उजड़ता जोशीमठ : इस त्रासदी को हमने ही बुलाया है
पंकज चतुर्वेदी
सामरिक दृष्टि से संवेदनशील, भारत- चीन- तिब्बत सीमा के आखिरी गाँव के लिए मशहूर , समुद्र तल से करीब 1800 मीटर की ऊंचाई पर स्थित ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) को बदरीनाथ धाम का प्रवेश द्वार कहा जाता है। यहां नृसिंह मंदिर के दर्शनों के बाद ही तीर्थयात्री अपनी बदरीनाथ धाम की तीर्थयात्रा शुरू करते हैं। तिब्बत (चीन) सीमा क्षेत्र का यह अंतिम नगर क्षेत्र है। नगर के अधिकांश क्षेत्र में सेना और आईटीबीपी के कैंप स्थित हैं। जोशीमठ से ही पर्यटन स्थल औली के लिए रोपवे और सड़क मार्ग है। लेकिन आज यह शहर उजड़ने की कगार पर है -पिछले कुछ महिनों से नगर में कई आवासीय मकानों और सड़कों में दरारें पड़नी शुरू हुई, जो दिनों दिन मोटी होती जा रही हैं। पेट्रोल पंप से लेकर ग्रेफ कैंप तक जगह-जगह बदरीनाथ हाईवे पर भी भू-धंसाव हो रहा है। मनोहर बाग, सिंग्धार, गांधीनगर, मारवाड़ी आदि वॉर्डों में होटल, घर और खेत भी दरक रहे हैं।
जोशीमठ नगर की वर्तमान में जनसंख्या
लगभग 25000 है। यहा अभी तक पञ्च सौ से जयादा घर-दुकाने उजाड़ चुकी है. लोग सड़क अपर हैं और
सरकाई अमले रिपोर्ट , आश्वासन में उलझे हैं . जबकि यहाँ रात में जो दरार हल्की दिखाई दे रही है, सुबह तक यानी 12 घंटे में हाथ डालने
लायक चौड़ी हो जाती है। हर तीन दिन में देखें तो 45 घरों
दरारें आ रही हैं। पूरे शहर का यही हाल है। भू-धसाव का यह दायरा दिनों-दिन बढ़ता
जा रहा है। यह सभी जानते हैं कि जोशीमठ नगर पुराने रॉक स्लाइड
(भूस्खलन क्षेत्र) पर बसा है। अलकनंदा नदी बहुत तेजी से यहाँ नीची आती है और इससे बहुत
सारा मालवा भी आता है और भू-कटाव हो रहा है. जिससे धीरे-धीरे भूमि खिसक रही है।
जोशीमठ के उजड़ने के कारणों को बारीकी
से देखे तो स्पष्ट हो जाता है कि जलवायु परिवर्तन की मार , अंधाधुंध जल बिजली परियोजनाएं, बेतरतीब सडक निर्माण के
साथ साथ इन हालातों के लिए स्थानीय लोग भी
कम दोषी नहीं हैं . चार धाम के पर्यटन से जीवकोपार्जन करने वालों को जब अधिक पैसा
कमाने का चस्का लगा और उन्होंने अपनी जीवन शैली ही बदल डाली तो धीरे धीर यह हालात
बने . जब आए पर्यटक, तो उनके लिए कुछ होटल बने, सरकार
ने बढ़ावा दिया तो उनके देखा-देखी कई लोगों
ने अपने पुश्तेनी मकान अपने ही
हाथों से तबाह कर सीमेंट, ईंटें दूर देश से मंगवा कर आधुनिक डिजाईन के सुन्दर मकान खड़े कर लिए, ताकि
बाहरी लोग उनके मेहमान बन कर रहें, उनसे कमाई हो। पक्का मोटर
रोड बन जाने की बाद हर साल यहाँ स्थानीय आबादी कि तुलना में दस गुना अधिक पर्यटक
आते हैं
स्थानीय प्रशासन ने भी घर-घर नल
पहुंचा दिए। पहले जिसे जितनी जरूरत होती थी, नदी के पास जाता था
और पानी का इस्तेमाल कर लेता था, अब जो घर में टोंटी लगी तो
एक गिलास के लिए एक बाल्टी फैलाने का लोभ लग गया। सनद रहे इस इलाके में ठंड के
दिनों में औसतन प्रति व्यक्ति 10 लीटर व गरमी में अधिकतम 21 लीटर पानी की जरूरत
होती थी। कंक्रीट बढ़ने के साथ यह मांग औसतन 75 लीटर तक हो गई। जब इतना पानी इस्तेमाल
होगा तो जाहिर है कि बेकार गए पान को बहने
के लिए रास्ता भी चाहिए। अब पहाड़ों की ढलानों पर बसे मकानों के नीचे नालियों की
जगह जमीन काट कर पानी तेजी से नीचे आने लगा, इससे ना केवल
आधुनिक कंक्रीट वाले, बल्कि पारंपरिक मकान भी ढहने लगे। यही
नहीं ज्यादा पैसा बनाने के लोभ ने जमीनों
पर कब्जे, दरिया के किनारे पर्यटकों के लिए आवास का लालच भी
