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गुरुवार, 7 दिसंबर 2023

Need of a new United Nations

 

 

                    जरूरत है नए संयुक्त राष्ट्र की

                        


पंकज चतुर्वेदी

 

 

इजराइल पर किये गए हमास के हमले और उसके बाद गाजा पट्टी में खड़े हुए बड़े मानवीय संकट की बीच दुनिया की पहरेदार और मध्यस्थ संस्था संयुक्त राष्ट्र अर्थात यू एन  हताश सी बयान देती रही और दोनों तरफ से निर्दोष मारे जाते रहे . संकट के अस्थाई समाधान के लिए कतर जैसे देश को ही दखल देना पड़ा. युक्रेन और रूस का युद्ध सवा साल से चल रहा है . लोग मर रहे हैं , लगातार बारूद के इस्तेमाल से पर्यावरण प्रभावित हो रहा है . इस्ससे पहले कुछ ऐसे ही हालात हमने अफगानिस्तान में देखे थे . संयुक्त राष्ट्र ब्यान देता रहता है और ताकतवर देश मनमानी अक्र्ते हैं, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में  कुख्यात आतंकियों के विरुद्ध जब जब भारत ने बात की चीन जैसे देश ने माकूल कारवाही में अडंगा लगाया . दुनिया के सामने आज सबसे बड़ा संकट जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग का है . इस विषय पर भी संयुक्त राष्ट्र में विकसित देश अपनी मनमर्जी चलाते हैं .  ऐसे में यह तो दिखने लगा है कि संयुक्त राष्ट्र का वर्तमान स्वरुप  वैश्विक समस्याओं के निराकरण में सक्षम नहीं हैं .


वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने जहां ऐसी समस्याओं में बढ़ौतरी की हैं जो एक-दूसरे पर निर्भर हैं , वहीं गरीबी तथा अमीरी के बीच की दूरियों को भी बढ़ाया है । बाजार दिनों-दिन वैश्विक होता जा रहा है, जबकि बाजार के लोकतांत्रिक, निष्पक्ष और कार्यक्षम संचालन पर निगाह रखने के लिए जिम्मेदार राजनैतिक संस्थाओं की भूमिका उसी दर से कमजोर होती जा रही है । वैश्विक आर्थिक संस्थाएं बाजार और बड़ी कंपनियों के पक्ष में ऐसी नीतियां का तेजी से विस्तार कर रही हैं । जलवायु परिवर्तन, युद्ध, अशांति, आतंकवाद, पर्यावरणीय समस्या, भूख, शरणार्थी समस्याओं में जहां बेतहाशा बढ़ौतरी हुई हैं वहीं, इसके निदान के लिए कोई 78 साल पहले बनी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं या तो असहाय हैं या फिर बेअसर। शांति और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के कमजोर होने व हाशिये पर आ जाने के कारण ही अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, सीरिया सहित दर्जनभर देशों में स्थाई अशांति हो गई है।


अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं मानवता के इतिहास का महत्वपूर्ण पड़ाव रही हैं । लेकिन समय के साथ इन संस्थाओं के कामकाज के तरीकों में कुछ ऐसी कमियां महसूस की गईं, जिनके चलते से संस्थाएं वर्तमान विश्व की जमीनी समस्याओं को सुलझाने में अप्रासंगिक हो गई हैं । अत्एव अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में ऐसे सुधार अत्यावश्वक हो गए हैं, जिससे दुनिया को एक बार फिर से निष्पक्ष, स्वतंत्र, विविधतापूर्ण, स्वीकार्य और शांत बनाए रखने का संकल्प साकार हो सके ।



‘‘लोकतंत्रीकरण’’ अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में सुधारों के लिए मूल मंत्र है । अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की जिम्मेदारी है कि वे विविध लोगों के हितों और पूरी दुनिया के निवासियों की आवश्यकताओं व उम्मीदों को पूरा करने की दिशा में कार्य करें । इसके लिए आवश्यक है कि उत्तर और दक्षिण के देशों के बीच अधिकारों को निष्पक्ष ढंग से व नए सिरे से निर्धारित किया जाए । साथ ही नागरिकों, नागरिक संस्थाओं, प्रशासन के विभिन्न स्तरों आदि की अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं व मंचों पर अधिक से अधिक सहभागिता की संभावनाओं का विस्तार किया जाना होगा ।



पारदर्शिता, जनता के प्रति जवाबदेही, अधिकारों का विकेंद्रीकरण और आम लोगों को मदद की नीतियां ; लोकतंत्रीकरण की इस प्रक्रिया के मूलभूत गुण हो सकते हैं । लेकिन यह समझना जरूरी है कि लोकतंत्रीकरण केवल कामकाज के सवाल पर ही केंद्रित नहीं है । संयुक्त राष्ट्र की आम सभा की बैठकों में केवल देशों के प्रतिनिधियों की ही नहीं, दुनियाभर के आम नागरिकों की सीधी भागीदारी होना आवश्यक है । संयुक्त राष्ट्र को अपनी आम सभा का विस्तार करना होगा, धीरे-धीरे अन्य सभाओं और गोष्ठियों में एकरूपता लानी होगी, ताकि आम नागरिक पूरी व्यवस्था में अधिकार सहित निर्णायक भूमिका निभा सके । आवश्यक प्रस्तावों के मनोनयन तथा अन्य संस्थाओं, निकायों और व्यवस्था के कार्यक्रम तैयार करने वाले विभागों पर प्रभावी नियंत्रण उसके पास हो ।

