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शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

not only joshimath whole Himalay region may be in trouble

 धर्म , धंधे और सियासत में धंसते हिमालय की त्रासदी

अकेले जोशीमठ ही नहीं, बहुत से कसबे धंस रहे हैं

पंकज चतुर्वेदी


यह तय हो चुका है कि अब जोशीमठ नाम्क एक पावन कस्बे का अस्तित्व  समाप्त हो जायेगा 
और फिर लोग भूल भी जाएंगे । पहाड़  पर विकास के नए रंग के नशेमें  न तो अब लोगों को केदारनाथ त्रासदी याद आती है और न ही दो साल पहले रेणी का तपोवन जल विद्धुत परियोजना का जल प्रलय और न ही हर साल बरसात के चार महीनों मे हर दिन दिन ढहते- गिरते और सड़क में बाधा बनते पहाड़ से गिरे मलवे ।  छः  जनवरी 2023 को जब उत्तराखंड राज्य सरकार के आपदा सचिव रंजित सिन्हा के नेतृत्व में वैज्ञानिक, इंजीनियर आदि की टीम जोशीमठ का निरिक्षण करने पहुंची तब तक बहुत देर  हो चुकी थी . जिन पहाड़ों , पेड़ों, नदियों ने पांच हज़ार् साल  से अधिक तक मानवीय सभ्यता, आध्यात्म, धर्म, पर्यावरण को विकसित होते देखा था, वह बिखर चुके थे . न सडक बच  रही है न मकान . न ही नदी की किनारे .सरकार ने भी कह दिया कि जोशीमठ को खाली करना होगा,अस्थाई आसरे और  चार हज़ार रूपये महीने के मुआवजे की घोषणा  हुई है लेकिन इन हज़ारों लोगों के जीवकोपार्जन का क्या होगा ?  आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित  स्थान, मूल्य और संस्कार का क्या होगा ? आंसुओं  से भरे चेहरे और आशंकाओं से भरे दिल  अनिश्चितता  और आशंका के बीच त्रिशंकु हैं . जब दुनिया पर जलवायु परिवर्तन का कहर  सामने दिख रहा है, हिमालय पहाड़ पर, विकास की नई परिभाषा गढ़ने की तत्काल जरूरत महसूस हो   रही है . जान लें यह केवल जोशीमठ की बात नहीं है , पहाड़ पर जहां जहां सर्पीली सडक पहुँच रही है, पर्यटक का बोझा बढ़ रहा है, पहाड़ों के दरकने-सरकने की घटनाएँ बढ़ रही हैं . उत्तराखंड सरकार के  आपदा प्रबंधन विभाग और  विश्व  बैंक ने सन 2018 में एक अध्ययन करवाया था जिसके अनुसार  छोटे से उत्तराखंड  में 6300 से अधिक स्थान  भूस्खलन ज़ोन के रूप में चिन्हित किये गये  . रिपोर्ट कहती है कि राज्य में चल रही हज़ारों करोड़ की विकास परियोजनाएं पहाड़ों को काट कर या जंगल उजाड़ कर ही बन रही हैं और इसी से  भूस्खलन ज़ोन की संख्या में इजाफा हो रहा है.

 

जोशीमठ सामरिक दृष्टि से संवेदनशील है . भारत- चीन- तिब्बत सीमा के आखिरी गाँव के लिए मशहूर , समुद्र तल से करीब 1800 मीटर की ऊंचाई पर स्थित ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) के जिसे बदरीनाथ धाम का प्रवेश द्वार कहा जाता है। यहां नृसिंह मंदिर के दर्शनों के बाद ही तीर्थयात्री अपनी बदरीनाथ धाम की तीर्थयात्रा शुरू करते हैं। तिब्बत (चीन) सीमा क्षेत्र का यह अंतिम नगर क्षेत्र है। नगर के अधिकांश क्षेत्र में सेना और आईटीबीपी के कैंप स्थित हैं। चूंकि अब जमीन की दरार सेना के ठिकानों  की तरफ पहुँच रही है  और वहाँ  रखा लाव लश्कर भी खतरे में है ,सो सरकार  की अतिरिक्त सक्रियता दिख रही है। कई दल जा रहे हैं लेकिन कोई भी खुल कर नहीं कह रहा है कि क्या जोशीमठ के बचे रहने की अभी भी कोई संभावना है ?

एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय के भूवैज्ञानिक एसपी सती कहते हैं कई हिमालयी कस्बे टाइमबम की स्थिति में हैं। चमोली का कर्णप्रयाग और गोपेश्वर, टिहरी में घनसाली, पिथौरागढ़ में मुनस्यारी और धारचुला, उत्तरकाशी में भटवाड़ी, पौड़ी, नैनीताल समेत कई ऐसी जगहें हैं जहां लगातार भूधंसाव हो रहा है। सारी जगह जल निकासी के प्राकृतिक चैनल ब्लॉक कर दिए गए हैं। बहुमंजिला इमारतें बना दी गई हैं। क्षेत्र की भौगोलिक संवेदनशीलता को ध्यान रखे बिना अंधाधुंध निर्माण कार्य किए जा रहे हैं

जानना जरुरी है कि हिमालय भारत के लिए महज एक भोगोलिक संरचना नहीं है, इसे देश की जीवन रेखा खा जाना चाहिए-- नदियों का जल हो या मानसून की गति-- सब कुछ हिमालय के पहाड़ तय करते हैं .भले ही यह कोई सात करोड साल पुरना हो लेकिन दुनिया में यह युवा पहाड़ है और इसमें लगातार आंतरिक गतिविधियां चलती रहती हैं . केदारनाथ त्रासदी से सबक न लेते हुए उत्तराखंड के हिमालय पर बेशुमार सड़कों का जो दौर शुरू हुआ है उससे आये रोज, मलवा खिसकने, जंगल गायब होने जैसी त्रासदियाँ उपज रही हैं . खासकर  जलवायु परिवर्तन की मार से सर्वाधिक प्रभावित उत्तराखंड के पहाड़ जैसे अब अपना संयम खो रहे हैं -देश को सदानीरा गंगा-यमुना जैसे नदिया देने वाले पहाड़ के करीब 12 हजार प्राकृतिक स्रोत या तो सूख चुके हैं या फिर सूखने की कगार पर हैं। ऐसे में बगैर किसी आकलन के महज यातायात के लिए हिमालय की छाती खोदना किसी अनिष्टकारी  त्रासदी का आमंत्रण प्रतीत होता है .

विकास के नाम पर अस्तित्व का संकट उत्तराखंड की कोई नई  त्रासदी है नहीं , दो साल पहले मसूरी में सडक जाम से बचने के लिए 2.74 किलोमीटर के लिए लंबी सुरंग के लिए 700 करोड़ रुपये मंजूर कर दिए गए जबकि  सन 2010 में मसूरी की आईएएस अकादमी ने एक शोध में बता दिया था कि मसूरी के संसाधनों पर दबाव सहने की क्षमता चुक चुकी है. मसूरी की आबादी मात्र तीस हज़ार है और इनमें भी आठ हज़ार लोग ऐसे मकानों में रहते हैं जहां भूस्खलन का ख़तरा है, इतने छोटे से स्थान पर हर साल कोई पचास लाख लोगों का पहुंचना पानी, बिजली, सीवर सभी पर अत्यधिक बोझ का कारक है , ऐसे में सुरंग बना कर अधिक पर्यटक भेजने की कल्पना वास्तव में मसूरी की बर्बादी का दस्तावेज होगा . यह बात कई सरकारी रिपोर्ट में दर्ज है कि मसूरी के आसपास का इलाका भूस्खलन के मामले ने बहुत संवेदनशील है , यहाँ कि भूगर्भ संरचना में छेड़ करना या कोई निर्माण करना कहीं बड़े स्तर पर पहाड़  का मालवा न गिरा दे .सन 2010 में मसूरी की आईएएस अकादमी ने एक शोध में बता दिया था कि मसूरी के संसाधनों पर दबाव सहने की क्षमता चुक चुकी है.हिमालय के सम्वेदना से परिचित पर्यावरणविद मसूरी में सुरंग बनने को आत्म हत्या निरुपित कर रहे हैं क्योंकि मसूरी के पास फाड में बहुत बड़ी दरारें पहले से हैं , ऐसे में यदि वहाँ भारी मशीनों से ड्रिलिंग हुई तो परिणाम कितने भयावह होंगे? कोई  नहीं कह सकता .

