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गुरुवार, 7 दिसंबर 2023

silkiyara tunnel incident is beginning

 

सिलक्यारा सुरंग तो शुरुआत है

पंकज चतुर्वेदी



सिल्क्यारा की सुरंग में फंसे 41 श्रमिक तो  भारत के पारंपरिक ज्ञान – रेट मायनिंग की तकनीक और सेना के निर्देशन से बाहर  आ गए , लेकिन समझना होगा कि यह इंसान द्वारा पैदा की गई एक आपदा का महज निदान था ,असलियत तो यह है कि उत्तराखंड के पहाड़ के मिजाज को समझे बगैर वहां खुदाई करना पूरे पहाड़ के अस्तित्व का संकट है . जोशीमठ के धंसने और सैंकड़ों लोगों के निराश्रित होने की त्रासदी अभी हल हो नहीं पाई और पहाड़ पर चौड़ी  सडक बनाने का काम शुरू कर दिया गया . इस बात को  सलीके से छुपाया जा रहा है कि इतने बड़े प्रोजेक्ट का “पर्यावरण प्रभाव आकलन “  हुआ ही नहीं . इस आकलन से बचने के लिए समूची परियोजना को छोटे छोटे टुकड़ों में तोड़ कर दिखा दिया गया . इससे पहले भी उत्तराखंड में विभिन्न परियोजनाओं में चार बार सुरंगें धंस चुकी है. इस बात को क्यों नजरंदाज़ किया जाता है कि  हिमालय जैसे युवा और बढ़ते पहाड़ का भूवैज्ञानिक  सर्वेक्षण  किसी सरकारी एजेंसी से ही नहीं करवाया गया .

जिन पहाड़ों , पेड़ों, नदियों ने पांच हज़ार् साल  से अधिक तक मानवीय सभ्यता, आध्यात्म, धर्म, पर्यावरण को विकसित होते देखा था, वह विकास के  विद्रूप प्रतिमान में बिखर चुके थे . जब जोशीमठ धंस रहा था और आदिशंकराचार्य द्वारा स्थापित  स्थान, मूल्य और संस्कार के उजड़ने से बेखबर तंत्र महज मुआवजे और विस्थापन की योजना बना रहा था ,तभी स्पष्ट हो ज्ञाता कि इस देवधरा पर प्रकृति प्रकोप और गहराएगा . अभी कुछ दशक पहले तक आस्था, विश्वास  और संकल्प के सतह बूढ़े भी इस पहाड़ पर कई कई दिनों का सफ़र कर पैदल चढ़ कर जाया करते थे  और विश्व को भरोसा देते थे कि सनातन का सत्व कायम है . कुछ किलोमीटर मोटर कम चले और और कुछ समय बच जाए इसके लिए पहाड़ के मूल स्वरुप से गंभीर छेड़छाड़ की परिणति है इस तरह सुरंग  का धंसना .

जब दुनिया पर जलवायु परिवर्तन का कहर  सामने दिख रहा है, हिमालय पहाड़ पर, विकास की नई परिभाषा गढ़ने की तत्काल जरूरत महसूस हो  रही है . जान लें यह केवल यमुनोत्री  हाई वे की बात नहीं है , पहाड़ पर जहां जहां सर्पीली सडक पहुँच रही है, पर्यटक का बोझा बढ़ रहा है, पहाड़ों के दरकने-सरकने की घटनाएँ बढ़ रही हैं . यह सर्कार के रिकार्ड में दर्ज है कि उत्तराखंड में जहां अभी कम खुदाई हुई है वहां  भूस्खलन बेहद कम ही हुआ है . उत्तराखंड सरकार के  आपदा प्रबंधन विभाग और  विश्व  बैंक ने सन 2018 में एक अध्ययन करवाया था जिसके अनुसार  छोटे से उत्तराखंड  में 6300 से अधिक स्थान  भूस्खलन ज़ोन के रूप में चिन्हित किये गये  . रिपोर्ट कहती है कि राज्य में चल रही हज़ारों करोड़ की विकास परियोजनाएं पहाड़ों को काट कर या जंगल उजाड़ कर ही बन रही हैं और इसी से  भूस्खलन ज़ोन की संख्या में इजाफा हो रहा है.

दुनिया के सबसे युवा और जिंदा पहाड़ कहलाने वाले हिमालय में हरियाली उजाड़ने की कई परियोजनाएं खतरा बनी हुई हैं. नवंबर -2019 में राज्य की कैबिनेट से स्वीकृत नियमों के मुताबिक कम से कम दस हेक्टेयर में फैली हरियाली को ही जंगल कहा जाएगा. यही नहीं वहां न्यूनतम पेड़ों की सघनता घनत्व 60 प्रतिशत से कम ना हो और जिसमें 75 प्रतिशत स्थानीय वृक्ष प्रजातियां उगी हों. जाहिर है कि जंगल की परिभाषा  में बदलाव का असल इरादा  ऐसे कई इलाकां को जंगल की श्रेणी से हटाना है जो कि कथित विकास के राह में रोड़े बने हुए हैं. उत्तराखंड में बन रही पक्की सड़कों के लिए 356 किलोमीटर के वन क्षेत्र में कथित रूप से 25 हजार पेड़ काट डाले गए. मामला एनजीटी में भी गया लेकिन तब तक पेड़ काटे जा चुके थे. यही नहीं सड़कों का संजाल पर्यावरणीय लिहाज से संवेदनशील उत्तरकाशी की भागीरथी घाटी के से भी गुजर रहा है ..उत्तराखंड के चार प्रमुख धामों को जोड़ने वाली सड़क परियोजना में 15 बड़े पुल, 101 छोटे पुल, 3596 पुलिया, 12 बाइपास सड़कें बन रही  है. इधर ऋषिकेश से कर्णप्रयाग और वहां से जोशीमठ तक रेल मार्ग परियोजना, जोकि नब्बे फ़ीसदी पहाड़ में छेद कर सुरंग से हो कर जायेगी , ने पहाड़ को थर्रा कर रखा  दिया है .यहाँ भी पिछले साल सुरंग धंस चुकी हैं .