 

बानगी के तौर पर सबसे पुरानी बहुपक्षीय संस्थाओं में से एक अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन(आईएलओ) को ही लें । व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए इस संस्था के लिए एक विशेष-सभा का गठन किया जा सकता है, जिसमें विभिन्न देशों के विभिन्न विभागों के प्रतिनिधि और सामाजिक संस्थाओं के चर्चित लोगों को शामिल किया जा सकता है ।

     विवादों को रोकने शांति बनाए रखने के लिए अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को अपनी क्षमताओं का विकास करना होगा । इसके लिए आवश्यक है कि मानवीय सुरक्षा की सामूहिक व्यवस्था लागू की जाए । इससे किसी विवाद को सुलझाने के लिए फौजी ताकत के बनिस्पत कानून व पंचायती-निबटारे की प्रवृति को बढ़ावा मिलेगा । शांति और सुरक्षा संबंधी मामलों की जिम्मेदारी निभाने वाले विभागों को सभी पक्षों के विचारों को संतुलित तरीके से सुनना चाहिए । इन विभागों के पास इस तरह के अधिकार होना चाहिए कि वे अपने निर्णय को मानने के लिए सभी पक्षों को बाध्य कर सकें । इस  उद्देश्य की पूर्ति के लिए मौजूदा सुरक्षा परिषद में बदलाव और उसे प्रभावी रूप से संयुक्त राष्ट्र आम-सभा के अंतर्गत करना होगा ।  विश्व के सभी हिस्सों से विभिन्न क्षेत्रों के लोगों का प्रतिनिधित्व आम-सभा में भी होना चाहिए । ‘वीटो’ के इस्तेमाल का अधिकार कुछ मुद्दों तक ही सीमित कर देना चाहिए , हालांकि इस विशेष-अधिकार को समाप्त करने के लिए सतत कदम उठाए जाने चाहिए । बेहद महत्वपूर्ण विषयों पर मतदान को ‘योग्यता-बहुमत’ की प्रक्रिया के अनुसार निर्धारित करना होगा ।

ये बदलाव, सभी तरह के विवादों को प्रभावी तरीके से सुलझाने में सक्षम तो होंगे ही, साथ ही क्षेत्रीय संस्थाओं की मदद से विवादों से बचाव का तंत्र विकसित करने तथा विश्व स्तर की ताकतवर शांति-सेना गठित करने में भी इससे मदद मिलेगी । साथ ही साथ दुनिया में निःशस्त्रीकरण की, विशेषरूप से गैर-पारंपरिक हथियारों के निःशस्त्रीकरण की, शुरूआत भी होगी । हालांकि हमें यह याद रखना होगा कि विश्व के सभी देशों के बीच आपसी विश्वास की भावना स्थापित करना इसके लिए आवश्यक है । 

अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के वैश्विक व्यापक-अर्थशास्त्रीय प्रबंधन क्षमता का विस्तार वित्तीय, आर्थिक, व्यापार, सामाजिक और पर्यावरणीय नीतियों के माध्यम से होना चाहिए । इसमें सभी पक्षों के हितों को, विशेषरूप से गरीबों के हितों का ध्यान रखना होगा ।  विश्व की मुख्य समस्या - गरीबी और असमानता, के समाधान के लिए इन सभी नीतियों का क्रियान्वयन एकीकृत और समन्वित तरीके से किया जाना चाहिए । मानवाधिकारों को प्राथमिकता देनी होगी । आर्थिक नीतियों व सामाजिक अधिकारों तथा पर्यावरणीय मुद्दों के संदर्भित प्रसार हेतु अंतराष्ट्रीय -सभा में क्रमबद्ध प्राथमिकता तय करना अत्यावश्यक है ।

इस तरह के सुधारों के बदौलत विदेशी कर्ज, करों के बढ़ते बोझ, की समस्याओं के स्थाई हल का मार्ग प्रशस्त होगा । इससे सार्वभौमिक कराधान निगम जैसी परिकल्पना का साकार होना और  वैश्विक कर तथा विकास के कार्यों के लिए आधिकारिक रूप से धन की मदद में बढ़ौतरी भी होगी । खासकर जलवायु परिवर्तन कर और उसके उपयोग की प्रक्रिया परिणामोंमुखी बन सकती है .

इन सभी सुधारों और नीतियों के साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सशक्त लोकतांत्रिक व्यवस्था तो अनिवार्य रूप से सशक्त होगी ही ; साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपराध, सार्वजनिक, आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय कानूनों की सुरक्षा के भी उपाय स्वतः हो जाएंगे । इसके लिए हमें कानून सम्मत वैश्विक  को सुनिश्चित करने के लिए आगे आना होगा ; वर्तमान अंतरराष्ट्रीय समझौतों को लागू करने की बाध्यता, मौजूदा अंतरराष्ट्रीय विधिक संस्थाओं को मजूबत बनाने और जिन अन्य क्षेत्रों में ऐसी संस्थाओं की आवश्कता हो, वहां नई संस्थाएं गठित करने के लिए त्वरित व परिणामदायी कदम उठाने होंगे । इन सबसे अधिक आवश्यक है कि सभी संस्थाओं को इन कानूनों के क्रियान्वयन के आवश्यक व अनिवार्य साधन व अधिकार उपलब्ध करवाए जाएं ।

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