बढ़ाया। असल में हिमालय जिंदा पहाड़ है और वहां लगातार भूगर्भीय गतिविधियाँ होती रहती हैं . यहाँ
सैंकड़ों ऐसी धाराएं है जहां सालों पानी नहीं आता, लेकिन जब
ऊपर ज्यादा बरफ पिघलती है तो वहां अचानक तेज जल-बहाव होता है। याद करें छह फरवरी 21 में जब ग्लेशियर फटने के बाद विनाषकारी बाढ़ आई थी और पक्के
कंक्रीट के मकानों के कारण सबसे ज्यादा तबाही हुई थी। असल में ऐसे अधिकांश मकान
ऐसी ही सूखी जल धाराओं के रास्ते में रोप दिए गए थे। पानी को जब अपने पारंपरिक
रास्ते में ऐसे व्यवधान दिखे तो उसने
उन्हें ढहा दिया।
जान लें कि चमौली हिमालय की छाया में बसा है और यहां बरसात कम ही
होती थी, लेकिन जलवायु
परिवर्तन का असर यहां भी दिख रहा है व अब गर्मियों में कई-कई बार बरसात
होती है। यहां पर्यटन बढ़ने से पानी, मोटर कारों की मांग बढ़ी
तो कचरा भी बढ़ा। होटल बढ़ने से जैनरेटर जैसे धुआं उगलने वाले यंत्र का इस्तेमाल भी
बढ़ा। अंधाधुंध पर्यटन के कारण उनके साथ आया प्लास्टिक व अन्य पैकेजिंग का कचरा
यहां के भूगोल को प्रभावित कर रहा है । इस नए किस्म के कचरे ने इलाके की पारंपरिक
कचरा-निस्तारण प्रणाली को ध्वस्त कर दिया। नए किस्म से कचरा निबटान षुरू नहीं हुआ।
इस अंचल के पारंपरिक घर
स्थानीय मिट्टी में रेत मिला कर धूप में पकाई गई ईंटों से बनते थे । इन घरों की
बाहरी दीवारों को स्थानीय ‘पुतनी मिट्टी’ व उसमें वनस्पतियों के अवषेश को मिला कर
ऐसा कवच बनाया जाता है जो शून्य से नीचे
तापमान में भी उसमें रहने वालों को उष्मा
देता था । भूकंप -संवेदनषील इलाका तो है
ही। ऐसे में पारंपरिक आवास सुरक्षित माने जाते रहे हैं। सनद रहे कंक्रीट गरमी में और तपती व जाउ़े में अधिक ठंडा करती
है। सीमेंट की वैज्ञानिक आयु 50 साल है
जबकि इस इलाके में पारंपरिक तरीके से बने कई मकान, मंदिर,
मठ हजार साल से ऐसे ही शान से खड़े हैं। यहां के पारंपरिक मकान तीन मंजिला होते हैं।
-सबसे नीचे मवेशी, उसके उपर परिवार और सबसे उपर पूजा घर। इसके
सामाजिक व वैज्ञानिक कारण भी हैं।
यह दुखद है कि बाहरी दुनिया के
हजारों लोग यहां प्रकृति की सुंदरता निहारने आ रहे हैं लेकिन वे अपने पीछे इतनी
गंदगी, आधुनिकता की गर्द छोड़कर जा रहे हैं कि यहां के स्थानीय समाज का अस्तित्व खतरे में
हैं।
पिछले साल अगस्त में इस शहर का एक
भूगर्भीय सर्वेक्षण किया गया था, जिसकी रिपोर्ट नवम्बर में आई और इसमें स्पष्ट
लिखा है कि भू-धंसाव
का प्रमुख कारण नगर के नीचे अलकनंदा नदी से हो रहा कटाव, क्षेत्र
में ड्रेनेज सिस्टम और सीवेज की व्यवस्था नहीं होना है। दुर्भाग्य है कि यहाँ महज 10 प्रतिशत परिवार ही सीवेज योजना से जुड़े हैं । 90 प्रतिशत
परिवारों के घरों का पानी पिट में जा रहा है, जो पहाड़ी जमीन को भीतर ही भीतर काट
रहा है .
अकेले जोशीमठ ही नहीं , चीन-नेपाल से लगी सीमा के
उत्तराखंड के जिलों को यदि अपना अस्तित्व बचाना है तो नैसर्गिक जल धारों के अविरल प्रवाह पर तो ध्यान देना ही होगा साथ ही बेलगाम
पर्यटन से तौबा करना होगा.
यह सुनिश्चित करना स्थानीय नागरिकों
की जिम्मेदारी भी है कि जोशीमठ नगर में पानी की निकासी के लिए मजबूत ड्रेनेज
सिस्टम हो। समूचे नगर क्षेत्र में घरों से निकले पानी को
पक्की नालियों के जरिये इस तरह बहाया जाए कि पानी जमीन के अंदर न जा सके। नए बहुमंजिला भवनों की अनुमति न दी जाए, जिससे भूमि
पर अधिक दबाव न पड़ सके। नदी के किनारे भू कटाव रोकने
के लिए अधिक से अधिक पेड़ लगाने, नदी के विस्तार म,आर्ग को निर्माण से मुक्त रखने
की भी जरूरत है ।
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