देखो हिमालय नाराज़ हो रहा है !
पंकज
चतुर्वेदी
शनिवार,
२० अगस्त का दिन जैसे उत्तखंड के लिए कयामत बन कर आया .देहरादून में पहाड़ से इतना
मालवा गिरा कि चार लोग जिंदा दफ़न हो गये, पचास से अधिक मकान टूट गए दो पूल टूटे .ऋषिकेश में त्रिवेणी घात धंस गया.
राज्य जसे थम गया- तीन राष्ट्रिय मार्ग, 32 राज्य मार्ग और 190 ग्रामीण मार्ग लगभग
बंद हो गए .लगातार भूस्खलन और मलबा जमा होने के चलते उत्तराखंड में रास्तों के बंद
होने की कोई सौ खबर इस बरसाती मौसम में आ चुकी हैं. चमोली ज़िले में चीन बॉर्डर के
साथ जुड़ने वाला महत्वपूर्ण मार्ग दो सप्ताह से ज्यादा से बंद है क्योंकि तमकानाला
और जुम्मा में लगातार हो रहे भूस्खलन के चलते जोशीमठ और मलारी के बीच हाईवे पर
यातायात बाधित है. बदरीनाथ जाने वाला नेशनल हाईवे अगस्त के दूसरे हफ्ते में पांच
दिन में आठ बार मालवा-पत्थर गिरने से बंद हुआ . एक हफ्ता पहले ही चंबा-उत्तरकाशी
राजमार्ग पर पत्थर गिरे तो हर घर तिरंगा के लिए जा रहे राज्य के मंत्री को पैदल ही
जाना पड़ा .जो सड़कें पहाड़ को दौड़ने
का हौसला दे रही थीं, वे बरसात में क्रुद्ध हिमालय के प्रतिकार से ठिठक गई हैं . लंबगांव-उत्तरकाशी
मोटर मार्ग पर महेड़ देवता मंदिर के समीप सड़क का लगभग 20 मीटर हिस्सा धंसकर जलकुर नदी में समा गया है. अब प्रतापनगर क्षेत्र के
लोगों को उत्तरकाशी जाने के लिए अब 35 किमी का अतिरिक्त दूरी
तय करनी पड़ रही है . लंबगांव, चमियाला से उत्तरकाशी जाने
वाले वाहनों का आवागमन अब स्यालगी-भरपूर, बिजपुर-पनियाला
मोटर मार्ग से हो रहा है. भले ही कागज पर खींचे जा रहे विकास के नक़्शे इन तबाहियों
से बेखबर हों लेकिन जलवायु परिवर्तन का भविष्य में क्या असर सुरम्य पहाड़ों पर होगा
/ यह इसकी बानगी है .
चीन सीमा का करीब नीति घाटी में
नीती घाटी के जुग्जू गांव के लोग बीते दो सालों
से बेशुमार भूस्खलन से तंग हैं . यह
भोटिया जनजाति का गाँव है और यहाँ लोग पूरी बरसात गुफाओं में बिताते है क्योंकि
यहाँ बरसात के साथ पहाड़ धरकना हर दिन की घटना है . अभी 28 जुलाई को इसी इलाके में
सेना के ट्रकों के काफिले पर पहाड़ पलट गया था , वह तो सजगता के कारण बड़ी घटना नहीं
हुई .
उत्तराखंड के सबसे लोकप्रिय पर्यटन
स्थल नैनीताल का अस्तित्व ही भूस्खलन के
कारण खतरे में है. नैनीताल के अस्तित्व पर
संकट मंडराने लगा है. यहाँ बालियानाला, चाइनापीक,
मालरोड, कैलाखान, ठंडी
सड़क, टिफिनटॉप सात नंबर क्षेत्र में जबर्दस्त भूस्खलन है . याद करें सन 1880 में यहाँ भयानक पहाड़ क्षरण हुआ था , जिसमें
कोई ढेढ़ सौ लोग मारे गये थे, उन दिनों नैनीताल की आबादी बमुश्किल दस हज़ार थी, तब
की ब्रितानी हुकुमत ने पहाड़ गिरने से सजग हो कर नए निर्माण पर तो रोक लगाईं ही थी,
शेर का डांडा पहाड़ी पर तो घास काटने, चारागाह के रूप में उपयोग करने और बागवानी पर भी
प्रतिबंध लगा दी थी . खूब पेड़ लग्वाये गये थे .
कुमाऊं विवि के
भूवैज्ञानिक प्रो बीएस कोटलिया बताते हैं कि नैनीताल और नैनीझील के बीच से गुजरने
वाले फॉल्ट के एक्टिव होने से भूस्खलन और भूधंसाव की घटनाएं हो रही हैं. शहर में
लगातार बढ़ता भवनों का दबाव और भूगर्भीय हलचल इसका कारण हो सकते हैं. उन्होंने
चेताया है कि अभी भी समाज नहीं संभला तो
परिणाम भयावह हो सकते हैं.
