पद यात्रा अर्थात धरती पर रह कर जनता से संवाद
पंकज
चतुर्वेदी
इंदिरा गांधी के तानाशाही के खिलाफ बनी जनता
पार्टी अपने इरादों से भटक चुकी थी –
सत्ता में बैठे लोग महंगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दों से बेखबर राजनितिक
विद्वेष में लीन थे और आज़ादी के बाद की दूसरी लड़ी कहलाने वाली
जनक्रांति और जयप्रकाश नारायण के सपने
ध्वस्त हो चुके थे . इंदिरा गांधी पूरी ताकत से खड़ी हो रही थी . विपक्षी
एकता दोहरी सदस्यता को ले कर बिखर रही थी और
संघ परिवार नए झंडे-डंडे और इरादों से नई शक्ति का ताना बाना बुनू चुका था-
आम लोगों के मुद्दे गौण थे और सारी सियासत इंदिरा गांधी के विरोध और समर्थन
में केन्द्रित हो गई थी – आखिर जनसरोकार,
राजनीती में समाजवाद का सपना और
रोजी-रोटी के सवाल क्या बेमानी थे
?
तभी अध्यक्ष
जी यानी चंद्रशेखर ने भारत को पैरों से नापने, आम लोगो की दिक्कतों को भांपने और
उसके आधार पर देश के भविष्य का नक्शा तैयार करने की ठानी – उस समय लोहिया-नरेंद्र देब का समाजवाद ज़िंदा था और
हजारों सोशलिस्ट इसकी तैयारी में जुट गए .
चंद्रशेखर अपनी किताब “रहबरी के
सवाल” में लिखते हैं -:
साल 1980 में जनता पार्टी की हार के बाद मैंने प्रतिपक्षी एकता कायम करने की कोशिश
की. लेकिन, अधिकतर नेताओं की दिलचस्पी जोड़-तोड़ की राजनीति
में थी. ऐसे में एकता असंभव हो गई. एक मसले का समाधान हो, तब
तक दूसरा सामने आ जाता था. पार्टी की अध्यक्षता का बीड़ा तीखा अनुभव था. समस्याएं
जनता के सवाल को लेकर नहीं, नेताओं के आपसी विवाद को लेकर
थीं. पार्टी टूटने के कागार पर थी. इस बीच कर्नाटक में पार्टी की सरकार बन गई.
पार्टी के कार्यकर्तओं में आशा का नया संचार हुआ था. इस बीच कुछ नया करने का विचार
मन में उठा और मैंने नेताओं के पास पहुंचने के बजाय आम आदमी के पास जाने का फैसला
किया.
फिर छः जून1983 को इसी भारत के सुदूर दक्षिण छोर
कन्याकुमारी से चंद्रशेखर ने पदयात्रा शुरू की जो 25 जून 84 को दिल्ली के राजघाट पर समाप्त
हुई. कोई 3700 किमी की यात्रा में कई सवाल उनके सामने आये और उन्हें जिस दिक्कत ने
सबसे ज्यादा झकझोरा, वह थी पानी की दिक्कत और तभी चंद्रशेखर के हाथ जब ताकत आई तो
उन्होंने पानी को हर इन्सान तक पहुंचाने
पर गंभीरता से काम भी किया . वह मसला अलग है की अध्यक्ष जी की इस कड़ी मेहनत का
सारा लाभा संघ परिवार कैसे उठा गया और वह यात्रा भी समाज्बदी परिवार को न एक कर पाया और न ही सत्ता
के लिए सिद्धनों से समझोते पर रोक लगा पाया .
वह पुरानी याद इस लिए कि हम जैस सैंकड़ों लोग उस
यात्रा में भले ही दो कदम चले हों केवल इस लिए साथ थे कि चलो कोई नेता सफ़ेद
एम्बेसेडर से उतर कर जनता के बीच जा तो रहा है , वह नेता जो कभी इंदिरा जी का सबसे
प्रिय था लेकिन नीति सिद्धांत को ले कर लड़
गया था .
