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शुक्रवार, 1 दिसंबर 2023

should not This model of development overwhelm the mountain.?

 कही पहाड पर भारी ना पड़ जाए विकास का यह मॉडल

पंकज चतुर्वेदी

 
दिवाली की  रात उत्तराखंड में यमुनोत्री तक के मार्ग को कुछ किलोमीटर कम करने के लिए निर्माणाधीन  सडक की सिल्कियारा  सुरंग में फंसे लोगों के बाहर निकालने में आखिर भारतीय सेना को 18वें दिन सफलता मिल गई।  पहाड़ को सलीके से समझे बगैर उसके साथ  की गई छेड़छाड़ की नादानी का ही परिणाम है कि जिस अमेरिकी मशीन “औगर “ को पराक्रमी कहा  जा रहा था, लक्ष्य से 12 किलोमीटर दूर इस तरह टूटी कि उसे टुकडे-टुकड़े कर निकालना पड़ रहा है . लोगो को सुरक्षित निकालने के लिए जहां भी पहाड़ को छेदा जाता है , वहां मिल रही असफलता बता देती है कि इन्सान के विज्ञानं और तकनीक ज्ञान की तुलना में दुनिया का सबसे युवा पहाड़ हिमालय अभी भी बहुत विशाल है . 
प्रकृति में जिस पहाड़ के निर्माण में हजारों-हजार साल लगते हैं, हमारा समाज उसे उन निर्माणों की सामग्री जुटाने के नाम पर तोड़ देता है जो कि बमुश्किल सौ साल चलते हैं। पहाड़ केवल पत्थर के ढेर नहीं होते, वे इलाके के जंगल, जल और वायु की दशा  और दिशा तय करने के साध्य होते हैं। जहां सरकार पहाड़ के प्रति बेपरवाह है तो पहाड़ की नाराजी भी समय-समय पर सामने आ रही है। यदि धरती पर जीवन के लिए वृक्ष अनिवार्य है तो वृक्ष के लिए पहाड़ का अस्तित्व बेहद जरूरी है। वृक्ष से पानी, पानी से अन्न तथा अन्न से जीवन मिलता है। ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या का जन्म भी जंगल उजाड़ दिए गए पहाड़ों से ही हुआ है। यह विडंबना है कि आम भारतीय के लिए ‘‘पहाड़’’ पर्यटन स्थल है या फिर उसके कस्बे का पहाड़ एक डरावनी सी उपेक्षित संरचना।  विकास के नाम पर पर्वतीय राज्यों में बेहिसाब पर्यटन ने प्रकृति का हिसाब गड़बड़ाया तो गांव-कस्बों में विकास के नाम पर आए वाहनों, के लिए चौड़ी सड़कों के निर्माण के लिए जमीन जुटाने या कंक्रीट उगाहने के लिए पहाड़ को ही निशाना बनाया गया।

 
हिमालय भारतीय उपमहाद्धीप के जल का मुख्य आधार है और यदि नीति आयोग के विज्ञान व प्रोद्योगिकी विभाग द्वारा तीन साल पहले तैयार जल संरक्षण पर रिपोर्ट पर भरोसा करें तो हिमालय से निकलने वाली 60 फीसदी जल धाराओं में दिनों-दिन पानी की मात्रा कम हो रही है। ग्लोबल वार्मिंग या धरती का गरम होना, कार्बन उत्सर्जन, जलवायु परिवर्तन और इसके दुष्परिणाम  धरती के शीतलीकरण का काम कर रहे ग्लेशियरों  पर आ रहे भयंकर संकट व उसके कारण समूची धरती के अस्तित्व के खतरे की बातें अब महज कुछ पर्यावरण-विषेशज्ञों तक सीमित नहीं रह गई हैं। धीरे से  कुछ ऐसे दावों के दूसरे पहलु भी सामने आने लगे कि जल्द ही हिमालय के हिम नद  पिघल जाएंगे, जिसके चलते नदियों में पानी बढ़ेगा और उसके परिणामस्वरूप जहां एक तरफ कई नगर-गांव जल मग्न हो जाएंगे, वहीं धरती के बढ़ते तापमान को थामने वाली छतरी के नष्ट होने से भयानक सूखा, बाढ़ व गरमी पड़ेगी और जाहिर है कि ऐसे हालात में मानव-जीवन पर भी संकट होगा। 


तीन साल पहले  भारत में कोरोना संकट के चलते लागू की गई बंदी में भले ही दफ्तर-बाजार आदि पूरी तरह बंद थे लेकिन 31 विकास परियोजनाओं के लिए 185 एकड़ घने जंगलों को उजाड़ने की अनुमति देने का काम जरूर होता रहा। सात अप्रैल 2020 को राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (एनबीडब्लूएल ) की स्थाई समिति की बैठक वीडियो कांफ्रेस पर आयोजित की गई ढेर सारी आपत्तियों को दरकिनार करते हुए घने जंगलों को उजाड़ने की अनुमति दे दी गई। समिति ने पर्यावरणय दृष्टि से संवेदनशील  2933 एकड़ के भू-उपयोग परिवर्तन के साथ-साथ 10 किलोमीटर संरक्षित क्षेत्र की जमीन को भी कथित विकास के लिए सौंपने पर समिति सहमत दी । इस श्रेणी में प्रमुख प्रस्ताव उत्तराखंड के देहरादून और टिहरीगढवाल जिलों में लखवार बहुउद्देशीय परियोजना (300 मेगावाट) का निर्माण और चालू है। यह परियोजना बिनोग वन्यजीव अभयारण्य की सीमा से 3.10 किमी दूर स्थित है और अभयारण्य के डिफ़ॉल्ट ईएसजेड में गिरती है। परियोजना के लिए 768.155 हेक्टेयर वन भूमि और 105.422 हेक्टेयर निजी भूमि की आवश्यकता होगी। परियोजनाओं को दी गई पर्यावरणीय मंजूरी को पिछले साल नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने निलंबित कर दिया था। इसके बावजूद इस परियोजना पर राष्ट्रीय बोर्ड द्वारा विचार किया जा रहा हे। 