उत्तराखंड
सरकार के आपदा प्रबंधन विभाग और विशव बैंक ने सन 2018 में एक अध्ययन करवाया था
जिसके अनुसार छोटे से उत्त्रनाचल में 6300
से अधिक स्थान भूस्खलन ज़ोन के रूप में
चिन्हित किये गये . रिपोर्ट कहती है कि
राज्य में चल रही हज़ारों करोड़ की विकास परियोजनाएं पहाड़ों को काट कर या जंगल उजाड़
कर ही बन रही हैं और इसी से भूस्खलन ज़ोन
की संख्या में इजाफा हो रहा है .आपातकालीन परिचालन केंद्र के
मुताबिक लोक निर्माण विभाग के तहत 71 और
पीएमजीएसवाई के तहत 86 मार्ग बंद हुए हैं. चंपावत में इस मानसून सीजन में भूस्खलन की वजह से राष्ट्रीय राजमार्ग 104 बार
बंद हुआ. टिहरी में अब तक भूस्खलन की 14 घटनाएं हो चुकी हैं.
जबकि पिछले साल अब तक केवल आठ भूस्खलन ही हुए थे.
बीते सात साल के आंकड़े बताते हैं राज्य में भूस्खलन की घटनाओं में 10
गुना से ज्यादा की बढौतरी हुई है. वैज्ञानिक
शोध कहते हैं
कि बढ़ते भूस्खलनों के लिए जलवायु परिवर्तन के कारण पर्वतीय क्षेत्रों में बदल रही बरसात की प्रकृति और कथित विकास या मानवीय गतिविधियों के चलते पर्वतों के आकार और
उनके ढलान में हो रहे परिवर्तन इसकी प्रमुख वजह है.
बॉक्स
राज्य सरकार का रिकार्ड कहता है
कि वर्ष 2015 में महज 33 घटनाएं भूस्खलन
के हुई थीं ,जबकि वर्ष 2018 में यह संख्या 496, और वर्ष 2020 तक इन घटनाओं की संख्या 972 तक पहुंच गई थी.
वर्ष
घटनाएं मौत
2015 33 12
2016 18 24
2017 19 16
2018 496 47
2019 291 25
2020 972 25
प्रकृति में जिस पहाड़ के निर्माण में हजारों-हजार साल लगते हैं, हमारा समाज उसे उन निर्माणों की सामग्री जुटाने के नाम पर तोड़ देता है जो कि बमुश्किल सौ साल चलते हैं. पहाड़ केवल पत्थर के ढेर नहीं होते, वे इलाके के जंगल, जल और वायु की दशा और दिशा तय करने के साध्य होते हैं. जहां सरकार पहाड़ के प्रति बेपरवाह है तो पहाड़ की नाराजी भी समय-समय पर सामने आ रही है. यदि धरती पर जीवन के लिए वृक्ष अनिवार्य है तो वृक्ष के लिए पहाड़ का अस्तित्व बेहद जरूरी है. वृक्ष से पानी, पानी से अन्न तथा अन्न से जीवन मिलता है. ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या का जन्म भी जंगल उजाड़ दिए गए पहाड़ों से ही हुआ है. यह विडंबना है कि आम भारतीय के लिए ‘‘पहाड़’’ पर्यटन स्थल है या फिर उसके कस्बे का पहाड़ एक डरावनी सी उपेक्षित संरचना. विकास के नाम पर पर्वतीय राज्यों में बेहिसाब पर्यटन ने प्रकृति का हिसाब गड़बड़ाया तो गांव-कस्बों में विकास के नाम पर आए वाहनों, के लिए चौड़ी सड़कों के निर्माण के लिए जमीन जुटाने या कंक्रीट उगाहने के लिए पहाड़ को ही निशाना बनाया गया.
हिमालय
भारतीय उपमहाद्धीप के जल का मुख्य आधार है और यदि नीति आयोग के विज्ञान व
प्रोद्योगिकी विभाग द्वारा तीन साल पहले तैयार जल संरक्षण पर रिपोर्ट पर भरोसा
करें तो हिमालय से निकलने वाली 60 फीसदी जल धाराओं में दिनों-दिन पानी की मात्रा कम
हो रही है. ग्लोबल वार्मिंग या धरती का गरम होना, कार्बन उत्सर्जन, जलवायु परिवर्तन और इसके दुश्परिणामस्वरूप धरती के
षीतलीकरण का काम कर रहे ग्लेषियरों पर आ रहे भयंकर संकट व उसके कारण समूची धरती के
अस्तित्व के खतरे की बातें अब महज कुछ पर्यावरण-विषेशज्ञों तक सीमित नहीं रह गई
हैं. धीरे से कुछ ऐसे दावों के दूसरे पहलु
भी सामने आने लगे कि जल्द ही हिमालय के ग्लेशियर पिघल जाएंगे, जिसके चलते नदियों में पानी बढ़ेगा और उसके
परिणामस्वरूप जहां एक तरफ कई नगर-गांव जल मग्न हो जाएंगे, वहीं धरती
के बढ़ते तापमान को थामने वाली छतरी के नश्ट होने से भयानक सूखा, बाढ़ व
गरमी पड़ेगी और जाहिर है कि ऐसे हालात में मानव-जीवन पर भी संकट होगा.