इससे पहले सन 2014 में लोक निर्माण विभाग ने बाईपास पर चार सुरंग बनाने का प्रस्ताव तैयार किया था, जिसमें कार्ट मैकेंजी रोड से कैंपटी फॉल तक सुरंग बनाने की योजना थी . लोंबार्डी इंडिया प्राइवेट लिमिटेड कंपनी ने जांच भी की थी लेकिन पर्यावरणीय कारणों से उस परियोजना को शुरू नहीं किया जा सका था

ब्रितानी सरकार के दौर में हिंदुस्तान के कुछ राजे-रजवाड़ों ने वर्ष 1928  में अंग्रेजों के साथ मिलकर मसूरी-देहरा ट्रॉम-वे कंपनी बनाई थी। इस कंपनी ने 23 लाख रुपये की लागत से मसूरी के लिए रेल लाइन बिछाने का काम शुरू किया था। वर्ष 1924 में एक सुरंग बनाते समय हाद्स्सा हो गया-- फिर स्थानीय किसानों को लगा कि रेल की पटरी से उनके बासमती के खेत और घने जंगल उजाड जायेंगे , बड़ा आंदोलन हुआ और उस परियोजना को अंग्रेजों  ने रोक दिया था .

इतने पुराने कटु अनुभवों के बाद भी सन 2020  में ही  राज्य सरकार ने गुपचुप  सुरंग की योजना पर काम करना शुरू कर दिया था, कोविड की पहली लहर के दौरान  जब सारे देश में काम-काज बंद थे तब इस योजना  की कागज तैयार कर लिए गए लेकिन स्थानीय प्रशासन की जानकारी के बगैर. 

उत्तराखंड के सबसे लोकप्रिय  पर्यटन स्थल नैनीताल का अस्तित्व ही भूस्खलन  के कारण खतरे में है. यहाँ बालियानाला, चाइनापीक, मालरोड, कैलाखान, ठंडी सड़क, टिफिनटॉप सात नंबर क्षेत्र में जबर्दस्त भूस्खलन है . सन 1880 में नैनीताल की आबादी बमुश्किल दस हज़ार थी, और यहाँ भयानक पहाड़ क्षरण हुआ, कोई ढेढ़ सौ लोग मारे गये थे, उन दिनों तब की ब्रितानी हुकुमत ने पहाड़ गिरने से सजग हो कर नए निर्माण पर तो रोक लगाईं ही थी, शेर का डांडा पहाड़ी पर तो घास काटने, चारागाह के रूप में उपयोग करने और बागवानी पर भी प्रतिबंध लगा दी थी . कुमाऊं विवि के भूवैज्ञानिक प्रो बीएस कोटलिया बताते हैं कि नैनीताल और नैनीझील के बीच से गुजरने वाले फॉल्ट के एक्टिव होने से भूस्खलन और भूधंसाव की घटनाएं हो रही हैं. शहर में लगातार बढ़ता भवनों का दबाव और भूगर्भीय हलचल इसका कारण हो सकते हैं. यहाँ नैनी झील पर जलवायु परिवर्तन का साफ असर दिख रहा है । शीतकाल में हिमपात और वर्षा न होने से झील को रिचार्ज करने वाले प्राकृतिक जलस्रोतों का पानी लगातार घट रहा है। इससे झील के जलस्तर में तेजी से गिरावट हो रही है। रोजाना करीब आधा इंच गिरावट से झील का जलस्तर वर्तमान में 7.10 फीट रह गया है। यह स्तर पिछले साल की तुलना में करीब डेढ़ फीट कम हैं। यह स्थिति तब है जब तीन माह पूर्व झील लबालब भरी हुई थी। आगे अच्छी वर्षा व हिमपात न हुआ तो गर्मियों में झील के न्यूनतम स्तर पर पहुंचने की स्थिति बन सकती है। यदि यहाँ बाहरी लोगों की अधिक भीड़ होगी और पानी की मांग बढ़ेगी तो जाहीर है कि नैनी झील पर ही बोझा बढ़ेगा ।