दुनिया के सबसे युवा और जिंदा पहाड़ कहलाने वाले हिमालय  के पर्यावरणीय छेड़छाड़ से उपजी सन 2013 की केदारनाथ त्रासदी को भुला कर उसकी हरियाली उजाड़ने की कई परियोजनाएं उत्तराखंड राज्य के भविश्य  के लिए खतरा बनी हुई हैं। गत नवंबर -2019 में राज्य की कैबिनेट से स्वीकृत नियमों के मुताबिक कम से कम दस हेक्टेयर में फैली हरियाली को ही  जंगल कहा जाएगा। यही नहीं वहां न्यूनतम पेड़ों की सघनता घनत्व 60 प्रतिशत से कम ना हो और जिसमें 75 प्रतिशत स्थानीय वृक्ष प्रजातियां उगी हों। जाहिर है कि जंगल की परिभाशा में बदलाव का असल उद्देष्य ऐसे कई इलाकां को जंगल की श्रेणी से हटाना है जो कि कथित विकास के राह में रोड़े बने हुए हैं। उत्तराखंड में बन रही पक्की सड़कों के लिए 356 किलोमीटर के वन क्षेत्र में कथित रूप से 25 हजार पेड़ काट डाले गए। मामला एनजीटी में भी गया लेकिन तब तक पेड़ काटे जा चुके थे। यही नहीं सड़कों का संजाल पर्यावरणीय लिहाज से संवेदनशील उत्तरकाशी की भागीरथी घाटी के से भी गुजर रहा है ।.उत्तराखंड के चार प्रमुख धामों को जोड़ने वाली सड़क परियोजना में 15 बड़े पुल, 101 छोटे पुल, 3596 पुलिया, 12 बाइपास सड़कें बनाने का काम चल रहा = है। कोई 12 हजार करोड़ रुपए के अलावा ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक रेलमार्ग परियोजना भी स्वीकृति हो चुकी है, जिसमें ना सिर्फ बड़े पैमाने पर जंगल कटेंगे, वन्य जीवन प्रभावित होगा और पहाड़ों को काटकर सुरंगे और पुल निकाले जाएंगें। 


यह बात स्वीकार करना होगा कि पहाड़ के भू वैग्यंकी सर्वेक्षण किये बगैर बन रही परियोजनाओं के लिए हो रहे धमाकों व तोड़ फोड़ से शांत - धीर गंभीर रहने वाले जीवित हिम- पर्वत नाखुश  हैं। जान कर आश्चर्य होगा कि जिस  परियोजना के लिए सिल्कियारा सुरंग बनाई जा रही है , उसके पर्यवार्नीय प्रभाव आकलन की अनिवार्यता से बचने के लिए उसे छोटे छोटे टुकड़ों में तोड़ कर दिखाया गया . 
सनद रहे हिमालय पहाड़ ना केवल हर साल बढ़ रहा है, बल्कि इसमें भूगर्भीय उठापटक चलती रहती हैं। यहां पेड़ भूमि को बांध कर रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं जो कि कटाव व पहाड़ ढहने से रोकने का एकमात्र उपाय है। जानना जरूरी है कि हिमालयी भूकंपीय क्षेत्र में भारतीय प्लेट का यूरेशियन प्लेट के साथ टकराव होता है और इसी से प्लेट बाउंड्री पर तनाव ऊर्जा संग्रहित हो जाती है जिससे क्रस्टल छोटा हो जाता है और चट्टानों का विरुपण होता है। ये ऊर्जा भूकंपों के रूप में कमजोर जोनों एवं फाल्टों के जरिए सामने आती है।  जब पहाड़ पर तोड़फोडत्र या धमाके होते हैं, जब उसके प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाउ होती है तो दिल्ली  तक भूकंप के खतरे तो बढ़ते ही हैं , यमुना में कम पानी का संकट भी खड़ा होता है।  अधिक सुरंग या  अविरल धारा को रोकने से पहाड़ अपने नैसर्गिक स्वरूप में रह नहीं पाता और उसके दूरगामी परिणाम विभिन्न प्राकृतिक आपदा के रूप में सामने  आ रहे हैं।



उम्मीद के मुताबिक सुरंग में फंसे 41 लोग भारतीय सेना की मेहनत और योजना के चलते सुरक्षित बाहर आ गए, लेकिन इस घटना ने यह स्पष्ट कर दिया है कि हमें अभी देश के  “जल-प्राण” कहलाने वाले हिमालय  के बारे में सतत अध्ययन और नियमित आकलन की बेहद जरूरत है। यह विचार करने की जरूरत है कि राज्य में  आस्था के केन्द्रों को कितना पर्यटन की मौज मस्ती में बदला जाए और यहाँ पर्यटन को किस हद तक व किस शर्त पर बढ़ावा दिया जाए। 


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