My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

सोमवार, 8 जनवरी 2024

Exam pressure has taken away the joy of learning.

 

सीखने के आनंद को समाप्त करता परीक्षा का दवाब

पंकज चतुर्वेदी



 

अभी कड़ाके की सर्दी शुरू हुई है और सी बी एस ई बोर्ड की इस घोषण ने देशभर के किशोरों में गर्मी और घबराहट ला दी कि 15 फरवरी से सीबीएसई के 10वीं औ 12वी के बोर्ड इम्तेहान शुरू होंगे। खुद को बेहतर साबित करने के लिए इन परीक्षाओं में अव्वल नंबर लाने का भ्रम इस तरह बच्चों व उससे ज्यादा उनके पालकों पर लाद दिया गया है कि अब ये परीक्षा नहीं, गला-काट युद्ध सा हो गया हैं । 


उधर कई हेल्प लाइन शुरू हो गई हैं कि yदी बच्चे को तनाव हो तो संपर्क करें , जरा सोचें कि बच्चों के बचपन, शारीरीक और मानसिक स्वास्थ्य की कीमत पर एक बढ़िया नंबरों का सपना देश के ज्ञान- संसार पर किस तरह भारी पड़ रहा है। कैसी विडंबना है कि डाक्टर-इंजीनियर या ऐसे ही सपनों को साकार करने के लिए लालायित कक्षा दस के बच्चे , जो बीते दस साल से स्कूल जा रहे बच्चे और उनके द्वारा वहां बिताया समय और बांची गई पुस्तकें उसको इतनी सी असफलता को स्वीकार करने और उसका सामना करने का साहस नहीं सिखा पाते हैं। उसमें अपने परिवार , शिक्षक व समाज के प्रति भरोसा नहीं पैदा हो पाता कि महज एक इम्तेहान के नतीजे के अच्छे नहीं  होने से वे लेाग उसे स्वीकार करेंगे, अपनों की तरह। उसे ढांढस बंधाएंगे व आगे की तैयारी के लिए साथ देंगे। 


परीक्षा देने जा रहे बच्चे खुद के याद करने से ज्यादा इस बात से ज्यादा चिंतित दिखते हैं कि उनसे बेहतर करने की संभावना वाले बच्चें ने ऐसा क्या रट लिया है जो उसे नहीं आता। असल में प्रतिस्पर्धा के असली मायने सिखाने में पूरी शिक्षा प्रणाली असफल ही रही है। मैं अपनी क्षमता के अनुरूप सबसे बेहतर करूं यही स्वस्थ्य प्रतिस्पर्धा का मूल मंत्र होता है
, लेकिन आज की प्रणाली दूसरों से तुलना में अपनी क्षमता आंकने का पाठ पढ़ाती है।



हालांकि नई शिक्षा नीति को आए तीन साल हो गए हैं लेकिन अभी तक जमीन पर बच्चे ना तो कुछ नया सीख रहे हैं और ना ही जो पढ रहे हैं उसका आनंद ले पा रहे हैं-  बस एक ही धुन है या दवाब है कि परीक्षा में जैसे-तैसे अव्वल या बढ़िया नंबर आ जाएं। कई बच्चों का खाना-पीना छूट गया है । सन 2020 की शिक्षा नीति में भी कहा गया था कि अब बच्चों को परीक्षा के भूत से मुक्ति मिल जाएगी । अब ऐसी नीतियां व पुस्तकें बन गई हैं जिन्हें बच्चे मजे-मजे पढ़ेंगे । 10वीं के बच्चों को अंक नहीं ग्रेड देने का काम कई साल से चल रहा है लेकिन इससे भी बच्चों पर दवाब में कोई कमी नहीं आई है। यह विचारणीय है कि जो शिक्षा बारह साल में बच्चों को अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना ना सिखा सके, जो विषम परिस्थिति में अपना संतुलन बनाना ना सिखा सके, वह कितनी प्रासंगिक व व्यावहारिक है ?


बारहवीं बोर्ड के परीक्षार्थी बेहतर स्थानों पर प्रवेश के लिए चिंतित हैं तो दसवी के बच्चे अपने पसंदीदा विषय  पाने के दवाब में । एक तरफ स्कूलों को अपने नाम की प्रतिष्ठा की चिंता है तो दूसरी ओर हैं मां-बाप के सपने । बचपन, शिक्षा, सीखना सब कुछ इम्तेहान के सामने कहीं गौण हो गया है । रह गई हैं तो केवल नंबरों की दौड़, जिसमें धन, धर्म , रीर, समाज सब कुछ दांव पर लग गया है ।  बारहवी के बच्चों पर दवाब है—एक तो बोर्ड में अव्वल आना , फिर  अलग-अलग  कालेज में प्रवेश की परीक्षाओं में मुकाम पाना