दुनिया के सबसे युवा और जिंदा पहाड़ कहलाने वाले हिमालय में हरियाली उजाड़ने की कई परियोजनाएं खतरा बनी हुई हैं. नवंबर -2019 में राज्य की कैबिनेट से स्वीकृत नियमों के मुताबिक कम से कम दस हेक्टेयर में फैली हरियाली को ही जंगल कहा जाएगा. यही नहीं वहां न्यूनतम पेड़ों की सघनता घनत्व 60 प्रतिशत से कम ना हो और जिसमें 75 प्रतिशत स्थानीय वृक्ष प्रजातियां उगी हों. जाहिर है कि जंगल की परिभाषा  में बदलाव का असल इरादा  ऐसे कई इलाकां को जंगल की श्रेणी से हटाना है जो कि कथित विकास के राह में रोड़े बने हुए हैं. उत्तराखंड में बन रही पक्की सड़कों के लिए 356 किलोमीटर के वन क्षेत्र में कथित रूप से 25 हजार पेड़ काट डाले गए. मामला एनजीटी में भी गया लेकिन तब तक पेड़ काटे जा चुके थे. यही नहीं सड़कों का संजाल पर्यावरणीय लिहाज से संवेदनशील उत्तरकाशी की भागीरथी घाटी के से भी गुजर रहा है ..उत्तराखंड के चार प्रमुख धामों को जोड़ने वाली सड़क परियोजना में 15 बड़े पुल, 101 छोटे पुल, 3596 पुलिया, 12 बाइपास सड़कें बनाने का प्रावधान है.

इधर ऋषिकेश से कर्णप्रयाग और वहां से जोशीमठ तक रेल मार्ग परियोजना, जोकि नब्बे फ़ीसदी पहाड़ में छेद कर सुरंग से हो कर जायेगी , ने पहाड़ को थर्रा कर रखा  दिया है .

सनद रहे हिमालय पहाड़ ना केवल हर साल बढ़ रहा है, बल्कि इसमें भूगर्भीय उठापटक चलती रहती हैं. यहां पेड़ भूमि को बांध कर रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं जो कि कटाव व पहाड़ ढहने से रोकने का एकमात्र उपाय है. हिमालयी भूकंपीय क्षेत्र में भारतीय प्लेट का यूरेशियन प्लेट के साथ टकराव होता है और इसी से प्लेट बाउंड्री पर तनाव ऊर्जा संग्रहित हो जाती है जिससे क्रिस्टल छोटा हो जाता है और चट्टानों का विरुपण होता है. ये ऊर्जा भूकंपों के रूप में कमजोर जोनों एवं फाल्टों के जरिए सामने आती है.  जब पहाड़ पर तोड़फोड़ या धमाके होते हैं, जब उसके प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड होती है तो भूकंप के खतरे तो बढ़ते हैं .

पहाड़ के उजड़ने के कारणों को बारीकी से देखे तो स्पष्ट हो जाता है कि जलवायु परिवर्तन की मार , अंधाधुंध  जल बिजली परियोजनाएं, बेतरतीब सडक निर्माण के साथ साथ  इन हालातों के लिए स्थानीय लोग भी कम दोषी नहीं हैं . चार धाम के पर्यटन से जीवकोपार्जन करने वालों को जब अधिक पैसा कमाने का चस्का लगा और उन्होंने अपनी जीवन शैली ही बदल डाली तो धीरे धीर यह हालात बने . प्रशासन ने घर-घर नल पहुंचा दिए। पहले जिसे जितनी जरूरत होती थी, नदी के पास जाता था और पानी का इस्तेमाल कर लेता था, अब जो घर में टोंटी लगी तो एक गिलास के लिए एक बाल्टी फैलाने का लोभ लग गया। सनद रहे इस इलाके में ठंड के दिनों में औसतन प्रति व्यक्ति 10 लीटर व गरमी में अधिकतम 21 लीटर पानी की जरूरत होती थी। कंक्रीट बढ़ने के साथ यह मांग औसतन 75 लीटर तक हो गई। जब इतना पानी इस्तेमाल होगा तो जाहिर है कि बेकार गए पानी   को बहने के लिए रास्ता भी चाहिए। अब पहाड़ों की ढलानों पर बसे मकानों के नीचे नालियों की जगह जमीन काट कर पानी तेजी से नीचे आने लगा, इससे ना केवल आधुनिक कंक्रीट वाले, बल्कि पारंपरिक मकान भी ढहने लगे। यही नहीं ज्यादा पैसा  बनाने के लोभ ने जमीनों पर कब्जे, दरिया के किनारे पर्यटकों के लिए आवास का लालच भी बढ़ाया।

नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि भारतीय हिमालयी क्षेत्र में धार्मिक पर्यटन के साथ आधुनिक पर्यटन भी तेज़ी से बढ़ रहा है। रिपोर्ट में लिखा है हिमालयी क्षेत्र की वहनीय क्षमता को देखते हुए बड़ी संख्या में उमड़ रहे पर्यटक (mass tourism) नीति निर्माताओं और स्थानीय लोगों के लिए गंभीर चिंता का विषय है  बड़ी संख्या में पर्यटक यहां के प्रसिद्ध स्थलों को देखने के लिए आते हैं। इससे यहां की इकॉलजी और इकोसिस्टम से जुड़ी सेवाओं पर गंभीर असर पड़ रहा है। साथ ही स्थानीय सामाजिक ढांचों पर भी। इस तरह के पर्यटन से संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में जल और अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर भी दबाव पड़ रहा है। समय के साथ ट्रैकिंग, पर्वतारोहण और प्रकृति आधारित पर्यटन में इजाफा होगा। इसलिए इनका प्रचार भी ज़िम्मेदारी के साथ करना होगा। 

चारधाम में पर्यटकों के सैलाब पर पर्यावरणविद् रवि चोपड़ा कहते हैं ये तीर्थाटन नहीं है। ये सीधा पर्यटन है। तीर्थयात्री बहुत सादगी से यात्रा करते हैं। एक समय था जब गंगोत्री जैसी जगहों पर कांवड़ियों की संख्या को सीमित किया गया था। केदारनाथ-बद्रीनाथ में यात्रियों की इतनी बड़ी संख्या को मॉनीटर करना चाहिए और इसे सीमित करना चाहिए

 

यहाँ सड़क का इस्तेमाल  सामरिक से अधिक धार्मिक पर्यटन के लिए ज्यादा है और इसके पीछे  एक राजनीती भी है. इतने पर्यटक आने से स्थानीय व्यापार  बढ़ रहा है, आज कई हज़ार लोग  राज्य की विभिन्न परियोजनाओं में रोजगार पा रहे हैं , सो निश्चित ही यह स्थानीय लोगों के लिए सम्रद्धि दिखता है . यह कड़वा सच्चाई है कि धर्म अब देश की राजनीती का  माध्यम बन गया है और इस तरह सुविधापूर्ण सड़कें और चकाचौंध करने वाली जन सुविधाएँ देश में सन्देश देती हैं कि अमुक सरकार ने हिन्दू तीर्थों में काम किया . यह तो कोई जानता नहीं कि इन सुविधाओं को  मुहैया कराने  के लिए किस तरह पर्यावरण को नुक्सान हुआ लेकिन यह  कुछ  दिन के लिए आये तीर्थ यात्री के वोट बेंक बनाने का चारा जरुर होता है .


ख़तरा हिमालय पर 

भारत में हिमालयी क्षेत्र का फैलाव 13 राज्यों  केंद्र शासित प्रदेशों (अर्थात् जम्मू और कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा, असम और पश्चिम बंगाल) में है, जो लगभग 2500 किलोमीटरभारत के मुकुट कहे जाने वाले हिमाच्छादित पर्वतमाला की गोदी में कोई पाँच करोड़ लोग  सदियों से रह रहे हैं । चूंकि यह क्षेत्र अधिकांश भारत के लिए पानी उपलब्ध करवाने वाली नदियों का उद्गम है , साथ ही यहाँ के ग्लेशियर  धरती के गरम होने को नियंत्रित करते हैं, सो  जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से यह सबसे अधिक संवेदनशील है । कुछ साल पहले नीति आयोग ने पहाड़ों में पर्यावरण के अनुकूल और प्रभावी लागत पर्यटन के विकास के अध्ययन की योजना बनाई थी । यह काम इंडियन हिमालयन सेंट्रल यूनिवर्सिटी कंसोर्टियम (IHCUC) द्वारा किया जाना था । इस अध्ययन के पाँच प्रमुख बिन्दुओं में पहाड़ से पलायन को रोकने के लिए आजीविका के अवसर, जल संरक्षण और संचयन रणनीतियाँ को भी शामिल किया गया था । ऐसे रिपोर्ट्स आमतौर  पर लाल बस्ते में दहाड़ा करती  हैं और जमीन पर पहाड़ दरक कर कोहराम मचाते रहते हैं .

