“सिंघाड़ी” के लुप्त होने से नष्ट हुआ जल तंत्र
पंकज चतुर्वेदी
प्यास और पलायन
से गहरा नाता रखने वाले बुंदेलखंड के प्रमुख शहर छतरपुर की आबादी तीन लाख को पार कर रही है लेकिन
यहाँ का जल संकट भी उतना ही गहरा रहा है .
यहाँ कुछ –कुछ दूरी पर शानदार बुंदेला शासन के तालाब हैं लेकिन यहां के पुरखों ने हर घर पानी का जो तंत्र विकसित किया था वह आधुनिकता की
आंधी में ऐसा गुम हुआ कि प्यास ने स्थाई डेरा डाल लिया । महाराजा छत्रसाल ने जब
छतरपुर शहर को बसाया था तो उन्होंने आने
वाले सौ साल के अफरात पानी के लिए जल–तंत्र विकसित किया था । इस तंत्र में बरसात
के पानी के नाले, तालाब, नदी और कुएं थे । ये सभी एकदूसरे से जुड़े
और निर्भर थे । यहां का ढीमर समाज इन जल निधियों
की देखभाल करता और बदले में यहां से मछली, सिंघाडे पर उसका हक होता ।
यह तो पहाड़ी इलाका है–नदी के उतार चढाव की गुंजाईश कम ही थी, फिर भी महाराज छत्रसाल ने तीन बरसाती नाले देखें– गठेवरा नाला, सटई रोड के नाला और चंदरपुरा गांव के बरसाती नाला । इन तीनों का पानी अलग–अलग रास्तों से डेरा पहाड़ी पर आता और यह जल–धारा एक नदी बन जाती । चूंकि इसमें खूब सिंघाड़े होते तो लोगों ने इसका नाम सिंघाड़ी नदी रख दिया । छतरपुर कभी वेनिस तरह था– हर तरफ तालाब और उसके किनारे बस्तियां और इन तालाबों से पानी का लेन–देन चलता था -सिंघाड़ी नदी का । बरसात की हर बूंद तीन नालों में आती और फिर एकाकार हो कर सिंघाडी नदी के रूप में प्रवाहित होती । इस नदी से तालाब जुड़े हुए थे, जो एक तो पानी को बहता हुआ निर्मल रखते, दूसरा यदि तालाब भर जाए तो उसका पानी नदी के जरिये से दूसरे तालाबों में बह जाता । सिंघाड़ी नदी से शहर का संकट मोचन तालाब और ग्वाल मगरा तालाब भी भरता था । इन तालाबों से प्रताप सागर और किशोर सागर तथा रानी तलैया भी नालों और ओनों (तालाब में ज्यादा जल होने पर जिस रास्ते से बाहर बहता है, उसे ओना कहते हैं ।)से होकर जुड़े थे ।
अभी दो दशक पहले
तक संकट मोचन पहाड़िया के पास सिंघाड़ी नदी चोड़े पाट के साथ सालभर बहती थी । उसके किनारे
घने जंगल थे , जिनमे हिरन, खरगोश , अजगर , तेंदुआ लोमड़ी जैसे पर्याप्त जानवर भी थे . नदी किनारे श्मसान घाट हुआ करता था . कई खेत इससे सींचे जाते और कुछ लोग ईंट के भट्टे लगाते थे ।
बीते दो दशक में ही नदी पर घाट, पुलिया और सौन्द्रयीकरण के नाम पर जम कर सीमेंट तो लगाया गया लेकिन उसमें पानी की आवक की रास्ते बंद कर दिए गए. आज नदी के नाम पर नाला रह गया है । इसकी धारा पूरी तरह सूख गई है । जहाँ कभी पानी था, अब वहां बालू-रेत उत्खनन वालों ने बहाव मार्ग को उबड़-खाबड़ और दलदली बना दिया . छतरपुर शहरी सीमा में एक तो जगह जगह जमीन के लोभ में जो कब्जे हुए उससे नदी का तालाब से जोड़-घटाव की रास्तों पर विराम लग गया , फिर संकट मोचन पहाड़िया पर अब हरियाली की जगह कच्चे-पक्के मकान दिखने लगे , कभी बरसात की हर बूंद इस पाहड पर रूकती थी और धीरे-धीरे रिस कर नदी को पोषित करती थी . आज यहाँ बन गए हजारों मकानों का अमल-मूत्र और गंदा पानी सीधे सिंघाड़ी नदी में गिर कर उसे नाला बना रहा है .