दुनिया के
सबसे युवा और जिंदा पहाड़ कहलाने वाले हिमालय
के पर्यावरणीय छेड़छाड़ से उपजी सन 2013 की केदारनाथ त्रासदी को भुला कर उसकी हरियाली
उजाड़ने की कई परियोजनाएं उत्तराखंड राज्य के भविश्य के लिए खतरा बनी हुई हैं. गत नवंबर -2019 में
राज्य की कैबिनेट से स्वीकृत नियमों के मुताबिक कम से कम दस हेक्टेयर में फैली
हरियाली को ही जंगल कहा जाएगा. यही नहीं
वहां न्यूनतम पेड़ों की सघनता घनत्व 60 प्रतिशत से कम ना हो और जिसमें 75 प्रतिशत
स्थानीय वृक्ष प्रजातियां उगी हों. जाहिर है कि जंगल की परिभाषा में बदलाव का असल उद्देश्य ऐसे कई इलाकां को जंगल की श्रेणी से हटाना है जो
कि कथित विकास के राह में रोड़े बने हुए हैं. उत्तराखंड में बन रही पक्की सड़कों के
लिए 356 किलोमीटर के वन क्षेत्र में कथित रूप से 25 हजार पेड़ काट डाले गए. मामला एनजीटी में भी गया
लेकिन तब तक पेड़ काटे जा चुके थे. यही नहीं सड़कों का संजाल पर्यावरणीय लिहाज से
संवेदनशील उत्तरकाशी की भागीरथी घाटी के से भी गुजर रहा है ..उत्तराखंड के चार
प्रमुख धामों को जोड़ने वाली सड़क परियोजना में 15 बड़े पुल, 101 छोटे पुल, 3596 पुलिया, 12 बाइपास सड़कें बनाने का प्रावधान है. कोई 12 हजार
करोड़ रुपए के अलावा ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक रेलमार्ग परियोजना भी स्वीकृति हो
चुकी है, जिसमें ना सिर्फ बड़े पैमाने पर जंगल कटेंगे, वन्य जीवन प्रभावित होगा और पहाड़ों को काटकर सुरंगे
और पुल निकाले जाएंगें.
यह बात
स्वीकार करना होगा कि ग्लेशियर के करीब बन
रही जल विद्युत परियोजना के लिए हो रहे धमाकों व तोड़ फोड़ से शांत - धीर गंभीर रहने
वाले जीवित हिम- पर्वत नाखुश हैं. हिमालय
भू विज्ञान संस्थान का एक अध्ययन बताता है कि गंगा नदी का मुख्य स्त्रोत गंगोत्री
हिंम खंड भी औसतन 10 मीटर के बनिस्पत 22 मीटर सालाना की गति से पीछे खिसका हैं. सूखती जल
धाराओं के मूल में ग्लेषियर क्षेत्र के नैसर्गिक स्वरूप में हो रही तोड़फोड है.
सनद रहे
हिमालय पहाड़ ना केवल हर साल बढ़ रहा है, बल्कि इसमें भूगर्भीय उठापटक चलती रहती हैं. यहां
पेड़ भूमि को बांध कर रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं जो कि कटाव व पहाड़ ढहने से
रोकने का एकमात्र उपाय है. जानना जरूरी है कि हिमालयी भूकंपीय क्षेत्र में भारतीय
प्लेट का यूरेशियन प्लेट के साथ टकराव होता है और इसी से प्लेट बाउंड्री पर तनाव
ऊर्जा संग्रहित हो जाती है जिससे क्रिस्टल छोटा हो जाता है और चट्टानों का विरुपण
होता है. ये ऊर्जा भूकंपों के रूप में कमजोर जोनों एवं फाल्टों के जरिए सामने आती
है. जब पहाड़ पर तोड़फोड़ या धमाके होते हैं, जब उसके
प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड होती है तो दिल्ली तक भूकंप के खतरे तो बढ़ते ही हैं यमुना में कम
पानी का संकट भी खड़ा होता है. अधिक सुरंग
या अविरल धारा को रोकने से पहाड़ अपने
नैसर्गिक स्वरूप में रह नहीं पाता और उसके दूरगामी परिणाम विभिन्न प्राकृतिक आपदा
के रूप में सामने आ रहे हैं.
उत्तराखंड
में भूस्खलन की तीन चौथाई घटनाएँ बरसात के कारण हो रही हैं , इससे स्पष्ट है कि
अनियमित और अचानक तेज बारिश आने वाले दिनों में पहाड़ के लिए अस्तित्व का संकट
बनेगी . देवभूमि, विकास में पर्यावरण संरक्षण, नैसर्गिक विकास और आस्था में सुख को
त्याज्य करने की भावना विकसित करने के लिए आमंत्रित भी कर रही है और चेता भी रही
हैं .
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