जून 2022 में गोविंद बल्लभ पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान (जीबीएनआईएचई) द्वारा जारी रिपोर्ट 'एनवायर्नमेंटल एस्सेसमेन्ट ऑफ टूरिज्म इन द इंडियन हिमालयन रीजन' में कड़े शब्दों मे कहा गया था कि हिमालयी क्षेत्र में बढ़ते पर्यटन के चलते हिल स्टेशनों पर दबाव बढ़ रहा है। इसके साथ ही पर्यटन के लिए जिस तरह से इस क्षेत्र में भूमि उपयोग में बदलाव आ रहा है वो अपने आप में एक बड़ी समस्या है। जंगलों का बढ़ता विनाश भी इस क्षेत्र के इकोसिस्टम पर व्यापक असर डाल रहा है। यह  रिपोर्ट नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के आदेश पर पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफ और सीसी) को भेजी गई थी

इस रिपोर्ट में हिमाचल प्रदेश के लद्दाख में संरक्षित क्षेत्रों जैसे हेमिस नेशनल पार्क, चांगथांग कोल्ड डेजर्ट सैंक्चुअरी और काराकोरम सैंक्चुअरी पर संकट जताया गया था । साथ ही पर्यटकों के वाहनों और इसके लिए बन रही सड़कों के कारण वन्यजीवों के  आवास नष्ट होने और जैवविविधता पर विपरीत असर की बात भी कही गई थी॰

मनाली, हिमाचल प्रदेश में किए एक अध्ययन से पता चला है कि 1989 में वहां जो 4.7 फीसदी निर्मित क्षेत्र था वो 2012 में बढ़कर 15.7 फीसदी हो गया है। आज यह आंकड़ा 25 फीसदी पार है । इसी तरह 1980 से 2023  के बीच वहां पर्यटकों की संख्या में 5600  फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। जिसका सीधा असर इस क्षेत्र के इकोसिस्टम पर पड़ रहा है। इतने लोगों के लिए होटलों की संख्या भी बढ़ी तो पानी की मांग और  गंदे पानी के निस्तार का वजन भी बढ़ा, आज मनाली भी धँसने की कगार पर है- कारण वही जोशीमठ वाला – धरती पर अत्यधिक द्वाब और पानी के कारण भूगर्भ  में कटाव ।

इस रिपोर्ट में लद्दाख की तरह ही कश्मीर क्षेत्र में भी पर्यटकों की आवाजाही, वायु गुणवत्ता और ठोस कचरे के प्रबंधन पर चिंता जताते हुये अमरनाथ और माता वैष्णो देवी की यात्रा करने वालों की बढ़ती संख्या के मद्देनजर कूड़ा प्रबंधन पर ध्यान देने की बात काही गई थी । रिपोर्ट ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि जहां इस क्षेत्र में स्थानीय लोगों के स्थाई रोजगार को ध्यान में रखना जरुरी है, वहीं बेलगाम पर्यटन के चलते इस क्षेत्र में पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र को होते नुकसान को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

 

हिमाचल प्रदेश  को सबसे पसंदीदा पर्यटन स्थल माना जाता है  और यहाँ  इसके लिए जाम कर सड़कें, होटल बनाए जा रहे हैं, साथ ही झरनों के भाव के इस्तेमाल से बिजली बनानी की कई बड़ी परियोजनाएं भी यहाँ अब संकट का कारक  बन रही हैं ।

यहाँ भूस्खलन की दृष्टि से किन्नौर जिला को सबसे खतरनाक माना जाता है। बीते साल भी किन्नौर के बटसेरी और न्यूगलसरी में दो हादसों में ही 38 से ज्यादा लोगों की जान चली गई थी। इसके बाद किन्नौर जिला में भूस्खलन को लेकर भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण के विशेषज्ञों के साथ साथ आई आई टी , मंडी व रुड़की के विशेषज्ञों ने अध्ययन किया है। राज्य  आपदा प्रबंधन प्राधिकरण  ने विभिन्न एजेंसियों के माध्यम से सर्वेक्षण कर भूस्खलन संभावित 675 स्थल चिन्हित किए है। इस साल बरसात में इस छोटे से राज्य में 131 करोड़ की सरकारी व गैर सरकारी संपत्ति तबाह हुई जिसमें सबसे ज्यादा सड़क और पुलिया थीं ।

