मानसून को समझे बगैर नहीं बुझगी प्यास
पंकज चतुर्वेदी
मानसून ने अभी दस्तक ही दी है और पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत के जो हिस्से पानी के लिए व्याकुल थे, पानी-पानी हो गए। जल संकट के लिए सबसे परेशान मध्य भारत में जैसे ही प्रकृति ने अपना आशीष बरसाया और ताल-तलैया, नदी-नाले उफन कर धरा को अमृतमय करने लगे , मीडिया ने इसे तबाही, बर्बादी, विनाश जैसी नफरतों से धिक्कारना शुरू कर दिया । असल में पानी को ले कर हमारी सोच प्रारंभ से ही त्रुटिपूर्ण है- हमें पढ़ा दिया गया कि नदी, नहर, तालाब झील आदि पानी के स्त्रोत हैं, हकीकत में हमारे देश में पानी का स्त्रोत केवल मानूसन ही हैं, नदी-दरिया आदि तो उसको सहेजने का स्थान मात्र हैं। यह धरती ही पानी के कारण जीवों से आबाद है और पानी के आगम मानसून को हम कदर नहीं करते और उसकी नियामत को सहेजने के स्थान हमने खुद उजाड़ दिए। गंगा-यमुना के उद्गम स्थल से छोटी नदियों के गांव-कस्बे तक बस यही हल्ला है कि बरसात ने खेत-गांव सबकुछ उजाड़ दिया। यह भी सच है कि अभी मानसून विदा होते ही उन सभी इलाकों में पानी की एक-एक बूंद के लिए मारा-मारी होगी और लोग पीने के एक गिलास पानी में आधा भर कर जल-संरक्षण के प्रवचन देते और जल जीवन का आधार जैसे नारे दीवारों पर पोतते दिखेंगे। और फिर बारिकी से देखना होगा कि मानसून में जल का विस्तार हमारी जमीन पर हुआ है या वास्तव में हमने ही जल विस्तार के नैसर्गिक परिघि पर अपना कब्जा जमा लिया है।
मानसून शब्द असल में अरबी शब्द ‘मौसिम’ से आया है, जिसका अर्थ होता
है मौसम। अरब सागर में बहने वाली मौसमी हवाओं के लिए अरबी मल्लाह इस षब्द का
इस्तेमाल करते थे। हकीकत तो यह है कि भारत में केवल तीन ही किस्म की जलवायु है -
मानसून, मानसून -पूर्व
और मानसून-पश्चात। तभी भारत की जलवायु को मानसूनी जलवायु कहा जाता है । जान लें
मानसून का पता सबसे पहले पहली सदी ईस्वी में हिप्पोलस ने लगाया था और तभी से इसके
मिजाज को भांपने की वैज्ञानिक व लोक प्रयास जारी हैं।
भारत के
लेक-जीवन, अर्थ व्यवस्था, पव-त्योहार का
मूल आधार बरसात या मानसून का मिजाज ही है। कमजोर मानसून पूरे देश को सूना कर देता
है। कहना अतिशियोक्ति नहीं होगा कि मानसून भारत के अस्तित्व की धुरी है। जो
महानगर- शहर पूरे साल वायु प्रदूशण के कारण हल्कान रहते हैं, इसी मौसम में
वहां के लोगों को सांस लेने को साफ हवा मिलती है।
खेती-हरियाली और साल भर के जल की जुगाड़ इसी बरसात पर निर्भर है। इसके
बावजूद जब प्रकृति अपना आशीश इन बूंदों के रूप में देती है तो समाज व सरकार इसे
बड़े खलनायक के रूप में पेश करने लगते हैं। इसका असल कारण यह है कि हमारे देश में
मानसून को सम्मान करने की परंपरा समाप्त होती जा रही है - कारण भी है , तेजी से हो रहा
षहरों की ओर पलायन व गांवों का षहरीकरण।
भारतीय मानसून
का संबंध मुख्यतया गरमी के दिनों में होने वाली वायुमंडलीय परिसंचरण में
परिवर्तन से है। गरमी की शुरूआत होने से सूर्य उत्तरायण हो जाता है। सूर्य के
उत्तरायण के साथ -साथ अंतःउष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र का भी उत्तरायण होना
प्रारंभ हो जाता है इसके प्रभाव से पश्चिमी जेट स्ट्रीम हिमालय के उत्तर में
प्रवाहित होने लगती है। इस तरह तापमान बढने से निम्न वायुदाब निर्मित होता है।
दक्षिण में हिंद महासागर में मेडागास्कर द्वीप के समीप उच्च वायुदाब का विकास होता
है इसी उच्च वायुदाब के केंद्र से दक्षिण पश्चिम मानसून की उत्पत्ति होती है । जान
लें तापमान बढ़ने के कारण एशिया पर न्यून वायुदाब बन जाता है। इसके विपरीत दक्षिणी
गोलार्द्ध में शीतकाल के कारण दक्षिण हिंद महासागर तथा उत्तर-पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया
