My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

बुधवार, 2 नवंबर 2022

Reducing population of tribes are alarming

  

कहां गुम हो रहे हैं आदिवासी

पंकज चतुर्वेदी



झारखंड राज्य की 70 फीसदी आबादी 33 आदिवासी समुदायों की है। हाल ही में एक चौंकाने वाला तथ्य सामने आया कि यहां 10 ऐसी जनजातियां है। जिनकी आबादी नहीं बढ़ रही है। ये आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक रूप से कमजोर तो हैं ही, इनकी आबादी मे लगातार गिरावट से इनके विलुप्त होने का खतरा भी है। ठीक ऐसा ही संकट बस्तर इलाके में भी देखा गया। जहां छत्तीसगढ़ राज्य की जनसंख्या दर में सालाना वृद्धि 4.32 प्रतिशत है वहीं बीजापुर जैसे जिले में आबादी की बढ़ौतरी का आंकड़ा 19.30 से घट कर 8.76 रह गया। ध्यान रहे देश भर की दो तिहाई आदिवासी जनजाति मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, गुजरात और राजस्थान में रहती है, और यहीं पर इनकी आबादी लगातार कम होने के आंकड़े हैं। हमें याद करना होगा कि अंडमान निकोबार और कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में बीते चार दशक में कई जनजातियां लुप्त हो गईं। एक जनजाति के साथ उसकी भाषा -बोली, मिथक, मान्यताएं, संस्कार, भोजन, आदिम ज्ञान सबकुछ लुप्त हो जाता है।


झारखंड में आदिम जनजातियों की संख्या कम होने के आंकडे बेहद चौंकाते हैं जोकि सन 2001 में तीन लाख 87 से हजार से सन 2011 में घट कर दो लाख 92 हजार रह गई। ये जनजातियां हैं - कंवर, बंजारा, बथुडी, बिझिया, कोल, गौरेत, कॉड, किसान, गोंड और कोरा। इसके अलावा माल्तो-पहाड़िया, बिरहोर, असुर, बैगा भी ऐसी जनजातियां हैं जिनकी आबादी लगातार सिकुड़ रही है। इन्हें राज्य सरकार ने पीवीजीटी श्रेणी में रखा है। एक बात आश्चर्यजनक है कि मुंडा, उरांव, संताल जैसे आदिवासी समुदाय जो कि सामाजिक, राजनीतिक , आर्थिक  और शैक्षणिक  स्तर पर आगे आ गए, जिनका अपना मध्य वर्ग उभर कर आया, उनकी जनगणना में आंकड़े देश के जनगणना विस्तार के अनुरूप ही हैं। बस्तर में गौंड , देरले, धुरबे आबादी के लिहाज से सबसे ज्यादा पिछड़ रहे हैं। कोरिया, सरगूजा, कांकेर जगदलपुर,नारायणपुर, दंतेवाड़ा, सभी जिलों में आदिवासी आबादी तेजी से घटी है। यह भी गौर करने वाली बात है कि नक्सलग्रस्त क्षेत्रों में पहले से ही कम संख्या  वाले आदिवासी समुदायों की संख्या और कम हुई है।


इसमें कोई शक नहीं कि आम आदिवासी शांतिप्रिय हैं। उनकी जितनी भी पुरानी कथाएं हैं उनमें उनके सुदूर क्षेत्रों से पलायन व एकांतवास का मूल कारण यही बताया जाता है कि वे किसी से युद्ध नहीं चाहते थे। नक्सलवादी हिंसा और प्रतिहिंसा से वे बहुत प्रभावित हुए और बड़ी संख्या में पलायन करते रहे। बस्तर के बासागुड़ को ही लें, एक शानदार बस्ती था, तीन हजार की आबादी वाला। इधर सलवा जुड़ुम ने जोर मारा और उधर नक्सलियों ने हिंसा की तो आधी से ज्यादा आबादी भाग कर  आंध््रा प्रदेश के चेरला के जंगलों में चली गई।  अकेले सुकमा जिले से पुराने हिंसा दौर में पलायन किए 15 हजार परिवारों में से आधे भी नहीं लौटे। एक और भयावह बात है कि परिवार कल्याण के आंकड़े पूरे करने के लिए  कई बार इन मजबूर, अज्ञानी लोगों को कुछ पैसे का लालच दे कर नसबंदी कर दी जाती है।


