केवल लॉकडाउन से ही सुधरेगी दिल्ली की हवा
पंकज
चतुर्वेदी
आदंन विहार :
दिल्ली का सबसे दूषित इलाकों में से एक। यदा-कदा यहां एक टैंकर घूमता है जो
फव्वारे जैसा पानी छिड़कता है। बीस करोड़ में लगे स्मॉग टॉवर का खूब हल्ला हुआ लेकिन
आज वह बंद है। कनाट प्लेस में भी ऐसा टावर लगाया गया था लेकिन उससे कितना लाभ हुआ, उसका कोई पुख्ता आंकड़ा है नहीं। यह प्रदूशण से जूझने की
हमारी नीति का विद्रूप चैहरा है कि जब
जरूरत प्रदूषण को कम करने के कड़े उपाय की
है तब बढ़े प्रदूषण को कम करने के लिए मशीनों का सहारा लिया जा रहा है।
वायु प्रदूषणसे जूझने को महज दिखावा करना या आधे-अधूरे प्रयास कितने खतरनाक हो सकते हैं इसकी
बानगी है हाल ही में शिकागो विश्वविद्यालय के एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट की वह रिपोर्ट जिसमें कहा गया है कि भारत की एक
चौथाई आबादी प्रदूषण का दुनिया का सर्वाधिक खराब स्तर झेल रही है।
रिपोर्ट कहती
है कि यदि हवा को शुद्ध करने के सार्थक
प्रयास नहीं हुए तो दिल्ली वालों की उम्र ं 9.7 साल तक कम हो जाएगी। वहीं उत्तर प्रदेश में खराब प्रदूषण
से 9.5 वर्ष आयु कम ,बिहार में 8.8 साल आयु कम हो सकती है तो हरियाणा और झारखंड में लोगों की आयु पर क्रमशः 8.4 साल और 7.3 साल तक असर पड़ सकता है।रिपोर्ट के
अनुसार प्रदूषण का यही स्तर बरकरार रहा तो आंध्र प्रदेश में 3.3 साल, असम में 3.8 साल,
चंडीगढ़ में 5.4 साल, छत्तीसगढ़
में 5.4 साल, झारखंड में 7.3 साल, गुजरात में 4.4 साल,
मध्य प्रदेश में 5.92 साल, मेघालय में 3.65 साल,त्रिपुरा
में 4.17 साल और पश्चिम बंगाल में 6.73
साल उम्र कम हो सकती है। इसांन की उम्र कम
होना, उसका स्वास्थ्य ठीक ना होना और इलाज पर व्यय होना सीधे-सीधे देश की विकास-गति और अर्थ व्यवस्था के लिए व्यवधान है।
अकेले भारत
ही नहीं सारी दुनिया ने कोविड के दौरान पूर्ण तालाबंदी के दौरान जान लिया कि हवा
को शुद्ध करना है तो उत्सर्जन के स्त्रोत-स्तर पर ही नियंत्रण करना होगा। आनंद
विहार का परिवेष बानगी है कि यदि घर की बाल्टी बह रही हो तो नल बंद करने की जगह पोंछां लगाया जाए। यह भी
याद रखना होगा कि चीन का सबसे ऊंचा स्मॉग टावर हो या लंदन की नाईट्रोजन सोखने वाली
मीनार , एक ही साल में पता चल गया कि
ये प्रयोग इतने सफल नहीं है जितना इनका हल्ला होता है। सन 2020 में एमडीपीआई के
लिए किए गए एक शोध ‘ केन वी वैक्युम अवर एयर पोलुशन प्राबलम यूजिंग स्माग टावर’’
में सरथ गुट्टीकुंडा और पूजा जवाहर ने गणित, रसायन और भौतिकी
के सिद्धांतों के माध्यम से अलग-अलग बताया है कि चूंकि वायुं प्रदूशण की ना ते केई
सीमा होती है और ना ही दिषा, सो दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (गाजियांबाद, नेएडा, ग्रेटर नोएडा, फरीदाबाद,
गुरूग्राम और रोहतक) के सात हजार वर्ग किलोमीटीर इलाके में कुछ
स्मॉग टावर बेअसर ही रहेंगे।
राजधानी
दिल्ली में सर्दी के आगमन को एक सुकून वाले मौसम के रूप में नहीं, बल्कि बीमारी की ऋतु के रूप
में याद किया जाता है। ऐसा नहीं कि दिल्ली व उसक आसपास के शहरों की आवोहवा सारे
साल बहुत षुद्ध रहती है , बस इस मौसम में नमी और भारी कण मिल