क्या किसी बच्चे की योग्यता, क्षमता और बुद्धिमता का तकाजा महज अंकों का प्रतिशत ही है ? वह भी उस परीक्षा प्रणाली में , जिसकी स्वयं की योग्यता संदेहों से घिरी हुई है । सीबीएसई की कक्षा 10 में पिछले साल दिल्ली में हिंदी में बहुत से बच्चों के कम अंक रहे । जबकि हिंदी के मूुल्यांकन की प्रणाली को गंभीरता से देखंे तो वह बच्चों के साथ अन्याय ही है । कोई बच्चा ‘‘हैं’’ जैसे षब्दो ंमें बिंदी लगाने की गलती करता है, किसी केा छोटी व बड़ी मात्रा की दिक्कत है । कोई बच्चा ‘स’ , ‘ष’ और ‘श’ में भेद नहीं कर पाता है । स्पश्ट है कि यह बच्चे की महज एक गलती है, लेकिन मूल्यांकन के समय बच्चे ने जितनी बार एक ही गलती को किया है, उतनी ही बार उसके नंबर काट लिए गए । यानी मूल्यांकन का आधार बच्चों की योग्यता ना हो कर उसकी कमजोरी है । यह सरासर नकारात्मक सोच है, जिसके चलते बच्चों में आत्महत्या, पर्चे बेचने-खरीदने की प्रवृति, नकल व झूठ का सहारा लेना जैसी बुरी आदतें विकसित हो रही हैं । शिक्षा का मुख्य उद्देश्य इस नंबर- दौड़ में गुम हो कर रह गया है ।


छोटी कक्षाओं में सीखने की प्रक्रिया के लगातार नीरस होते जाने व बच्चों पर पढ़ाई के बढ़ते बोझ को कम करने के इरादे से मार्च 1992 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने देश के आठ शिक्षाविदों की एक समिति बनाई थी, जिसकी अगुआई प्रो. यशपाल कर रहे थे । समिति ने देशभर की कई संस्थाओं व लोगों से संपर्क किया व जुलाई 1993 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी । उसमें साफ लिखा गया था कि बच्चों के लिए स्कूली बस्ते के बोझ से अधिक बुरा है ना समझ पाने का बोझ । सरकार ने सिफारिशों को स्वीकार भी कर लिया और एकबारगी लगा कि उन्हें लागू करने के लिए भी कदम उठाए जा रहे हैं । फिर देश की राजनीति में सरकारें बदलती रहीं और  हर सरकार अपनी विचारधारा जैसी किताबों के लिए ही चिंतित रही। बच्चों की नीरस सीखने की प्रक्रिया पर रिपोर्ट की सुध किसी ने नहीं ली



वास्तव में परीक्षा का वर्तमान तंत्र आनंददायक शिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है । इसके स्थान पर सामूहिक गतिविधियों को प्रोत्साहित व पुरस्कृत किया जाना चाहिए । यह बात सभी शिक्षाशास्त्री स्वीकारते हैं ,इसके बावजूद बीते दो दशक में कक्षा में अव्वल आने की गला काट में ना जाने कितने बच्चे कुंठा का शिकार हो मौत को गले लगा चुके हैं । हायर सैकेंडरी के रिजल्ट के बाद ऐसे हादसे सारे देश में होते रहते हैं । अपने बच्चे को पहले नंबर पर लाने के लिए कक्षा एक-दो में ही पालक युद्ध सा लड़ने लगते हैं ।

कुल मिला कर परीक्षा व उसके परिणामों ने एक भयावह सपने, अनिश्चितता की जननी व बच्चों के नैसर्गिक विकास में बाधा का रूप  ले लिया है । कहने को तो अंक सूची पर प्रथम श्रेणी दर्ज है, लेकिन उनकी आगे की पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूलों ने भी दरवाजों पर शर्तों  की बाधाएं खड़ी कर दी हैं । सवाल यह है कि शिक्षा का उद्देश्य क्या है - परीक्षा में स्वयं को श्रेष्ठ  सिद्ध करना, विशयों की व्यावहारिक जानकारी देना या फिर एक अदद नौकरी पाने की कवायाद ? निचली कक्षाओं में नामांकन बढ़ाने के लिए सर्व शिक्षा अभियान और ऐसी ही कई योजनाएं संचालित हैं । सरकार हर साल अपनी रिपोर्ट में ‘‘ड्राप आउट’’ की बढ़ती संख्या पर चिंता जताती है । लेकिन कभी किसी ने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि अपने पसंद के विशय या संस्था में प्रवेश ना मिलने से कितनी प्रतिभाएं कुचल दी गई हैं । एम.ए और बीए की डिगरी पाने वालों में कितने ऐसे छात्र हैं जिन्होंने अपनी पसंद के विशय पढ़े हैं । विषय  चुनने का हक बच्चों को नहीं बल्कि उस परीक्षक को है जो कि बच्चों की प्रतिभा का मूल्यांकन उनकी गलतियों की गणना के अनुसार कर रहा है ।

आजादी के बाद हमारी सरकार ने शिक्षा विभाग को कभी गंभीरता से नहीं लिया । इसमें इतने प्रयोग हुए कि आम आदमी लगातार कुंद दिमाग होता गया । हम गुणात्मक दृष्टि से पीछे जाते गए, मात्रात्मक वृद्धि  भी नहीं हुई । कुल मिला कर देखें तो शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य और पाठ्यक्रम के लक्ष्य एक दूसरे में उलझ गए व एक गफलत की स्थिति बन गई । क्या कोई अपने पुराने अनुभवों से कुछ सीखते हुए बच्चों की बौद्धिक समृद्धता व अपने प्रौढ़ जीवन की चुनौतियों से निबटने की क्षमता के विकास के लिए कारगर कदम उठाते हुए नंबरों की अंधी दौड़ पर विराम लगाने की सुध लेंगे ?

 

पंकज चतुर्वेदी

9891928376

 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...