सनद रहे हिमालय पहाड़ ना केवल हर साल बढ़ रहा है, बल्कि इसमें भूगर्भीय उठापटक चलती रहती हैं. यहां पेड़ भूमि को बांध कर रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं जो कि कटाव व पहाड़ ढहने से रोकने का एकमात्र उपाय है. हिमालयी भूकंपीय क्षेत्र में भारतीय प्लेट का यूरेशियन प्लेट के साथ टकराव होता है और इसी से प्लेट बाउंड्री पर तनाव ऊर्जा संग्रहित हो जाती है जिससे क्रिस्टल छोटा हो जाता है और चट्टानों का विरुपण होता है. ये ऊर्जा भूकंपों के रूप में कमजोर जोनों एवं फाल्टों के जरिए सामने आती है.  जब पहाड़ पर तोड़फोड़ या धमाके होते हैं, जब उसके प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड होती है तो भूकंप के खतरे तो बढ़ते हैं .

पहाड़ के उजड़ने के कारणों को बारीकी से देखे तो स्पष्ट हो जाता है कि जलवायु परिवर्तन की मार , अंधाधुंध  जल बिजली परियोजनाएं, बेतरतीब सडक निर्माण के साथ साथ  इन हालातों के लिए स्थानीय लोग भी कम दोषी नहीं हैं . चार धाम के पर्यटन से जीवकोपार्जन करने वालों को जब अधिक पैसा कमाने का चस्का लगा और उन्होंने अपनी जीवन शैली ही बदल डाली तो धीरे धीर यह हालात बने . प्रशासन ने घर-घर नल पहुंचा दिए। पहले जिसे जितनी जरूरत होती थी, नदी के पास जाता था और पानी का इस्तेमाल कर लेता था, अब जो घर में टोंटी लगी तो एक गिलास के लिए एक बाल्टी फैलाने का लोभ लग गया। सनद रहे इस इलाके में ठंड के दिनों में औसतन प्रति व्यक्ति 10 लीटर व गरमी में अधिकतम 21 लीटर पानी की जरूरत होती थी। कंक्रीट बढ़ने के साथ यह मांग औसतन 75 लीटर तक हो गई। जब इतना पानी इस्तेमाल होगा तो जाहिर है कि बेकार गए पानी   को बहने के लिए रास्ता भी चाहिए। अब पहाड़ों की ढलानों पर बसे मकानों के नीचे नालियों की जगह जमीन काट कर पानी तेजी से नीचे आने लगा, इससे ना केवल आधुनिक कंक्रीट वाले, बल्कि पारंपरिक मकान भी ढहने लगे। यही नहीं ज्यादा पैसा  बनाने के लोभ ने जमीनों पर कब्जे, दरिया के किनारे पर्यटकों के लिए आवास का लालच भी बढ़ाया।

यहाँ सड़क का इस्तेमाल  सामरिक से अधिक धार्मिक पर्यटन के लिए ज्यादा है और इसके पीछे  एक राजनीती भी है. इतने पर्यटक आने से स्थानीय व्यापार  बढ़ रहा है, आज कई हज़ार लोग  राज्य की विभिन्न परियोजनाओं में रोजगार पा रहे हैं , सो निश्चित ही यह स्थानीय लोगों के लिए सम्रद्धि दिखता है . इस तरह सुविधापूर्ण सड़कें और चकाचौंध करने वाली जन सुविधाएँ देश में सन्देश देती हैं कि अमुक सरकार ने हिन्दू तीर्थों में काम किया . यह तो कोई जानता नहीं कि इन सुविधाओं को  मुहैया कराने  के लिए किस तरह पर्यावरण को नुक्सान. जरूरत है कि उत्तराखंड के  हर हिस्से के  सघन भूगर्भीय आकलन की, ताकि जाना जा सके कि खान मजबूत चट्टान हैं और खान चुने के ढहने वाले पहाड़ . सिल्कियारा बानगी है कि महज 60 मीटर के दायरे में मिटटी या पहाड़ का मिजाज क्या है ? यह आंकने में देश-विदेश के वैज्ञानिक और इंजीनियर असमर्थ रहे हैं और आज भी अलग-अलग प्रयोग कर मात्र 12 मीटर गहराई  का मलवा हटाने कि कोशिशों में दो हफ्ते से अधिक का समय लग गया .

 

 

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