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बुधवार, 13 जुलाई 2022

Sri Lanka drowned by the right decision taken at the wrong time

 गलत समय पर लिए गए सही फैसले से डूबा श्रीलंका

पंकज चतुर्वेदी


श्रीलंका में जन विद्रोह की तस्वीरे  मीडिया में तैर रही हैं और भूख , महंगाई से त्रस्त, बेरोजगारों की फौज ने  राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया . समझना जरुरी है कि आज जो वहां की हालात हैं ,उसकी शुरुआत अक्तूबर २०२१ में हो गई थी और प्रारंभ में अन्न की कमी का कारण उस देश में पूरी तरह जैविक खेती को लागू करना था ,  जाहिर है की राशय्निक खाद और कीटनाशकों की लॉबी को यह फैसला पसंद नहीं आना था . लेकिन यह भी सच है कि शासक की नियत इस फैसले के पीछे कुछ सांप्रदायिक और बगैर दूरगामी परिणाम की सोचे इसे जबरिया लागु करवाने की थी .  अलग अलग कारणों से समाज के विभिन्न वर्ग नाराज थे और फिर जब एक समय खाने की नौबत आ गई तो राष्ट्रवाद का चुल्हा  राख बन गया और पेट की आग क्रांति बन कर  महलों को गिराने खड़ी हो  गई .

हमारे पडोसी देश श्रीलंका में खाने-पीने की वस्तुओं का संकट कोई डेढ़ साल पहले खड़ा हो गया था  . नवम्बर -21 में वहां हालात इतने खराब थे कि वहां खाद्य आपातकाल लगाना पड़ा और आलू, चावल जैसी जरुरी चीजों के वितरण का जिम्मा फौज के हाथों में दे दिया गया . यह सच है कि कोविड के कारण श्रीलंका की आर्थिक सम्रद्धि के मूल कारक पर्यटन को कोविड के कारण तगड़ा नुक्सान हुआ था लेकिन दो करोड़ 13 लाख की आबादी वाले छोटे से देश ने वर्ष २०२१  अप्रैल में एक क्रांतिकारी कदम उठाया . श्रीलंकाई सरकार ने देश की पूरी खेती को रासायनिक खाद और कीटनाशक से मुक्त कर शत प्रतिशत जैविक खेती करना तय किया इस तरह बगैर रसायन के हर दाना उगाने वाला पहला देश बनने की चाहत में श्रीलंका ने कीटनाशकों उर्वरकों और कृषि रसायनों के आयात और उपयोग पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया. दशकों से रसायन की आदी हो गई जमीन भी इतने त्वरित बदलाव के लिए तैयार नहीं थे फिर कीटनाशक-खाद की अंतर्राष्ट्रीय लॉबी को हुए इतने बड़े नुक्सान पर उन्हें भी कुछ खुराफात तो करना ही था .बहरहाल श्रीलंका के मौजूदा हालात के मद्देनजर सारी  दुनिया के कृषि प्रधान देशों के लिए यह चेतावनी भी है और सीख भी कि यदि बदलाव करना है तो तत्काल एक साथ करने पर विपरीत तात्कालिक परिणामों के लिए भी तैयार होना पड़ेगा .

श्रीलंका के सकल घरेलु उत्पाद अर्थात जीडीपी में खेती-किसानी की भागीदारी 8.36% है और देश के कुल रोजगार में खेती का हिस्सा 23.73 फीसदी है . इस हरे भरे देश में चाय उत्पादन के जरिये बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा आती है , यहा हर साल 278.49 मेट्रिक किलोग्राम चाय पैदा होती है जिसमें कई किस्म दुनिया की सबसे महंगी चाय की हैं . खेती में रसायनों के इस्तेमाल की मार चाय के बागानों के अलावा काली मिर्च जैसे मसलों के बागानों पर भी असर पड़ा है , इस देश में चावल के साथ- साथ ढेर सारी फल सब्जी उगाई जाती है . श्रीलंका सरकार का सोचना है कि भले ही रसायन वाली खेती में कुछ अधिक फसल आती है लेकिन उसके कारण पर्यावरण क्षरण, जल प्रदूषण हुआ है, और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि हो रही है , देश जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहा है और देश को बचाने का एकमात्र तरीका है , खाद्ध को रसायन से पूरी तरह मुक्त करना . हालांकि विशेषज्ञों का अनुमान है कि फसलें देश के सामान्य उत्पादन का लगभग आधी रह जाएँगी ।



दूसरी तरफ चाय उत्पादक भयभीत हैं कि कम फसल होने पर खेती में खर्चा बढेगा . पूरी तरह से जैविक हो जाने पर उनकी फसल का 50 प्रतिशत कम उत्पादन होगा लेकिन उसकी कीमत 50 प्रतिशत ज्यादा मिलने से रही .

