22 मार्च विश्व जल दिवस पर विषेश
पानी बचाना है तो बचांए
पारंपरिक जल-प्रणालियां
पंकज चतुर्वेदी
कोई साल बारिश का रूठ जाना
तो कभी ज्यादा ही बरस जाना हमारे देश के
लिए नियति है। थोड़ा ज्यादा बरसात हो जाए तो उसके समेटने के साधन नहीं बचते और कम
बरस जाए तो ऐसा रिजर्व स्टॉक नहीं दिखता जिससे काम चलाया जा सके। अनुभवों से यह तो
स्पष्ट है कि भारीभरकम बजट, राहत, नलकूप जैसे षब्द जल संकट का निदान नहीं है। करोड़ों-अरबों की लागत से बने
बंाध सौ साल भी नहीं चलते, जबकि हमारे पारंपरिक ज्ञान से बनी जल संरचनांए ढेर सारी उपेक्षा, बेपतवाही
के बावजूद आज भी पानीदार हैं। जलवायु परिवर्तन के खतरे के सामने आधुनिक
इंजीनियरिंग बेबस है । यदि भारत का
ग्रामीण जीवन और खेती बचाना है तो बारिष की हर बूंद को सहेजने के अलावा और कोई
चारा नहीं है। यही हमारे पुरखों की रीत भी थी।
बुंदेलखंड में करोड़ों के
राहत पैकेज के बाद भी पानी की किल्लत के चलते निराशा , पलायन व
बेबसी का आलम है। देश के बहुत बड़े हिस्से के लिए अल्प वर्शा नई बात नही है और ना
ही वहां के समाज के लिए कम पानी में गुजारा करना, लेकिन
बीते पांच दषक के दौरान आधुनिकता की आंधी में दफन हो गए हजारों चंदेल-बुंदेला
कालीन तालाबों और पारंपरिक जल प्रणालियों के चलते यह हालात
बने।
मप्र के बुरहानपुर शहर की
आबादी तीन लाख के आसपास है। निमाड़ का यह इलाका पानी की कमी के कारण कुख्यात है , लेकिन आज
भी शहर में कोई अठारह लाख लीट पानी प्रतिदिन एक ऐसी प्रणाली के माध्यम से वितरित
होता है जिसका निर्माण सन 1615 में किया गया था। यह प्रणाली जल संरक्षण और वितरण की दुनिया की अजूबी
मिसाल है, जिसे
‘भंडारा’ कहा जाता है। सतपुड़ पहाड़ियों से एक-एक बूंद जल जमा करना और उसे नहरों के
माध्यम से लोगों के घ्एरों तक पहुंचाने की यह व्यवस्था मुगल काल में फारसी
जल-वैज्ञानिक तबकुतुल अर्ज ने तैयार की थी। समय की मार के चलते दो भंडारे पूरी तरह
नष्ट हो गए हैं। सनद रहे कि हमारे पूर्वजांे ने देश -काल परिस्थिति के अनुसार
बारिष को समेट कर रखने की कई प्रणालियां विकसित व संरक्षित की थीं, जिसमें
तालाब सबसे लोकप्रिय थे। घरों की जरूरत यानि पेयजल व खाना बनाने के लिए मीठे पानी
का साधन कुआं कभी घर-आंगन में हुआ करता था। धनवान लोग सार्वजनिक कुएं बनवाते थे।
हरियाणा से मालवा तक जोहड़ या खाल जमीन की नमी बरकरार रखने की प्राकृतिक संरचना
हैं। ये आमतौर पर वर्शा-जल के बहाव क्षेत्र में पानी रोकने के प्राकृतिक या
कृत्रिम बांध के साथ छोटा तालाब की मानिंद होता है। तेज ढलान पर तेज गति से पानी
के बह जाने वाले भूस्थल में पानी की धारा को काटकर रोकने की पद्धति ‘‘पाट’’ पहाड़ी
क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय रही है। एक नहर या नाली के जरिये किसी पक्के बांध तक