मध्य प्रदेश में 43 आदिवासी समूह हैं जिनकी आबादी डेढ करोड के आसपास हैं। यहां भी बड़े समूह तो प्रगति कर रहे हैं लेकिन कई आदिवासी समूह विलुप्त होने के कगार पर हैं।  इनमें भील-भिलाला आदिवासी समूह की जनसंख्या सबसे ज्यादा (59.939 लाख) है। इसके बाद गोंड समुदाय की जनसंख्या 50.931 लाख, कोल आदिवासियों की जनसंख्या 11.676 लाख, कोरकू आदिवासियों की जनसंख्या 7.308 लाख और सहरिया आदिवासियों की आबादी 6.149 लाख है। इनकी जनसंख्या वृद्धि दर, बाल मृत्यू दर आदि में खासा सुधार है लेकिन दूसरी तरफ बिरहुल या बिरहोर आदिवासी समुदाय की जनसंख्या केवल 52 है। कोंध समूह (मुख्यतः ओडीसा में रहने वाले) की जनसंख्या 109, परजा की जनसंख्या 137 सौंता समूह की जनसंख्या 190 । अब इनके यहां बच्चे कम होना  या ना होना एक बड़ी समस्या है। असल में इनका समुदाय बहुत छोटा है और इनके विवाह संबध्ां बहुत छोटे समुह में ही होते रहते है। अतः जैनेटिक कारणों से भी वंश-वृद्धि ना होने की एक संभावना है।


भारत में आदिवासियों की भौगौलिक स्थिति तेजी से बदल रही है। यह तथ्य एक सरकारी रिपोर्ट में सामने आया है कि देश की करीब 55 प्रतिशत आदिवासी आबादी अपने पारंपरिक आवास से बाहर निकल कर निवास कर रही है। किसानी या जंगल उत्पादों पर अपना जीवन यापन करने वली जानजातियों को प्राकृतिक संसाधन कम हो गए और इस आर्थिक संकट के कारण भी उनका पलायन हुआ। यह बात स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की रिपोर्ट “ट्राइबल हेल्थ ऑफ इंडिया” में उजागर होती है। रिपोर्ट के मुताबिक, देश में आदिवासियों की कुल दस करोड़ चालीस लाख लगभग आबादी में से आधी से अधिक 809 आदिवासी बहुल क्षेत्रों से बाहर रहती है। रिपोर्ट में इस तथ्य के समर्थन में 2011 की जनगणना का हवाला दिया गया है। 2001 की जनगणना में जिन गांवों में 100 प्रतिशत आदिवासी थे, 2011 की जनगणना में इन आदिवासियों की संख्या 32 प्रतिशत कम हो गई।


वैज्ञानिक शोध पत्रिका लैंसेट में प्रकाशित 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार आदिवासी जनजाति के लोगों का औसतन जीवन काल 63.9 वर्ष होता है जो कि गैर आदिवासी लोगों से तीन वर्ष कम होता है। आदिवासी जनजाति का औसतन जीवन काल 67 वर्ष होता है। इसका बड़ा कारण आदिवासियों के बीच बेहतर स्वास्थय सेवाओं का अभाव भी है। देश भर में मलेरिया से होने वाली मौतों में 50 फीसदी आदिवासी होते हैं क्यों की इन्हें स्वास्थ्य एवं स्वच्छता सम्बंधित विषयों में जागरूक नहीं किया जाता। आदिवासी स्वास्थ्य समस्याओं में दस सबसे बड़ी समस्याएं मलेरिया, बाल मृत्यु दर, कुपोषण, मातृ स्वास्थ्य, परिवार नियोजन, नशा, सिकल सेल एनीमिया आदि प्रमुख स्वास्थ्य समस्याएं हैं इसकी मुख्य वजह निरक्षरता को माना जाता है। ट्राइबल हेल्थ इन इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार भारत के 42 प्रतिशत आदिवासी बच्चों का वज़न उम्र के हिसाब से कम (अंडरवेट) है जो की गैर आदिवासी बच्चों से डेढ़ गुना ज़््यादा है।


प्रत्येक आदिवासी समुदास की अपनी ज्ञान-श्रंखला है। एक समुदाय के विलुप्त होने के साथ ही उनका कृषि , आयुर्वेद, पशु-स्वास्थ्य, मौसम, खेती आदि का सदियों नहीं हजारों साल पुराना ज्ञान भी समाप्त हो जाता है। यह दुखद है कि हमारी सरकारी योजनाएं इन आदिवासियां की परंपराओं और उन्हें आदि-रूप में संरक्षित करने के बनिस्पत उनका आधुनिकीकरण करने पर ज्यादा जोर देती है। हम अपना ज्ञान तो उन्हें देना चाहते हैं लेकिन उनके ज्ञान को संरक्षित नहीं करना चाहते। यह हमें जानना होगा कि जब किसी आदिवासी से मिलें तो पहले उसे ज्ञान को सुनें फि उसे अपना नया ज्ञान देने का प्रयास करें।  आज जरूरत जनजातियों को उनके मूल स्वरूप में सहेजने की है।


 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...