कर स्मॉग के रूपमें सूरज के सामने खड़े है। तो सबको दिखने लगता है। यह बात सही है कि इस साल जाते मानसून ने दिल्ली
पर फुहार बरसाई नहीं, यह भी बात सही है कि हवा की गति षून्य होने से बदलते मौसम में दूषितकण वायुमंडल के निचले हिस्से में ही रह जाते है। व जानलेवा बनते हैं। लेकिन यह भी
स्वीकारना होगा कि बीते कई सालों से अक्तूबर शुरू होते ही दिल्ली महानगर व उसके
करीबी इलाकों में जब स्मॉग लोगों की जिंदगी के लिए चुनौती बन जाता है तब उस पर
चर्चा, रोक के उपाय व सियासत होती है। हर बार कुछ नए प्रयोग
होते हैं, हर साल ऊंची अदालतें चेतावनी देती हैं डांटती हैं ,
राजनीतिक दल एक दूसरे पर आरोप लगाते हैं और तब तक ठंड रूखसत हो जाती है। कोविड़ की त्रासदी के पूर्ण ताला-बंदी के दिन
याद करें, किस तरह प्रकृति अपने नैसर्गिक रूप में लौट आई थी,
हवा भी स्वच्छ थी और नदियों मे
जल की कल-कल मधुर थी। बारिकी से देखें तो इस काल ने इंसान को बता दिया कि
अत्यधिक तकनीक, मशीन के प्रयोग, प्राकृतिक
संसाधनों के दोहन से जो पर्यावरणीय संकट खड़ होता है उसका निदान कोई अनय तकनीकी या
मशीन नहीं बल्कि खुद प्रकृति ही है। इस साल तो चिकित्सा तंत्र चेतावनी दे चुका है
कि दिसंबर तक हर दिन वातावरण जहरीला होता जाएगा, यदि बहुत ही
जरूरी हो तो ही घर से निकलें।
इस साल भी
दिल्ली की हवा में सांस लेने का मतलब है कि अपने फेंफडों में जहर भरना, खासकर कोरोना का संकट जब अभी
भी बरकरार है, ऐसे हालात सामुदायिक-संक्रमण विस्तार को बुलावा
दे सकते हैं। जैसे कि हर बार वायु को शुद्ध
करने के नाम पर कोई तमाशा होता है
-लाल बत्ती पर गाड़ी बंद करना । ऐसा नहीं
कि यह अच्छी आदत नहीं है लेकिन क्या सुरसामुख की तरह आम लोगों के स्वास्थ्य को लील
रहे वायु प्रदुषण से जूझने में परिणामदायी
है भी कि नहीं ? बीते सालों में वाहनों के सम-विषम के कोई दूरगामी, स्थाई या आशानुरूप
परिणाम आए नहीं ठीक इसी तरह दिल्ली में
जाम के असली कारणों पर गौर किए बगैर इस
तरह के पश्चिमिदेशों की नकल वाले प्रयोग महज कागजी खानापूर्ति ही हैं।
कोई चार साल
पहले राश्ट्रीय हरित प्राधिकरण यानि एनजीटी ने दिल्ली सरकार को आदेश दिया था कि राजधानी की सड़कों पर जाम ना लगे, यह बात सुनिश्चित की जाए।
एनजीटी के तत्कालीन अध्यक्ष स्वतंत्र कुमार की पीठ ने दिल्ली यातायात पुलिस को कहा
है कि यातायात धीमा होने या फिर लाल बत्ती पर अटकने से हर रोज तीन लाख लीटर ईंधन
जाया होता है, जिससे दिल्ली की हवा दूषित हो रही है।
दिल्ली की
रिंग रोड़ पर भीकाजीकामा प्लेस से मेडिकल और उससे आगे साउथ एक्स तक सुबह सात बजे से
ही जाम लगने लगता है। यहां वाहनों की गति औसतन पांच से आठ किलोमीटर रहती है। कहने
को यहां पूरे में फ्लाई ओवर हैं, कोई लाल बत्ती नहीं हैं लेकिन जाम हर दिन बढ़ता रहता है। सनद रहे यहीं पर
एम्स, सफदरजंग अस्पताल और ट्रॉमा सेंटर जैसे तीन ऐसे बड़े
अस्पताल हैं जहां हर दिन हजारों लोग इलाज को आते हैं और उनमें से कई एक के शरीर पर
अब एंटीबायोटिक्स ने असर करना बंद कर दिया है, कारण है कि इस
पूरे परिवेष में वाहनों के धुएं ने सांस लेने लायक साफ हवा का कतरा भी नहीं छोड़ा
है। जाम का असल कारण है -संकरा मोड़, वहां से तीन रास्ते