पानी ले जाने की प्रणाली ‘‘नाड़ा या बंधा’’ अब देखने को नहीं मिल रही है। कुंड और
बावड़िया महज जल संरक्षण के साधन नहीं,बल्कि
हमारी स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना रहे हैं।
आज जरूरत है कि ऐसी ही पारंपरिक प्रणालियों को पुनर्जीवित करने के लिए खास
योजना बनाई जाए व इसकी जिम्मेदारी स्थानीय समाज की ही हो।
यह देश -दुनिया जब से है तब
से पानी एक अनिवार्य जरूरत रही है और अल्प वर्शा, मरूस्थल, जैसी
विशमताएं प्रकृति में विद्यमान रही हैं- यह तो बीते दो सौ साल में ही हुआ कि लोग
भूख या पानी के कारण अपने पुष्तैनी घरों- पिंडों से पलायन कर गए। उसके पहले का
समाज तो हर तरह की जल-विपदा का हल रखता था। अभी हमारे देखते-देखते ही घरों के आंगन, गांव के
पनघट व कस्बों के सार्वजनिक स्थानों से कुएं गायब हुए हैं। बावड़ियों को हजम करने
का काम भी आजादी के बाद ही हुआ। हमारा
आदि-समाज गर्मी के चार महीनों के लिए पानी जमा करना व उसे किफायत से खर्च करने को
अपनी संस्कृति मानता था। वह अपने इलाके के मौसम, जलवायु
चक्र, भूगर्भ, धरती-संरचना, पानी की
मांग व आपूर्ति का गणित भी जानता थ। उसे पता था कि कब खेत को पानी चाहिए और कितना
मवेशी को और कितने में कंठ तर हो जाएगा।
वह अपनी गाड़ी को साफ करने के लिए पाईप से पानी बहाने या हजामत के लिए चालीस लीटर
पानी बहा देने वाली टोंटी का आदी नहीं था। भले ही आज उसे बीते जमाने की तकनीक कहा
जाए, लेकिन आज
भी देश के कस्बे-षहर में बनने वाली जन
योजनाओं में पानी की खपत व आवक का वह गणित कोई नहीं आंक पाता है जो हमारा पुराना
समाज जानता था।
राजस्थान में तालाब, बावड़ियां, कुई और
झालार सदियों से सूखे का सामना करते रहे। ऐसे ही कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु
में ऐरी, नगालेंड
में जोबो तो लेह-लद्दाक में जिंग, महाराष्ट्र में पैट, उत्तराखंड
में गुल, हिमाचल
प्रदेश में कुल और और जम्मू में कुहाल कुछ
ऐसे पारंपरिक जल-संवर्धन के सलीके थे जो आधुनिकता की आंधी में कहीं गुम हो गए और
अब आज जब पाताल का पानी निकालने व नदियों पर बांध बनाने की जुगत अनुतीर्ण होती दिख
रही हैं तो फिर उनकी याद आ रही है। गुजरात के कच्छ के रण में पारंपरिक मालधारी लोग
खारे पानी के ऊपर तैरती बारिष की बूंदों के मीठे पानी को ‘विरदा’ के प्रयोग से
संरक्षित करने की कला जानते थे। सनद रहे कि उस इलाके में बारिष भी बहुत कम होती
है। हिम-रेगिस्तान लेह-लद्दाक में सुबह बरफ रहती है और दिन में धूप के कारण कुछ
पानी बनता है जो षाम को बहता है। वहां के लोग जानते थे कि षाम को मिल रहे पानी को
सुबह कैसे इस्तेमाल किया जाए।
तमिलनाडु में एक जल सरिता
या धारा को कई कई तालाबों की श्रंखला में मोड़कर हर बूंद को बड़ी नदी व वहां से
समुद्र में बेजा होने से रोकने की अनूठी परंपरा थी। उत्तरी अराकोट व चेंगलपेट जिले