यह कडवा सच है कि आज की सियासत में जन सरोकार शून्य है, नशेडी- गंजेड़ी – विवाहेत्तर सम्बन्ध
और अन्य कुकर्मों मने मारे गए लोगों के
लिए मिडिया में घंटों चर्चा है लेकिन दिल्ली में हर दिन होने वाले जाम , एक तिहाई
आबादी के झुग्गी में रहने जैसे मूल भूत
सवाल गायब हैं – इंदिरा गांधी की ह्त्या ने
नेताओं में पहले भयवश सुरक्षा रखने और फिर
रसूख के दिखावे के लिए हथियारधारियों की जो फौज रखने का चलना शुरू किया, उससे आम नेता के जनता से
सम्पर्क रह नहीं गया – आज भी जाति बिरादरी की गणित, कुछ मुफ्त का लालच और वोट
गिरने एक एक रात पहले पौआ –साडी बाँट कर चुनाव जितने वाला नेता उस 16 लेन के सडक
को विकास बताता है जहां आम आदमी साइकिल ले कर या अब तो स्कूटर ले कर भी जा नहीं
सकता- जाएगा तो अपनी एंटी से पैसा लगाएगा टोल ले नाम पर – नेता निर्लज्जता से
अस्सी अक्रोड को मुफ्त एना देने की बात कर शर्म नहीं करते कि इतना बड़ा मानव श्रम
बेकार है और यदि ऐसा ही चला तो देश निकम्मों की जमात बनेगा , नदी में जल की जगह
रेत लेने की चाह , पेड़ से फल लेने की जगह
लकड़ी काटने की लिप्सा , पहाड़ से आसरा लेने की जगह पत्थर निकालने की
निर्ममता --- कतिपय उत्सव, छद्म ख़ुशी और बिम्बों में घिरा समाज अपने हे देश को समझ नहीं पा रहा .
साम्प्रदायिकता अब किसी को शर्म पैदा नहीं
करती . हिजाब, झटके का मात और अब इन दिनों मदरसे – एक श्रंखला है जो मानवता के
बनिस्पत साम्ताप्रदायिकता को स्थापित कर रही हैं . कारण – हमारा नेता जमीन पर है ही
नहीं- टीवी पर दिखता है, सोशल मिडिया पर उसके किराए के आदमी होते हैं और प्रिंट
में प्रेसनोट से कागज रंग दिए जा रहे हैं . आत्म मुग्ध समाज , देश से बेखबर –
ऐसे में एक नेता और उसके साथ सौ लोगों का पूरे
डेढ़ सौ दिन सडक पर रहना , पैदल चलना – एक विलक्षण घटना है और मेरा मानना है कि हर
बड़े नेता को ऐसी यात्रा करना ही चाहिए – थोडा सुरक्षा और चापलूसों का घेरा ढीला
रहे तो ही इसके सही परिणाम आ सकते हैं . लोग तो इतने दिनों में सतात जितने की बड़ी
योजनायें बनाते हैं लेकिन यह यात्रा तपस्या है जिसमें केवल पैदल चलना है कोई 3500 किलोमीटर – औसतन हर दिन 23 किलोमीटर – रात वही कंटेनर में – एक तो इतनी लाबी
यात्रा में हर जगह कार्यकर्ताओं या आम लोगों से मिलना , बात करना या भाषण देना –
फिर चलना एक जीवत वाला कार्य है और इसमें
अपनी उर्जा सहेज कर सलीके से खर्च करने का गुर यदि नहीं आता है तो यात्रा अपने उद्देश्य से दूर ही रहेगी .
हर जगह स्थानीय समस्याओं को समझना और उसका लेखा
जोखा रखना , फिर उसे सिलसिलेवार दस्तावेज का रूप देना और उसके आधार पर जनता के लिए
घोषणा पत्र तैयार करना – साथ ही समस्या के निराकरण का विकल्प देना – यदि इसकी
कवायद और जानकार और संवेदनशील लोग साथ नहीं हैं तो
यात्रा को “आन्दोलन जीवी “ लोगन का अखाड़ा कहने वाले सही साबित होंगे –
नागरिकी समाज के नाम पर इसमें कई ऐसे चिचड़
चिपके दिख रहे हैं जो सत्ता बदलाव के हर मौके पर अपना झंडा- डंडा बदल कर टीवी पर चेहरा
चमकाते हैं – अन्ना आन्दोलन सभी को जानकारी थी कि संघ का खेल है फिर भी वहा कौन
लोग थे जो यूपी -२ की बदनामी के सूत्रधार बने और अब यहाँ चिपक गए हैं ? क्या पता
कि ये अभी भी दीमक बन कर भीतर से खाएं –
एक बात और यदि कोई इस यात्रा के सीधे राजनितिक
लाभ गिनेगा तो नील बटे सन्नाटा रहेगा – इसके परिणाम तब ही निकलेंगे जब यात्री यात्रा समाप्त कर इससे
हासिल अनुभव पर आधारित दस्तावेज या विमर्श
का आगाज़ा कर पायें . दिग्गी राजा की नर्मदा यात्रा के परिणाम हमारे सामने हैं – नेता जीते लेकिन
बाद में रंग बदल गए- यदि यात्रा से देश-संविधान के प्रति समर्पित लोगों की टीम नहीं कड़ी हो पाई तो यह महज एक मिडिया-सुर्खी ही रहेगा .
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