पराली जलाने में किसान की मजबूरी का हल खोजें
पंकज चतुर्वेदी
पिछले साल कई करोड़ के विज्ञापन चले जिसमें किसी ऐसे घोल की चर्चा थी , जिसके डालते ही पराली गायब हो जाती है व उसे जलाना नहीं पड़ता लेकिन जैसे ही मौसम का मिजाज ठंडा हुआ जब दिल्ली-एनसीआर के पचास हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को स्मॉग ने ढंक लिया था । इस बार भी आश्विन मास विदा हुआ और कार्तिक लगा कि हरियाणा- पंजाब से पराली जलाने के समाचार आने लगे. हालाँकि इस बार हरियाणा, पंजाब और यूपी _ हर सरकार आंकड़ों में यह जताने का प्रयास कर रही है कि पिछले साल की तुलना में इस बार पराली कम जली लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि इस बार दिल्ली नवम्बर के पहले हफ्ते में ही ग्रेप 4 की ग्रिप में थी . इस बार एक तो मौसम की अनियमितता और ऊपर से बीते चुनाव में पराली जलाने वाले किसानों पर आपराधिक मुकदमे को वापिस लेना राजनितिक वादा बन जाना. जब रेवाड़ी जिले के धारूहेडा से ले कर गाजियाबाद के मुरादनगर तक का वायु गुणवत्ता सूचकांक साढे चार सौ से अधिक था तो मामला सुप्रीम कोर्ट में गया व फिर सारा ठीकरा पराली पर थोप दिया गया। हालांकि इस बार अदालत इससे असहमत थी कि करोड़ों लोगों की सांस घोटने वाले प्रदूषण का कारण महज पराली जलाना है।
विदित
हो केंद्र सरकार ने वर्ष 2018 से 2020-21 के दौरान पंजाब,
हरियाणा, उप्र व दिल्ली को पराली समस्या से
निबटने के लिए कुल 1726.67 करेाड़ रूपए जारी किए थे जिसका
सर्वाािक हिस्सा पंजाब को 793.18 करोड दिया गया। विडंबना है
कि इसी राज्य में सन 2021 में पराली जलाने
की 71,304
घटनाएँ दर्ज की गईं , हालाँकि यह पिछले साल के मुकाबले कम थीं लेकिन हवा में जहर
भरने के लिए पर्याप्त . विदित हो पंजाब में सन 2020 के दौरान पराली जलाने की 76590 घटनाएं सामने आई,
जबकि बीते साल 2019 में ऐसी 52991 घटनाएं हुई थीं। हरियाणा का आंकडा भी कुछ ऐसा ही है . जाहिर है कि आर्थिक
मदद , रासायनिक घोल , मशीनों से परली के निबटान जैसे प्रयोग जितने सरल और लुभावने
लग रहे हैं, किसान को वे आकर्षित नहीं कर रहे या उनके लिए लाभकारी नहीं हैं .
इस बार तो बारिश के दो लंबे दौर – सितंबर के अंत और अक्टूबर में आये और इससे पंजाब और हरियाणा के कुछ हिस्सों में धान की कटाई में एक से दो सप्ताह की देरी हुई है,. यह इशारा कर रहा है कि अगली फसल के लिए अपने खेत को तैयार करने के लिए किसान समय के विपरीत तेजी से भाग रहा है, वह मशीन से अवशेष के निबटान के तरीके में लगने वाले समय के लिए राजी नहीं और वह अवशेष को आग लगाने को ही सबसे सरल तरीका मान रहा है . कंसोर्टियम फॉर रिसर्च ऑन एग्रोइकोसिस्टम मॉनिटरिंग एंड मॉडलिंग फ्रॉम स्पेस के आंकड़ों के मुताबिक, अवशेष जलाने की नौ घटनाएं 8 अक्टूबर को, तीन 9 अक्टूबर को और चार 10 अक्टूबर को हुईं। पंजाब और हरियाणा में बादल छंटने के कारण 11 अक्टूबर को खेत में आग लगने की संख्या बढ़कर 45 और 12 अक्टूबर को 104 हो गई. पराली जलाने की खबर उत्तर प्रदेश भी आने लगी हैं .
