क्यों जरुरी है कविता ?
आज नफरत , विद्वेष और अविश्वास के माहौल में कविता बहुत जरुरी है, तुकांत या अतुकान, छंद वाली या दोहे वाली , किसी भी भाषा में - बस वह कविता जो एक आम आदमी का स्वर हो, उसके लिए हो और उसकी समझ में हों, -- सियासत में भी कविता इसी लिए जरुरी है . सीपीआई (एमएल) लिबरेशन पार्टी के सबसे प्रमुख चेहरों में से एक, कविता कृष्णन ने पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया। पार्टी के शीर्ष निकाय यानी पोलित ब्यूरो की सदस्य कविता कृष्णन दो दशक से अधिक समय तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन की केंद्रीय समिति की सदस्य भी थीं।
आखिर कविता कृष्णन के ऐसे कौन से सवाल थे जिनके कारण उन्हें पार्टी को छोड़ना पड़ा , यदि वह सवाल बंच लिए जाएँ तो समझ आ जायेगा कि भारत में साम्यवाद की अधोगति क्यों हैं .
गौरतलब है कि उन्होंने हाल ही में यूक्रेन-रूस संघर्ष पर ट्वीट किया था। इसमें उन्होंने कहा था कि समाजवादी शासन संसदीय लोकतंत्रों से कहीं अधिक निरंकुश शासन थे। कविता कृष्णन के ये सवाल जाहिर तौर पर कम्युनिस्ट पार्टी को रास नहीं आए। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि सीपीआई (एमएल) लिबरेशन यकीनन दुनिया में समाजवादी शासन चाहती है। कम्युनिस्ट पार्टी कथित तौर पर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) जैसी कम्युनिस्ट पार्टियों से प्रेरणा लेती है। इसलिए कविता कृष्णन का कम्युनिस्ट सरकारों से सवाल पूछना उनकी पार्टी को पसंद नहीं आया।
उन्होंने फेसबुक पर लिखा, "यह पहचानने की जरूरत है कि सोवियत संघ के दौरान स्टालिन के शासन की या फिर विफल चीनी समाजवाद की चर्चा करना अब पर्याप्त नहीं है, बल्कि वे दुनिया के कुछ सबसे खराब सत्तावादी थे जो हर जगह सत्तावादी शासन के लिए एक मॉडल के रूप में काम कर रहे हैं।" वह अपने हालिया सोशल मीडिया पोस्ट के जरिए भी इन सवालों को उठाती रही हैं जिनके बारे में उन्होंने अपने फेसबुक पर लिखा है। जुलाई में, उन्होंने कहा था कि स्टालिन के तहत सोवियत संघ (यूएसएसआर) का औद्योगीकरण "यूक्रेन के किसानों को हिंसक रूप से गुलाम बनाकर" किया गया था। यह समझना होगा कि कम्युनिस्ट दल और कम्युनिस्ट विचारधारा कोई बाईबिल नहीं हैं जो हर देश में एक सी हो -- भारत में साम्य्बाद की परिभाषा अलग है , पच्चीस साल बंगाल और त्रिपुरा में शासन करने वाले कम्युनिस्ट दुर्गा पूजा पर बड़े बड़े पंडाल बनवाते उर वहां परिक्रमा करते रहे - यही नहीं बंगाल के कम्युनिस्ट और केरल के लाल झंडे की राजनितिक नीतियों में भी फर्क रहा - यह स्वाभाविक है और आम लोगों तक विचार को ले जाने के लिए जरुरी भी . हालाँकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन का बंगाल या केरल में जनाधार इतना नहीं है लेकिन दिल्ली और जनाधिकार के मामले में केवल कविता के कारण पार्टी चर्चा में रही .
भिलाई के सेक्टर-10 के स्कूल से 1990 में हायर सेकंडरी पास करने के बाद उन्होंने आगे की पढ़ाई जेएनयू,नई दिल्ली से की। विदित हो कविता के पिता स्व. एएस. कृष्णन भिलाई स्टील प्लांट की ब्लूमिंग एंड बिलेट मिल में डीजीएम थे। वहीं मां प्रो. लक्ष्मी कृष्णन अंग्रेजी की प्राध्यापक व संगीत की जानकार . जे एन यु में वे वामपंथी आंदोलन से जुड़ गई।
सन 2013 में अमेरिकी पत्रिका फॉरेन पॉलिसी ने ग्लोबल थिंकर के तौर पर जारी सूची में कविता को 77 वें स्थान पर रखा था । इसमें रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन, फेसबुक के मार्क जकरबर्ग, जैसे नाम थे .इनमें कविता कृष्णन का नाम लैंगिक हिंसा के खिलाफ मुखर विरोध की वजह से शामिल किया गया.
पार्टी से त्यागपत्र में उन्होंने लिखा, "न केवल भारत में बल्कि दुनिया भर में सत्तावादी और बहुसंख्यक लोकलुभावनवाद के बढ़ते रूपों के खिलाफ उदार लोकतंत्रों को उनकी सभी खामियों के साथ बचाव के महत्व को पहचानने की आवश्यकता है।" उन्होंने कहा कि भारत में फासीवाद और बढ़ते अधिनायकवाद के खिलाफ लोकतंत्र के लिए हमारी लड़ाई सुसंगत होने इसके लिए हमें अतीत और वर्तमान के समाजवादी अधिनायकवादी शासन के विषयों सहित दुनिया भर के सभी लोगों के लिए समान लोकतांत्रिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता के अधिकार को स्वीकार करना चाहिए।
‘अगर हमें ऐसे भारत के लिए संघर्ष करना है तो क्या हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि चीन के लोग भी ऐसा चीन चाहते होंगे? यह कि उइगुर और तिब्बती चाहते हैं कि उनकी स्वतंत्रता के हनन से जुड़ी सच्चाई हम स्वीकारें? क्या उनके उत्पीड़न और पीड़ा को स्वीकारने के लिए हमें पूर्व रूसी और सोवियत उपनिवेशों के लोगों का आभारी नहीं होना चाहिए?’ दीपंकर बाबु या प्रभात जी को सोचना होगा कि भारत में माओ और लेनिन के विचार के साथ पार्टी चलाने का अर्थ यह नहीं कि हम चीन और रूस द्वारा व्यापक जनाधिकारो के कुचलने पर महज लाल झंडा देखा कर मौन रहे , भारत में वाम दलों की संस्कृतिक ईकाई , छात्र शाखा सिकुड़ रही है , वाम के गढ़ जे एन यु से निकलने वाले मोहत पांडे हों या शकील अहमद या कन्हैया कुमार वे व्यापक राजनितिक मैदान के लिए पार्टी से विमुख हो रहे हैं -- बस यही सुखद है कि इन सभी ने कांग्रेसियों की तरह कभी दल से निकल कर अपने दल के निशान या नेतृत्व पर गाली नहीं उछालीं - यही वामपंथी चरित्र भी है . बंगाल में किस तरह वामपंथियों ने ममता के खिलाफ बीजेपी को मजबूत किया , केरल में क्यों सांस्कृतिक मूल्यों में वामपंथी चीन- रूस की तरफ देखते हैं ? ये ज्वलंत सवाल हैं जो कविता कृष्णन के इस्तीफे से उठे हैं . यह तय है कि पार्टी छोड़ने के बाद कविता जैसे कुछ बेड़ियों से मुक्त हुई हैं और अब वे खुल कर जनाधिकार, समानता, लोकतंत्र के मूल्यों पर काम आकर सकेंगी . कविता जैसे लोग देश की जरूरत हैं वे किसी भी परचम के साथ हों
CP
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