 राज्य का गौरव कहे जाने वाली शिमला की खिलौना रेल भी 4 अगस्त  2022 को बाल बाल बची थी । सोलन जिले के कुमरहट्टी के पास पट्टा मोड में भारी बारिश के कारण भूस्खल में कालका-शिमला यूनेस्को विश्व धरोहर ट्रैक कुछ घंटों के लिए अवरुद्ध हो गया। टॉय ट्रेन में यात्रा करने वाले यात्री बाल-बाल बच गए, क्योंकि भूस्खलन के कारण रेल की पटरी पर भारी पत्थर गिर गए थे। 

जानना जरूरी है कि हिमाचल प्रदेश में जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव के चलते बादलों का फटने, अत्यधिक बारिश, बाढ़ और भूस्खलन के कारण प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं । उत्तराखंड में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल यूनिवर्सिटी में भूविज्ञान विभाग के वाईपी सुंदरियाल के अनुसार , "उच्च हिमालयी क्षेत्र जलवायु और पारिस्थितिक रूप से अत्यधिक संवेदनशील हैं। ऐसे में इन क्षेत्रों में मेगा हाइड्रो-प्रोजेक्ट्स के निर्माण से बचा जाना चाहिए या फिर उनकी क्षमता कम होनी चाहिए।" उन्होंने कहा, "हिमालयी क्षेत्रों में सड़कों का निर्माण भी वैज्ञानिक तकनीकों से किया जाना चाहिए। इनमें अच्छा ढलान, रिटेनिंग वॉल और रॉक बोल्टिंग प्रमुख है, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है।"

एक बात और समझना होगा कि "वर्तमान में बारिश का तरीका बदल रहा है और गर्मियों में तापमान सामान्य से कहीं अधिक पर पहुंच रहा है। ऐसे में मेगा जलविद्युत परियोजनाओं को बढ़ावा देने की राज्य की नीति को एक नाजुक और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील क्षेत्र में लागू किया जा रहा है।सतलुज बेसिन में 140 से अधिक जलविद्युत परियोजनाएं आवंटित की गई हैं। इससे चमोली और केदारनाथ जैसी आपदाएं आने की पूरी संभावना हैं। इन परियोजनाओं को रोकना होगा।

हालांकि उत्तर पूर्व के हिमालय के आँचल में बीएसई राज्यों में अभी परयत्न का अतिरेक हुआ नहीं हैं _ एक तो ये स्थान बहुत दूर हैं, दूसरा यहाँ धार्मिक  स्थान ऐसे नहीं हैं जिसके कारण भीड़ जोड़ी जाये । फिर भी यहाँ अंधाधुंध खनन  ने  हिमालय को प्रभावित किया है, कभी दुनिया में सबसे ज्यादा बरसात के लिए मशहूर चेरापुंजी में अब जल संकट रहता है । यहाँ सबसे बड़ा खतरा बाढ़ और  भूकंप को ले कर है, बाढ़ तो हर साल जाम आकर तबाही मचा रही है । केंद्रीय जल आयोग के निदेशक शरत चंद्र  के मुताबिक हिमालयी क्षेत्र में शहरीकरण से मिट्टी की एकजुटता कम हुई है। इसका परिणाम बाढ़ के रूप में देखने को मिल रहा है। उन्होंने कहा हिमालयी प्रणाली बहुत नाजुक हैं, जिससे वह जल्द ही अस्थिर हो जाती हैं। वर्तमान में बारिश भी पहले की तुलना में अधिक हो रही है। इससे अचानक बाढ़ और भूस्खलन की घटनाओं में वृद्धि हुई है।यदि भूस्खलन नदी के पास होता है तो बाढ़ आती है।"

चाहे उत्तराखंड  हो या पूर्वोत्तर राज्य, यह समझना होगा कि हिमालयी क्षेत्रों में भूस्खलन से बचने के लिए बांधों और सुरंगों के निर्माण का रोकना होगा। भारत सरकार के जलवायु परिवर्तन से संबंधित सहकारी पैनल (IPCC) ने चेतावनी दी है कि 21वीं सदी में ग्लेशियर कम होंगे और हिमरेखा की ऊंचाई बढ़ेगी। इसी तरह उत्सर्जन में वृद्धि के साथ ग्लेशियर के द्रव्यमान में और गिरावट आएगी। यह एक बड़ा खतरा है।

 

 

 

 
 

 

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