निकला और सफदरजंग के सामने बस स्टैंड पर मनमाने तरीके से बसें और तिपहिया लगे
होना। राजधानी की अधिकांश सार्वजनिक परिवहन बसें अपने निर्धारित स्टाप पर खड़ी होती ही नहीं हैं। सवारी बस स्टाप से कम
से कम पांच मीटर आगे सड़क पर होती हैं व बसें उससे भी आगे। जाहिर है कि हर बस स्टाप
के करीब सड़कों का अधिकांश हिस्स बसों की धींगा-मुष्ती में घिरा होता है व उससे सड़क
पर अन्य वाहन ठिठके हुए जहरीला धुआं छोड़ते हैं।
दिल्ली में
ऐसे ही लगभग 300 स्थान
हैं जहां जाम एक स्थाई समस्या है। जान कर आश्चर्य होगा कि इनमें से कई स्थान वे
मेट्रो स्टेशन है। जिन्हें जाम खतम करने के लिए बनाया गया था। मेट्रो स्टेषन यानी
बैटरी व साईकिल रिक्षा, आटो के बेतरतीब पार्किंग , गलत दिशा में चालन, ओवर लोडिंग और साथ में अपने लोगों को लेने व छोड़ने वालों का आधी सड़क पर
कब्जा। दिल्ली में जितने फ्लाई ओवर या
अंडर पास बनते हैं, मेट्रो का जितना विस्तार होता है,
जाम का झाम उतना ही बढ़ता जाता है।
यह बेहद
गंभीर चेतावनी है कि आने वाले दषक में दुनिया में वायु प्रदूषण के शिकार सबसे
ज्यादा लोग दिल्ली में होंगे । एक अंतरराष्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि
अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल
करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के
मुंह में जाएंगे। सनद रहे कि आंकड़ोंं के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में
हर घंटे एक मौत होती है।
जब दिल्ली की
हवा ज्यादा जहरीली होती है तो एहतिहात के तौर पर वाहनों का सम-विशम लागू कर सरकार
जताने लगती है कि वह बहुत कुछ कर रही है। याद दिलाना चाहेंगे कि पिछले साल एम्स के
निदेशक डा. रणदीप गुलेरिया ने कह दिया था दूषित हवा से सेहत पर पड़ रहे कुप्रभाव का
सम विषम स्थायी समाधान नहीं है। क्योंकि ये उपाय उस समय अपनाये जाते हैं जब हालात
पहले से ही आपात स्थिति में पहुंच गये हैं। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट भी कह चुकी है
कि जिन देशों में ऑड ईवन लागू है वहां पब्लिक ट्रांसपोर्ट काफ़ी मजबूत और फ्री है, लेकिन यहां नहीं है। सुप्रीम
कोर्ट ने कहा कि आपने ऑड ईवन के दौरान केवल कार को चुना गया जबकि दूसरे वाहन
ज्यादा प्रदूषण फैला रहे हैं।
एक साल पहले
सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड ने कोर्ट में कहा था कि हमारे अध्ययन के मुताबिक
ऑड ईवन से कोई ज्यादा फायदा नहीं हुआ। प्रदूषण सिर्फ 4 प्रतिषत कम हुआ है । चूंकि
दिल्ली में कार 3 फीसदी, ट्रक 8 फीसदी, दो पहिया 7 फीसदी और
तीन पहिया 4 फीसदी प्रदूषण फैलाते हैं और पाबंदी केवल कार पर
होती है।
यदि आनन-फानन
में लागू की गई संपूर्ण तालाबंदी से सीख ले कर व्यवस्थित रूप से साल के जटिल दिनों
में एक-एक सप्ताह की पूर्ण बंदी पर अमल हो तो प्रदूशण से जूझने की अरबों रूपए की
तकनीकी पर व्यय और बीमार लोगों के इलाज पर खर्च से बचा जा सकता है। हालांकि अभी
स्कूल-कालेज तो खुले नहीं हैं लेकिन यह अनुभवों से सीख चुके है। हैं कि बेहतर
तकनीकी व्यवस्था कर ली जाए तो कुछ दिनों के लिए शिक्षण संस्थान बंद कर घर से पढ़ाई
घाटे का सौदा नहीं है। लॉक डाउन ने हजारों कार्यालय को घर से दफ्तर के काम करने के
