान भी पीछे नहीं हैं .वाहनों के चलने और इमारतों में लगे पंखे, कंप्यूटर, रेफ्रिजरेटर और एयर कंडीशनर जैसे बिजली के उपकरण भले ही इंसान को सुख देते हों लेकिन  ये शहरी अप्रिवेश का तापमान बढ़ने में बड़ी भूमिका अदा करते हैं . फिर कारखाने , निर्माण कार्य और बहुत कुछ है जो शहर को उबाल रहा है .


यदि इन शहरों से कोई 50 किलोमीटर दूर किसी कसबे या या गाँव में जाएँ तो गर्मी का तीखापन इतना नहीं लगता , गर्मी अपने साथ बहुत सी बीमारियाँ ले कर आ रही है , गर्मी के कारण शहर के नालों के पानी का तापमान बढ़ता है और यह जल जब नदी में मिलता है तो उसका तापमान भी बढ़ जाता है, जिससे नदी का जैविक जीवन, जिसमें वनस्पति और जीव दोनों हैं , को खतरा है , जान लें किसी भी नदी  की पावनता में उसमें उपस्थित जैविक तत्वों की अहम् भूमिका होती है.

शहरों की घनी आबादी संक्रामक रोगों के प्रसार का  आसान जरिया होते हैं, यहां दूषित  पानी या हवा भीतर ही भीतर इंसान को खाती रहती है और यहां बीमारों की संख्या ज्यादा होती है।  देश  के सभी बड़े शहर इन दिनों कूड़े को निबटाने की समस्या से जूझ रहे हैं। कूड़े को एकत्र करना और फिर उसका शमन करना, एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। यह सब चुनौतियां बढे तापमान में और भी दूभर हो जाती हैं .

यदि शहर में गर्मी की मार से बचना है तो अधिक से अधिक  पारम्परिक पेड़ों का रोपना  जरुरी है, साथ ही शहर के बीच बहने वाली नदियाँ, तालाब, जोहड़ आदि यदि निर्मल और अविरल  रहेंगे  तो बढ़ी गर्मी को सोखने में ये सक्षम होंगे , कार्यालयों के समय में बदलाव , सार्वजनिक  परिवहन को बढ़ावा, बहु मंजिला भवनों का ईको फ्रेंडली होना , उर्जा संचयन  सहित कुछ ऐसे उपाय हैं जो बहुत कम व्यय में शहर को भट्टी बनने  से बचा सकते हैं . हां – अंतिम उपाय तो शहरों की तरफ पलायन रोकना ही होगा .

 

 

 

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