के पास उच्च दाब विकसित हो जाता है। परिणामस्वरूप उच्च दाब वाले क्षेत्रों से
अर्थात् महासागरीय भागों से निम्न दाब वाले स्थलीय भागों की ओर हवाएँ चलने लगती
हैं। सागरों के ऊपर से आने के कारण नमी से लदी ये हवाएँ पर्याप्त वृष्टि प्रदान
करती हैं। जब निम्न दाब का क्षेत्र अधिक सक्रिय हो जाता है तो दक्षिण-पूर्वी
व्यापारिक हवा भी भूमध्य रेखा को पार करके मानसूनी हवाओं से मिल जाती है। इसे
दक्षिण-पश्चिमी मानसून अथवा भारतीय मानसून भी कहा जाता है। इस प्रकार एशिया में
मानसून की दो शाखाएँ हो जाती हैं-भारत में भी दक्षिण-पश्चिम मानसून की दो शाखाएँ
हो जाती हैं-बंगाल की खाड़ी और अरब सागर की शाखा। लवायु परिवर्तन का गहरा असर भारत
में अब दिखने लगा है, इसके साथ ही ठंड के दिनों में अलनीनो और दीगर
मौसम में ला नीना का असर हमारे मानसून-तंत्र को प्रभावित कर रहा है।
विडंबना यह है
कि हम अपनी जरूरतों के कुछ लीटर पानी को घटाने को तो राजी हैं लेकिन मानसून से मिले
जल को संरक्षित करने के मार्ग में खुद ही रोड़ अटकाते हैं। जबकि मानूसन को सहेजने
वाली नदियों में पानी सुरक्षित रखने के बनिस्पत रेत निकालने पर ज्यादा ध्यान देते
हैं।हम यह भूल जाते हैं कि नदी की अपनी याददाश्त होती है, वह दो सौ साल तक
अपने इलाके को भूलती नहीं। गौर से देखें तो आज जिन इलाकों में नदी से तबाही पर
विलप हो रहा है, वे सभी किसी नदी के बीते दो सदी के रास्ते में यह सोच कर बसा लिए गए कि अब तो
नदी दूसरे रास्ते बह रही है, खाली जगह पर बस्ती बसा ली जाए। दूर क्यों जाएं, दिल्ली में ही
अक्षरधाम मंदिर से ले कर खेलगांव तक को लें, अदालती दस्तावेजों में खुड़पेंच कर यमुना के जल
ग्रहण क्षेत्र में बसा ली गईं। दिल्ली के पुराने खादर बीते पांच दशक में
ओखला-जामिया नगर से ले कर गीता कालोनी, बुराड़ी जैसी घनी कालेनियों में बस गए और अब
सरकार यमुना का पानी अपने घर में रोकने के
उ.प्र में गंगा
व यमुना या उनकी सखा-सहेलियों को जहां भी बांधने के प्रयास हुए, वहां इस बार
जल-तबाही होती है। गुजरात का उदाहरण सामने हैं नर्मदा को बंधने से उसके हर षहर की
आधुनिकता पर ‘‘पानी’’ का फिर गया है।
हमारी नदियां उथली हैं और उनको अतिक्रमण
और कभी -कभी सुदरता या रिवर फ्रंट के नाम पर संकरा किया गया। नदियों का अतिरिक्त पानी
सहेजने वाले तालाब-बावली-कुएं नदारद हैं।
फिर पानी सहेजने व उसके बहुउद्देशीय इस्तेमाल के लिए बनाए गए बांध, अरबों की लगात, दशकों के समय, विस्थापन
के बाद भी थोडी सी बरसात को समेट नहीं पा रहे हैं। पहाड़, पेड, और धतरी को
सांमजस्य के साथ खुला छोड़ा जाए तो इंसान
के लिए जरूरी सालभ्र का पानी को भूमि अपने गर्भ में ही सहेज ले।
असल में हम अपने
मानसून के मिजाज, बदलते मौसम में बदलती बरसात, बरसात के जल को
सहेज कर रखने के प्राकृतिक खजानों की रक्षा के प्रति ना तो गंभीर हैं और ना ही कुछ
नया सीखना चाहते हैं। पूरा जल तंत्र महज
भूजल पर टिका है जबकि यह सर्वविविदत तथ्य है कि भूजल पेयजल का सुरक्षित साधन नहीं
है। हर घर तक नल से जल पहुंचाने की योजना
का सफल क्रियान्वयन केवल मानूसन को सम्मान देने से ही संभव होगा।
मानसून अब केवल
भूगोल या मौसम विज्ञान नहीं हैं- इससे इंजीनियरिंग, ड्रैनेज ,सेनिटेशन, कृषि , सहित बहुत कुछ जुड़ा है। मानसून-प्रबंधन का गहन
अध्ययन हमारे स्कूलों से ले कर
इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों में हो , जिसके तहत केवल मानसून से पानी ही नहीं, उससे जुड़ी फसलों, सड़कों, षहरों में
बरसाती पानी के निकासी के माकूल प्रबंधों व संरक्षण जैसे अध्याय हों।
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