सलीके भी सिखा दिए हैं। कोरोना ने बता दिया कि हवा-पानी को शुद्ध करने के नाम पर
बेवजह व्यय मत करो, बस जब लगे कि प्रकृति इंसान के बोझ से हांफ रही है तो दो- एक हफ्ते का लॉक
डाउन कड़ाई से लागू कर दो , प्रकृति खिल्खिला देगी । इन दिनों
अपराध कम होते हैं, सडक दुर्घटना कम हो जाती हैं ,जहरीली हवा या दूषित खाना खाने से बीमार होने वालों की संख्या कम हो जाती
है।
राजधानी के
वायु प्रदुषण से जूझने के स्थाई कदम
1.यदि
दिल्ली की सांस थमने से बचाना है तो यहां ना केवल सड़कों पर वाहन कम करने होंगे,
इसे आसपास के कम से कम सौ किलोमीटर के सभी षहर कस्बों में भी वही
मानक लागू करने होंगे जो दिल्ली हर शहर लिए हों। अब करीबी षहरों की बात कौन करे जब
दिल्ली में ही जगह-जगह चल रही ग्रामीण सेवा के नाम पर ओवर लोडेड वाहन, मेट्रो स्टेशनों तक
लोगों को ढो ले जाने वाले दस-दस सवारी लादे तिपहिएं ,पुराने
स्कूटरों को जुगाड के जरिये रिक्शे के तौर
पर दौड़ाए जा रहे पूरी तरह गैरकानूनी वाहन हवा को जहरीला करने में बड़ी भूमिका निभा
रहे हैं। सनद रहे कि वाहन सीएनजी से चले या फिर डीजल या पेट्रोल से, यदि उसमें क्षमता से ज्यादा वजन होगा तो उससे निकलने वाला धुआं जानलेवा ही
होगा।
2. यदि
दिल्ली को एक अरबन स्लम बनने से बचाना है तो इसमें कथित लोकप्रिय फैसलों से बचना
होगा, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है यहां बढ़ रही आबादी को कम
करना। सनद रहे कि इतनी बड़ी आबादी के लिए चाहे मेट्रो चलाना हो या पानी की व्यवस्था
करना, हर काम में लग रही उर्जा का उत्पादन दिल्ली की हवा को विषैला बनाने की ओर एक कदम
होता है। यही नहीं आज भी दिल्ली में जितने विकास कार्यों कारण जाम , ध्ूल उड़ रही है वह यहां की सेहत ही खराब कर रही है, भले
ही इसे भविष्य के लिए कहा जा रहा हो।
3. हवा को
जहर बनाने वाले पैटकॉन पर रोक के लिए कोई ठोस कदम ना उठाना भी हालात को खराब कर
रहा है। पेट्रो पदार्थों को रिफायनरी में शोधित करते समय सबसे अंतिम उत्पाद होता
है - पैटकॉन। इसके दहन से कार्बन का सबसे ज्यादा उत्सर्जन होता है। इसके दाम
डीजल-पेट्रोल या पीएनजी से बहुत कम होने के चलते दिल्ली व करीबी इलाके के अधिकांश
बड़े कारखाने भट्टियों में इसे ही इस्तेमाल
करते हैं। अनुमान है कि जितना जहर लाखों वाहनों से हवा में मिलता है उससे दोगुना
पैटॅकान इस्तेमाल करने वाले कारखाने उगल देते हैं।
4.यदि
वास्तव में दिल्ली की हवा को साफ रखना है तो तो इसकी कार्य योजना का आधार
सार्वजनिक वाहन बढ़ाना या सड़क की चौडाई नहीं , बल्कि महानगर
की जनसंख्या कम करने के कड़े कदम होना चाहिए। दिल्ली में सरकारी स्तर के कई सौ ऐसे
आफिस है जिनका संसद या मंत्रालय के करीब होना कोई जरूरी नहीं। इन्हें एक साल के
भीतर दिल्ली से दूर ले जाने के कड़वे फैसले के लिए कोई भी तंत्र तैयार नहीं दिखता।
5. सरकारी
कार्यालयों के समय और बंद होने के दिन अलग-अलग किए जा सकते हैं। स्कूली बच्चों को
अपने घर के तीन किलोमीटर के दायरे में ही प्रवेश देने, एक ही
कालोनी में विद्यालय खुलने-बंद होने के समय अलग-अलग कर सड़क पर यातायात प्रबंधन
किया जा सकता है।
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