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बुधवार, 11 जनवरी 2023

Tragedy of the Himalayas sinking in religion, business and politics. Joshimath is not alone, many more are sinking

 धर्म , धंधे और सियासत में धंसते हिमालय की त्रासदी
अकेले जोशीमठ ही नहीं, बहुत से कसबे धंस रहे हैं

पंकज चतुर्वेदी



छः  जनवरी 2023 को जब उत्तराखंड राज्य सरकार के आपदा सचिव रंजित सिन्हा के नेतृत्व में वैज्ञानिक, इंजीनियर आदि की टीम जोशीमठ का निरिक्षण करने पहुंची तब तक बहुत देर  हो चुकी थी . जिन पहाड़ों , पेड़ों, नदियों ने पांच हज़ार् साल  से अधिक तक मानवीय सभ्यता, आध्यात्म, धर्म, पर्यावरण को विकसित होते देखा था, वह बिखर चुके थे . न सडक बच  रही है न मकान . न ही नदी की किनारे .सरकार ने भी कह दिया कि जोशीमठ को खाली करना होगा,अस्थाई आसरे और  चार हज़ार रूपये महीने के मुआवजे की घोषणा  हुई है लेकिन इन हज़ारों लोगों के जीवकोपार्जन का क्या होगा ?  आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित  स्थान, मूल्य और संस्कार का क्या होगा ? आंसुओं  से भरे चेहरे और आशंकाओं से भरे दिल  अनिश्चितता  और आशंका के बीच त्रिशंकु हैं . जब दुनिया पर जलवायु परिवर्तन का कहर  सामने दिख रहा है, हिमालय पहाड़ पर, विकास की नई परिभाषा गढ़ने की तत्काल जरूरत महसूस हो   रही है . जान लें यह केवल जोशीमठ की बात नहीं है , पहाड़ पर जहां जहां सर्पीली सडक पहुँच रही है, पर्यटक का बोझा बढ़ रहा है, पहाड़ों के दरकने-सरकने की घटनाएँ बढ़ रही हैं . उत्तराखंड सरकार के  आपदा प्रबंधन विभाग और  विश्व  बैंक ने सन 2018 में एक अध्ययन करवाया था जिसके अनुसार  छोटे से उत्तराखंड  में 6300 से अधिक स्थान  भूस्खलन ज़ोन के रूप में चिन्हित किये गये  . रिपोर्ट कहती है कि राज्य में चल रही हज़ारों करोड़ की विकास परियोजनाएं पहाड़ों को काट कर या जंगल उजाड़ कर ही बन रही हैं और इसी से  भूस्खलन ज़ोन की संख्या में इजाफा हो रहा है.


 जोशीमठ सामरिक दृष्टि से संवेदनशील है . भारत- चीन- तिब्बत सीमा के आखिरी गाँव के लिए मशहूर , समुद्र तल से करीब 1800 मीटर की ऊंचाई पर स्थित ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) के जिसे बदरीनाथ धाम का प्रवेश द्वार कहा जाता है। यहां नृसिंह मंदिर के दर्शनों के बाद ही तीर्थयात्री अपनी बदरीनाथ धाम की तीर्थयात्रा शुरू करते हैं। तिब्बत (चीन) सीमा क्षेत्र का यह अंतिम नगर क्षेत्र है। नगर के अधिकांश क्षेत्र में सेना और आईटीबीपी के कैंप स्थित हैं। और अब जमीन की दरार सेना के ठिकानों  की तरफ पहुँच रही है .