विदित हो जब यह नदी अपने पूरे स्वरूप में थी तो छतरपुर शहर से निकल कर कोई 22 किलोमीटर का सफर तय कर हमा, पिड़पा, कलानी गांव होते हुए उर्मिल नदी में मिल जाती थी । उर्मिल भी यमुना तंत्र की नदी है । नदी जिंदा थी तो शहर के सभी तालाब, कुएं भी लबालब रहते थे । दो दशक पहले तक यह नदी 12 महीने कल कल बहती रहती थी । इसमें पानी रहता था । शहर के सभी तालाबों को भरने में कभी सिंघाड़ी नदी की बहुत बड़ी भूमिका होती थी. तालाबों के कारण कुओं में अच्छा पानी रहता था , लेकिन आज वह खुद अपना ही असतित्व से जूझ रही है ।
नदी की मुख्य
धारा के मार्ग में अतिक्रमण होता जा रहा है । नदी के कछार ही नहीं प्रवाह मार्ग
में ही लोगों ने मकान बना लिए हैं । कई जगह धारा को तोड़ दिया गया है । पूरे नदी
में कहीं भी एक बूंद पानी नहीं है । नदी के मार्ग में जो छोटे–छोटे रिपटा ओर बंधान
बने थे वे भी खत्म हो गए हैं । पूरी नदी एक पगडंडी और ऊबड़–खाबड़ मैदान के रूप में
तब्दील होकर रह गई है । जबकि दो दशक पहले तक इस नदी में हर समय पानी रहता था । नदी
के घाट पर शहर के कई लोग हर दिन बड़ी संख्या में नहाने जाते थे । यहां पर पहुंचकर
लोग योग–व्यायाम करते थे, कुश्ती लडऩे के
लिए यहां पर अखाड़ा भी था । भूतेश्वर भगवान का मंदिर भी यहां प्राचीन समय से है ।
यह पूरा क्षेत्र हरे–भरे पेड़–पौधों और प्राकृतिक सौंदर्य से आच्छादित था, लेकिन समय के साथ–साथ यहां का नैसर्गिक सौंदर्य
नष्ट होता चला गया । नदी अब त्रासदी बन गई
है । आज नदी के आसपास रहने वाले लोग मानसून के दिनों में भी एक से दो किलोमीटर दूर
से सार्वजानिक हैण्ड पंप से पानी
लाने को मजबूर है, जब-तब जल संकट का हल्ला होता है तो या तो भूजल उलीचने के लिए पम्प रोप जाते है या फिर मुहल्लों में पाइप
बिछाए जाने लगते है, लेकिन इसका जवाब किसी के पास नहीं होता कि जमीन की कोख या पाइप में पानी कहाँ से आएगा ?
कहानी केवल
सिंघाड़ी नदी या बुंदेलखंड की नहीं है , समूचे भारत में छोटी नदियों को निर्ममता से
मार दिया गया , कहा जाता है कि देश में
कोई ऐसे बाढ़ हज़ार छोटी नदियाँ हैं जिनका रिकार्ड सरकार के पास है नहीं लेकिन उनकी
जमीन पर कब्जे, बालू उत्खनन और निस्तार के बहाव के लिए वे नाला जरुर हैं .यह हाल
प्रयागराज में संगम में मिलने वाली मनासईता और ससुर खदेरी नदी का भी है और बनारस के असी नदी
का भी . अरावली से गुरुग्राम होते हुये
नजफगढ़ आने वाली साहबी नदी हो या फिर उरई शहर में नूर नाला बन गई नून नदी. बिहार-झारखण्ड में तो हर साल एकद्र्ज छोटी नदिय्ना गायब ही हो
जाती हैं . यह समझना होगा कि जहां छोटी नदी लुप्त हुई, वहीं जल-तंत्र नष्ट हुआ और जल संकट ने लंगर डाल लिया .
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