श्रीलंका का यह निर्णय पर्यावरण, खाने की चीजों की गुणवत्ता और जमीन की सेहत को ध्यान में रखते है तो बहुत अच्छा था लेकिन धरातल की वास्तिवकता यह है कि देश ने अपने किसानों को जैविक खेती के लिए व्यापक प्रशिक्षण तक नहीं दिया, फिर सरकार के पास पर्याप्त मात्रा में जैविक खाद भी उपलब्ध नहीं थी . एक अनुमान के अनुसार, देश में हर दिन लगभग 3,500 टन नगरपालिका जैविक कचरा उत्पन्न होता है। इससे सालाना आधार पर लगभग 2-3 मिलियन टन कम्पोस्ट का उत्पादन किया जा सकता है। हालांकि, सिर्फ जैविक धान की खेती के लिए 5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से सालाना लगभग 4 मिलियन टन खाद की आवश्यकता होती है। चाय बागानों के लिए जैविक खाद की मांग 30 लाख टन और हो सकती है। जाहिर है कि रासायनिक से जैविक खेती में बदलाव के साथ ही श्रीलंका को जैविक उर्वरकों और जैव उर्वरकों के बड़े घरेलू उत्पादन की आवश्यकता है। सरकार की नियत भले ही अच्छी थी लेकिन इससे किसानों के सामने भुखमरी और खेत में कम उपज के डरावने हालात पैदा हो गये ।


इस बीच अंतर्राष्ट्रीय खाद-कीटनाशक लॉबी भी सक्रीय हो गई है और दुनिया को बता रही है कि श्रीलंका जैसा प्रयोग करने पर कितने संकट आयेंगे . हूवर इंस्टीट्यूशन के हेनरी मिलर कहते हैं कि जैविक कृषि का घातक दोष कम पैदावार है जो इसे पानी और खेत की बर्बादी का कारण बनता है. प्लांट पैथोलॉजिस्ट स्टीवन सैवेज के एक अध्ययन के अनुसार, जैविक खेती की पर्यावरणीय लागत और दुष्प्रभावों का अपना हिस्सा है: " समूचे अमेरिका में जैविक खेती के लिए 109 मिलियन अधिक एकड़ भूमि की खेती की आवश्यकता होगी जो देश की वर्तमान शहरी भूमि से 1.8 गुना अधिक है। एक बात और कही जा रही है कि जैविक खेती के कारण किसान को साल मने तीन तो क्या दो फसल मिलने में भी मुश्किल होगी क्योंकि इस तरह की फसल समय ले कर पकती है जिससे उपज अंतराल में और वृद्धि हो सकती है. उपज कम होने पर गरीब लोग बढ़ती कीमत की चपेट में आयेंगे . लेकिन यह भी कडवा सच है कि अंधाधुंध रसायन के इस्तेमाल से तैयार फसलों के कारण हर साल कोई पच्चीस लाख लोग सारी दुनिया में केंसर, फेफड़ों के रोग आदि से मारे जाते हैं , अकेले कीटनाशक के इस्तेमाल से आत्महत्या अकरने वालों का आंकडा सालाना तीन लाख है . इस तरह के उत्पाद के भक्षण से आम लोगों की प्रतिरोध क्षमता कम होने, बीमारी का शिकार होने और असामयिक मौत से ना जाने कितना खर्च आम लोगों पर पड़ता है, साथ ही इससे इंसान के श्रम कार्य दिवस भी प्रभावित होते हैं .

दूसरे विश्व युद्ध के बाद, बढती आबादी की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए सारी दुनिया में 'हरित क्रांति' शुरू की गई थी। 1960 के दशक तक पारंपरिक एशियाई खेती के तरीकों को एक उन्नत, वैज्ञानिक कृषि प्रणाली में बदल दिया गया था। उच्च पैदावार देने वाले हाइब्रिड बीजों को पेश किया गया था, लेकिन वे कृषि रसायनों पर अत्यधिक निर्भर थे, जिसके परिणामस्वरूप लोगों, जानवरों और पर्यावरण के लिए खतरा पैदा हो गया था। यह कैसी विडंबना है कि सारी दुनिया रसायन और कीटनाशक से उगाई फसल के इन्सान के शरीर और समूचे पर्यावरण पर दूरगामी नुक्सान से वाकिफ है लेकिन वैश्विक स्तर पर महज एक प्रतिशत खेतों में ही सम्पूर्ण जैविक खेती हो रही है . यदि जैविक और पारंपरिक तरीकों का सलीके से संयोजन किया जाए तो फसल की उत्पादकता को सहजता से बढ़ाया जा सकता है .

श्रीलंका की नई नीति से पहले खाद्य आपातकाल जैसे भयावय हालात निर्मित हुए उसके  बाद में रासायनिक उर्वरकों के उपयोग संबंधी फैसले को पलट दिया गया, लेकिन तब तक बहुत देर हो गई थी और एक विकराल खाद्य संकट दस्तक देने की तैयारी कर चुका था. इसका ही परिणाम है कि आज श्रीलंका वित्तीय एवं खाद्य संकट से इतना त्रस्त हो गया है कि उसकी अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई है. श्रीलंका की सबसे बड़ी गलती तो यह रही की विदेश से कर्जा ले कर विकास की दमकती तस्वीर दिखाई और जब ब्य्जा ही  इतना हो गया की देश का दिवाला निकल गया .

 

श्रीलंका में भी भारत की तरह खेती के पारंपरिक ज्ञान का भंडार है, वहां भी वृक्ष आयुर्वेद की तरह के ग्रन्थ हैं , वहां अपनी बीज हैं और पानी के अच्छे प्राकर्तिक साधन भी , यह कडवा सच है की  श्रीलंका सरकार को जैविक खाद वाले निर्णय की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है लेकिन यह भी सच है कि एक बार फिर जड़ों की तरफ लौटना शुरुआत में तो कष्टप्रद है लेकिन यह जलवायु परिवर्तन से त्रस्त सारी दुनिया को इस बारे में एक साथ सोचना होगा .

 

 

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