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मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

The image of the country gets tarnished by turning the festival into mischief

 

पर्व को उत्पात में बदलने से  धूमिल होती देश  की छबि
पंकज चतुर्वेदी
 

 

कहते हैं कि भारत  पर्व-त्योहार- उत्सव को देश  है। हर दिन किसी ना किसी धर्म-पंथ-विष्वास या लोक के दर्जनों पर्व होते हैं ।  धर्म-आस्था कभी शक्ति प्रदर्शन  या  अन्य मान्यता से बेहतर बताने का माध्यम रहा नहीं। इस बार  रामनवमी पर देया के विभिन्न हिस्सों में जिस तरह बवाल हुए, वह दुनिया में भारत की  उत्सवधर्मी छबि पर विपरीत असर डालते हैं। दुर्भाग्य  है कि सोशल मीडिया टुकड़ों में  वीडिया क्लीप से भरा हुआ है और हर पक्ष केवल दूसरे का दोष  बता कर सांप्रदायिकता को गहरा कर रहा है। य तो तय है कि जहां भी दंगे हुए, वहां कुछ राजनेता थे और हर जगह प्रषासन निकम्मा साबित हुआ। ना खुफिया ुपलिस ने काम कयिा , ना ही सुरक्षा में तैनात बलों ने तत्परता दिखाई। कहना गलत नहीं होगा कि बहुत सी जगह पुलिस बल खुद  सांप्रदायिक हो गए है और वे  कई  जगह दंगाईयों को सहयोग करते दिखे। यह फिलहाल  बिहार-झारखंड या बंगाल कें दंगो में ही नही, बल्कि तीन साल पहले के दिल्ली दंगों में भी दिखा था।



जरा गौर करें  रामनवमी की घटनाएं महज 24 घंटों के भीतर की हैं, ये घटनाएं अधिकांश उन इलाकों में हुई जहां सांप्रदायिक तनाव की घटनांए या तो बहुत कम होती हैं या फिर कई दशकों से वहां ऐसा हुआ नहीं था, ये सभी घटनाएं ऐसी हरकतों से शुरू हुई हैं जिनका उल्लेख आजादी के ठीक पहले सा उसके बाद सन 1955 तक तक मिलता रहा है । एक वर्ग जुलुस निकालता है, हथियार लहराते हुए  तेज आवाज़ में संगीत और मस्जिद आते ही उसके सामने अतिरिक्त शौर प्रदर्शन . फिर कहीं से पत्थर चलना और  फिर आगजनी . न पुलिस और न  ही समाज ने जुलुस निकालने के रास्तों पर संवेदनशीलता दिखाई, न ही गाने या संगीत या नारों पर प्रशासन ने समय रहते  पाबंदी लगाईं, न हे ऐसे अवसरों से पहले जुलुस मार्ग के घरों पर  पत्थर आदि की चेकिंग का विचार आया. तनिक ध्यान से देखें तो  हाथ में कतार या तलवार लहरा रहे या पत्थर उछल रहे लोग निम्न आर्थिक स्थित से हैं, बहुत से नशे में भी हैं और उनके लिए धर्म एक अधिनायकवादी व्यवस्था है जिसमे अन्य किसी को कुचल देना है . क्या यह असहिष्णुता है, धार्मिकता है, कट्रटरता है या आपस में कम होता भरोसा या फिर कोई बहुत बडी साजिश ?  यह बेहद गंभीर मसला है और इसका विपरीत असर विकास पर भी पडता है। आज जब आटे-दाल के भाव लोगों का दिमाग घुमाए हुए हैं, बेराजगारों की कतार बढती जा रही है,  देश  का किसान असमय बरसात के कारण अपनी 30 से 35 फीसदी फसल खराब होने से चिंतित है, ऐसे में धर्म-जाति, भोजन, वस्त्र, आस्था, पूजा पद्धति के नाम पर इंसान का इंसाने से भिड़ जाना व उसका खून कर देना, उस आईएसआईएस की हरकतों से कम नहीं है जो दुनिया में आतंक का राज चाहता है।



विडंबना है कि प्रशासन के लिए यह महज कानून व्यवस्था का मसला होता है और नेताओं के लिए बयानबाजी व कीचड उछालने का जरिया, जबकि असल में यह नासूर बनती सामाजिक समस्या है जो देश  की प्रगति के पैर में बेड़ियों की तरह है। अपने आसपास सतर्क भी रहें कि कहीं कोई ऐसी कुत्सित हरकत तो नहीं कर रहा है जिस व्यापार, धंधे, प्रापर्टी, मानव संसाधन और सबसे बड़ी बात भरोसे का निर्माण करने में इंसान व मुल्क को दश कों लगते हैं, उसे बर्बाद करने में पल भी लगता। महज कोई क्षणिक आक्रोश , विद्वेश  या साजिश  की आग में समूची मानवता और रिश्ते  झुलस जाते हैं और पीछे रह जाती हैं संदेह, बदले और सियासती दांव पेंच की इबारतें।



 

इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि भारत में हिंदू और मुसलमान गत् 1200 वर्षों से साथ-साथ रह रहे हैं। डेढ़ सदी से अधिक समय तक तो पूरे देश पर मुगल यानी मुसलमान शासक रहे। इस बात को समझना जरूरी है कि 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों को यह पता चल गया था कि इस मुल्क में हिंदू और मुसलमानों के आपसी ताल्लुक बहुत गहरे हैं और इन दोनों के साथ रहते उनका सत्ता में बना रहना मुश्किल है। एक साजिश के तहत 1857 के विद्रोह के बाद मुसलमानों को सताया गया, अकेले दिल्ली में ही 27 हजार मुसलमानों का कत्लेआम हुआ। अंग्रेज हुक्मरान ने दिखाया कि हिंदू उनके करीब है।। लेकिन जब 1870 के बद हिंदुओं ने विद्रोह के स्वर मुखर किए तो अंग्रेज मुसलमानों को गले लगाने लगे। यही फूट डालो और राज करो की नीति इतिहास लेखन, अफवाह फैलाने में काम आती रही


यह तथ्य भी गौरतलब है कि 1200 साल की सहयात्रा में दंगों का अतीत तो पुराना है नहीं। कहा जाता है कि अहमदाबाद में सन् 1714, 1715, 1716 और 1750 में हिंदू मुसलमानों के बीच झगड़े हुए थे। उसके बाद 1923-26 के बीच कुछ जगहों पर मामूली तनाव हुए । सन् 1931 में कानपुर का दंगा भयानक था, जिसमें गणेश शंकर विद्यार्थी की जान चली गई थी। दंगें क्यों होते हैं? इस विश य पर प्रो. विपिन चंद्रा, असगर अली इंजीनियर से ले कर सरकार द्वारा बैठाए गए 100 से ज्यादा जांच आयोगों की रिपोर्ट तक साक्षी है कि झगड़े ना तो हिंदुत्व के थे ना ही सुन्नत के। कहीं जमीनों पर कब्जे की गाथा है तो कहीं वोट बैंक तो कहीं नाजायज संबंध तो कहीं गैरकानूनी धंधे।



सन् 1931 में कानपुर में हुए दंगों के बाद कांग्रेस ने छह सदस्यों का एक जांच दल गठित किया था। सन् 1933 में जब इस जांच दल की रिपोर्ट सार्वजनिक की जानी थी तो तत्कालीन ब्रितानी सरकार ने उस पर पाबंदी लगा दी थी। उस रिपोर्ट में बताया गया था कि सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक विविधताओं के बावजूद सदियों से ये दोनों समाज दुर्लभ सांस्कृतिक संयोग प्रस्तुत करते आए हैं। उस रिपोर्ट में दोनों संप्रदायों के बीच तनाव को जड़ से समाप्त करने के उपायों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया था -धार्मिक-शैक्षिक, राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक। उस समय तो अंग्रेजी सरकार ने अपनी कुर्सी हिलती देख इस रिपोर्ट पर पाबंदी लगाई थी। आज कतिपय राजनेता अपनी सियासती दांवपेंच को साधने के लिए उस प्रासंगिक रिपोर्ट को भुला चुके हैं।

मुसलमान ना तो नौकरियों में है ना ही औद्योगिक घरानों में, हां हस्तकला में उनका दबदबा जरूर है। लेकिन विडंबना है कि यह हुनरमंद अधिकांश जगह मजदूर ही हैं। यदि देश में दंगों को देखें तो पाएंगे कि प्रत्येक फसाद मुसलमानों के मुंह का निवाला छीनने वाला रहा है। भागलपुर में बुनकर, भिवंडी में पावरलूम, जबलपुर में बीडी, मुरादाबाद में पीतल, अलीगढ़ में ताले, मेरठ में हथकरघा..., जहां कहीं दंगे हुए मजदूरों के घर जलें, उनमे कुटीर उद्योग चौपट हुए। एस. गोपाल की पुस्तक ‘‘द एनोटोमी ऑफ द कन्फ्रंटेशन’’ में अमिया बागछी का लेखन इस कटु सत्य को उजागर करता है कि सांप्रदायिक दंगे मुसलमानों की एक बड़ी तादाद को उन मामूली धंधों से भी उजाड़ रहे हैं जो उनके जीवनयापन का एकमात्रा सहारा है। (प्रिडेटरी कर्मशलाईजेशन एंड कम्यूनिज्म इन इंडिया)। गुजरात में दंगों के दौरान मुसलमानों की दुकानों को आग लगाना, उनका आर्थिक बहिष्कार आदि गवाह है कि दंगे मुसलमानों की आर्थिक गिरावट का सबसे कारण है। यह जान लें कि उ.प्र. में मुसलमानों के पास सबसे ज्यादा व सबसे उपजाऊ जमीन  और दुधारू मवेषी पष्चिमी उत्तर प्रदेश  में ही हैं।

एक बारगी लगता हो कि दंगे महज किसी कौम या फिरके को नुकसान पहुंचाते हैं, असल में इससे नुकसान पूरे देश  के विकास,विश्वास  और व्यवसाय को होता है। आज जरूरत इस बात की है कि दंगों के असली कारण, साजिश  को सामने लाया जाए तथा मैदान में लड़ने वालों की जगह उन लेागों को कानून का कड़ा पाठ पढ़ाया जाए जो घर में बैठ कर अपने निजी स्वार्थ के चलते लोगों को भड़काते हैं व देश  के विकास को पटरी से नीचे लुढकाते हैं। क्या धर्म को सड़क पर शक्ति प्रदर्शन का माध्यम बनाने से रोकने के लये सभी  मत- पंथ को विचार नहीं करना चाहिए ? वैसे भी इस तरह के जुलुस –लेस  सड़क जाम,  आम लोगन के जीवन में व्यवधान और तनाव के कारक बनते जा रहे हैं और दुर्भाग्य है कि अब हर धर्म के लोग  साल में दो चार बार ऐसे जुलुस निकाल ही रहे है .

 

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