मसूरी में सडक जाम से बचने के लिए 2.74 किलोमीटर के लिए लंबी सुरंग के लिए 700 करोड़ रुपये मंजूर कर दिए गए जबकि  सन 2010 में मसूरी की आईएएस अकादमी ने एक शोध में बता दिया था कि मसूरी के संसाधनों पर दबाव सहने की क्षमता चुक चुकी है. मसूरी की आबादी मात्र तीस हज़ार है और इनमें भी आठ हज़ार लोग ऐसे मकानों में रहते हैं जहां भूस्खलन का ख़तरा है, इतने छोटे से स्थान पर हर साल कोई पचास लाख लोगों का पहुंचना पानी, बिजली, सीवर सभी पर अत्यधिक बोझ का कारक है , ऐसे में सुरंग बना कर अधिक पर्यटक भेजने की कल्पना वास्तव में मसूरी की बर्बादी का दस्तावेज होगा .वैसे मसूरी के लिए सुरंग बनाए के प्रयास पहले भी हुए जब अंग्रेज शासन में वहाँ ट्रेन लाने  के लिए सुरंग की बात आई तो जन विरोध के चलते उस काम को रोकना पड़ा था और आधी अधूरी पटरियां  पड़ीं रह गयी थीं .


उत्तराखंड के सबसे लोकप्रिय  पर्यटन स्थल नैनीताल का अस्तित्व ही भूस्खलन  के कारण खतरे में है. यहाँ बालियानाला, चाइनापीक, मालरोड, कैलाखान, ठंडी सड़क, टिफिनटॉप सात नंबर क्षेत्र में जबर्दस्त भूस्खलन है . सन 1880 में नैनीताल की आबादी बमुश्किल दस हज़ार थी, और यहाँ भयानक पहाड़ क्षरण हुआ, कोई ढेढ़ सौ लोग मारे गये थे, उन दिनों तब की ब्रितानी हुकुमत ने पहाड़ गिरने से सजग हो कर नए निर्माण पर तो रोक लगाईं ही थी, शेर का डांडा पहाड़ी पर तो घास काटने, चारागाह के रूप में उपयोग करने और बागवानी पर भी प्रतिबंध लगा दी थी . कुमाऊं विवि के भूवैज्ञानिक प्रो बीएस कोटलिया बताते हैं कि नैनीताल और नैनीझील के बीच से गुजरने वाले फॉल्ट के एक्टिव होने से भूस्खलन और भूधंसाव की घटनाएं हो रही हैं. शहर में लगातार बढ़ता भवनों का दबाव और भूगर्भीय हलचल इसका कारण हो सकते हैं.


दुनिया के सबसे युवा और जिंदा पहाड़ कहलाने वाले हिमालय में हरियाली उजाड़ने की कई परियोजनाएं खतरा बनी हुई हैं. नवंबर -2019 में राज्य की कैबिनेट से स्वीकृत नियमों के मुताबिक कम से कम दस हेक्टेयर में फैली हरियाली को ही जंगल कहा जाएगा. यही नहीं वहां न्यूनतम पेड़ों की सघनता घनत्व 60 प्रतिशत से कम ना हो और जिसमें 75 प्रतिशत स्थानीय वृक्ष प्रजातियां उगी हों. जाहिर है कि जंगल की परिभाषा  में बदलाव का असल इरादा  ऐसे कई इलाकां को जंगल की श्रेणी से हटाना है जो कि कथित विकास के राह में रोड़े बने हुए हैं. उत्तराखंड में बन रही पक्की सड़कों के लिए 356 किलोमीटर के वन क्षेत्र में कथित रूप से 25 हजार पेड़ काट डाले गए. मामला एनजीटी में भी गया लेकिन तब तक पेड़ काटे जा चुके थे. यही नहीं सड़कों का संजाल पर्यावरणीय लिहाज से संवेदनशील उत्तरकाशी की भागीरथी घाटी के से भी गुजर रहा है ..उत्तराखंड के चार प्रमुख धामों को जोड़ने वाली सड़क परियोजना में 15 बड़े पुल, 101 छोटे पुल, 3596 पुलिया, 12 बाइपास सड़कें बनाने का प्रावधान है.


इधर ऋषिकेश से कर्णप्रयाग और वहां से जोशीमठ तक रेल मार्ग परियोजना, जोकि नब्बे फ़ीसदी पहाड़ में छेद कर सुरंग से हो कर जायेगी , ने पहाड़ को थर्रा कर रखा  दिया है .