किसान का पक्ष है कि पराली को मशीन से निबटाने पर प्रति एकड़ कम से कम पांच हजार का खर्च आता है। फिर अगली फसल के लिए इतना समय होता नहीं कि गीली पराली को खेत में पड़े रहने दें। विदित हो हरियाणा-पंजाब में कानून है कि धान की बुवाई 10 जून से पहले नहीं की जा सकती है। इसके पीछे धारणा है कि भूजल का अपव्यय रोकने के लिए मानसून आने से पहले धान ना बोया जाए क्योंकि धान की बुवाई के लिए खेत में पानी भरना होता है। चूंकि इसे तैयार होने में लगे 140 दिन , फिर उसे काटने के बाद गेंहू की फसल लगाने के लिए किसान के पास इतना समय होता ही नहीं है कि वह फसल अवशेष का निबटान सरकार के कानून के मुताबिक करे। जब तक हरियाणा-पंजाब में धान की फसल की रकवा कम नहीं होता, या फिर खेतों में बरसात का पानी सहेजने के कुंडं नहीं बनते और उस जल से धान की बुवाई 15 मई से करने की अनुमति नहीं मिलती ; पराली के संकट से निजात मिलेगा नहीं। इंडियन इंस्टीट्यूट आफ ट्रापिकल मेट्रोलोजी, उत्कल यूनिवर्सिटी, नेशनल एटमोस्फिियर रिसर्च लेब व सफर के वैज्ञानिकों के संयुक्त समूह द्वारा जारी रिपोर्ट बताती है कि यदि खरीफ की बुवाई एक महीने पहले कर ली जाए जो राजधानी को पराली के धुए से बचाया जा सकता है। अध्ययन कहता है कि यदि एक महीने पहले किसान पराली जलाते भी हैं तो हवाएं तेज चलने के कारण हवा-घुटन के हालता नहीं होतेव हवा के वेग में यह धुआं बह जाता है। यदि पराली का जलना अक्तूबर-नवंबर के स्थान पर सितंबर में हो तो स्मॉग बनेगा ही नहीं।
किसानों
का एक बड़ा वर्ग पराली निबटान की मशीनों पर सरकार की सबसिडी योजना को धोखा मानते
हैं . उनका कहना है कि पराली को नष्ट करने
की मशीन बाजार में 75 हजार से एक लाख में उपलब्ध है, यदि
सरकार से सबसिड़ी लो तो वह मशीन डेढ से दो
लाख की मिलती है। जाहिर है कि सबसिडी उनके लिए बेमानी है। उसके बाद भी मजदूरों की
जरूरत होती ही है। पंजाब और हरियाणा दोनों ही सरकारों ने पिछले कुछ सालों में
पराली को जलाने से रोकने के लिए सीएचसी यानी कस्टम हाइरिंग केंद्र भी खोले हैं.
आसान भाषा में सीएचसी मशीन बैंक है, जो किसानों को उचित
दामों पर मशीनें किराए पर देती हैं।
किसान यहां से मशीन इस लिए नहीं लेता क्योंकि उसका खर्चा इन मशीनों को किराए पर प्रति एकड़ 5,800 से 6,000 रूपए तक बढ़ जाता है। जब सरकार पराली जलाने पर 2,500 रुपए का जुर्माना लगाती है तो फिर किसान 6000 रूपए क्यों खर्च करेगा? यही नहीं इन मशीनों को चलाने के लिए कम से कम 70-75 हार्सपावर के ट्रैक्टर की जरूरत होती है, जिसकी कीमत लगभग 10 लाख रूपए है, उस पर भी डीजल का खर्च अलग से करना पड़ता है। जाहिर है कि किसान को पराली जला कर जुर्माना देना ज्यादा सस्ता व सरल लगता है। उधर कुछ किसानों का कहना है कि सरकार ने पिछले साल पराली न जलाने पर मुआवजा देने का वादा किया था लेकिन हम अब तक पैसों का इंतजार कर रहे हैं।
दुर्भाग्य
है कि पराली जलाना रोकने की अभी तक जो भी योजनाएं बनीं, वे मशीनी तो हैं
लेकिन मानवीय नहीं, वे कागजों -विज्ञापनो पर तो लुभावनी हैं
लेकिन खेत में व्याहवारिक नहीं। जरूरत है
कि माईक्रो लेबल पर किसानों के साथ मिल कर
उनकी व्याहवारिक दिक्कतों को समझतें हुए इसके निराकरण के स्थानीय उपाय
तलाशें , जिसमें दस दिन कम समय में तैयार होने वाली धान की नस्ल को प्रोत्साहित
करना, धान के रकवे को कम करना , केवल
डार्क ज़ोन से बाहर के इलाकों में धान बुवाई की अनुमति आदि शामिल है .मशीने कभी
भी पर्यावरण का विकल्प नहीं होतीं, इसके लिए स्वनिंयंत्रण ही
एकमात्र निदान होता है।
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