सनद रहे हिमालय पहाड़ ना केवल हर साल बढ़ रहा है, बल्कि इसमें भूगर्भीय उठापटक चलती रहती हैं. यहां पेड़ भूमि को बांध कर रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं जो कि कटाव व पहाड़ ढहने से रोकने का एकमात्र उपाय है. हिमालयी भूकंपीय क्षेत्र में भारतीय प्लेट का यूरेशियन प्लेट के साथ टकराव होता है और इसी से प्लेट बाउंड्री पर तनाव ऊर्जा संग्रहित हो जाती है जिससे क्रिस्टल छोटा हो जाता है और चट्टानों का विरुपण होता है. ये ऊर्जा भूकंपों के रूप में कमजोर जोनों एवं फाल्टों के जरिए सामने आती है.  जब पहाड़ पर तोड़फोड़ या धमाके होते हैं, जब उसके प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड होती है तो भूकंप के खतरे तो बढ़ते हैं .

पहाड़ के उजड़ने के कारणों को बारीकी से देखे तो स्पष्ट हो जाता है कि जलवायु परिवर्तन की मार , अंधाधुंध  जल बिजली परियोजनाएं, बेतरतीब सडक निर्माण के साथ साथ  इन हालातों के लिए स्थानीय लोग भी कम दोषी नहीं हैं . चार धाम के पर्यटन से जीवकोपार्जन करने वालों को जब अधिक पैसा कमाने का चस्का लगा और उन्होंने अपनी जीवन शैली ही बदल डाली तो धीरे धीर यह हालात बने . प्रशासन ने घर-घर नल पहुंचा दिए। पहले जिसे जितनी जरूरत होती थी, नदी के पास जाता था और पानी का इस्तेमाल कर लेता था, अब जो घर में टोंटी लगी तो एक गिलास के लिए एक बाल्टी फैलाने का लोभ लग गया। सनद रहे इस इलाके में ठंड के दिनों में औसतन प्रति व्यक्ति 10 लीटर व गरमी में अधिकतम 21 लीटर पानी की जरूरत होती थी। कंक्रीट बढ़ने के साथ यह मांग औसतन 75 लीटर तक हो गई। जब इतना पानी इस्तेमाल होगा तो जाहिर है कि बेकार गए पानी   को बहने के लिए रास्ता भी चाहिए। अब पहाड़ों की ढलानों पर बसे मकानों के नीचे नालियों की जगह जमीन काट कर पानी तेजी से नीचे आने लगा, इससे ना केवल आधुनिक कंक्रीट वाले, बल्कि पारंपरिक मकान भी ढहने लगे। यही नहीं ज्यादा पैसा  बनाने के लोभ ने जमीनों पर कब्जे, दरिया के किनारे पर्यटकों के लिए आवास का लालच भी बढ़ाया।

यहाँ सड़क का इस्तेमाल  सामरिक से अधिक धार्मिक पर्यटन के लिए ज्यादा है और इसके पीछे  एक राजनीती भी है. इतने पर्यटक आने से स्थानीय व्यापार  बढ़ रहा है, आज कई हज़ार लोग  राज्य की विभिन्न परियोजनाओं में रोजगार पा रहे हैं , सो निश्चित ही यह स्थानीय लोगों के लिए सम्रद्धि दिखता है . यह कड़वा सच्चाई है कि धर्म अब देश की राजनीती का  माध्यम बन गया है और इस तरह सुविधापूर्ण सड़कें और चकाचौंध करने वाली जन सुविधाएँ देश में सन्देश देती हैं कि अमुक सरकार ने हिन्दू तीर्थों में काम किया . यह तो कोई जानता नहीं कि इन सुविधाओं को  मुहैया कराने  के लिए किस तरह पर्यावरण को नुक्सान हुआ लेकिन यह  कुछ  दिन के लिए आये तीर्थ यात्री के वोट बेंक बनाने का चारा जरुर होता है .

 

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