में पलार एनीकेट के जरिए इस ‘‘पद्धति तालाब’’ प्रणाली में 317 तालाब
जुड़े हैं। रामनाथपुरम में तालाबों की अंतर्श्रखला भी विस्मयकारी है। पानी के कारण
पलायन के लिए बदनाम बंुदेलखंड में भी पहाडी के नीचे तालाब, पहाडी पर
हरियाली वाला जंगल और एक तालाब के
‘‘ओने’’(अतिरिक्त जी की निकासी का मुंह) से नाली निकाल कर उसे उसके नीेचे धरातल पर
बने दूसरे तालाब से जोड़ने व ऐसे पांच-पांच तालाबों की कतार बनाके की परंपरा 900वीं सदी
में चंदेल राजाओं के काल से रही है। वहां तालाबों के आंतरिक जुड़ावों को तोड़ा गया, तालाब के
बंधान फोड़े गए, तालाबों पर कालोनी या खेत के लिए कब्जे हुए, पहाड़ी
फोड़ी गई, पेड़ उजाड़
दिए गए। इसके कारण जब जल देवता रूठे तो
पहले नल, फिर नलकूप के टोटके किए गए। सभी उपाय जब हताष रहे तो आज फिर तालाबों की
याद आ रही है।
कागजों पर आंकडों में देखें
तो हर जगह पानी दिखता है लेकिन हकीकत में पानी की एक-एक बूंद के लिए लोग पानी-पानी
हो रहे हैं। जहां पानी है, वह इस्तेमाल के काबिल नहीं है। आज जलनिधि को बढ़ता खतरा बढ़ती आबादी से कतई
नहीं है । खतरा है आबादी में बढ़ोतरी के साथ बढ़ रहे औद्योगिकप्रदुषण , दैनिक
जीवन में बढ़ रहे रसायनों के प्रयोग और मौजूद जल संसाधनों के अनियोजित उपयोग से ।
यह दुखद है कि जिस जल के बगैर एक दिन भी रहना मुश्किल है, उसे गंदा
करने में हम-हमारा समाज बड़ा बेरहम है। यह जान लेना जरूरी है कि धरती पर इंसान का
अस्तित्व बनाए रखने के लिए पानी जरूरी है तो पानी को बचाए रखने के लिए बारिष का
संरक्षण ही एकमात्र उपाय है। यदि देश की महज पांच प्रतिषत जमीन पर पांच मीटर औसत
गहराई में बारिष का पानी जमा किया जाए तो
पांच सौ लाख हैक्टर पानी की खेती की जा सकती है। इस तरह औसतन प्रति व्यक्ति 100 लीटर
पानी प्रति व्यक्ति पूरे देश में दिया जा
सकता है। और इस तरह पानी जुटाने के लिए
जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर सदियों से समाज की सेवा करने वाली पारंपरिक जल
प्रणालियों को खेाजा जाए, उन्हें सहेजने वाले, संचालित करने वाले समाज को सम्मान दिया जाए और एक बार फिर समाज को
‘‘पानीदार’’ बनाया जाए। यहां ध्यान रखना जरूरी है कि आंचलिक क्षेत्र की पारंपरिक
प्रणालियों को आज के इंजीनियर शायद स्वीकार ही नहीं पाएं सो जरूरी है कि इसके लिए
समाज को ही आगे किया जाए।
सन 1944 में
गठित ‘फेमिन इनक्वायरी कमीशन’ ने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में
संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे । कमीशन की रिर्पाट तो
लाल बस्ते में कहीं दब गई और देश की आजादी के बाद इन पुश्तैनी तालाबों की देखरेख
करना तो दूर, उनकी दुर्दशा करना शुरू कर दिया । यदि देश की महज पांच प्रतिशत जमीन पर पांच मीटर औसत
गहराई में बारिष का पानी जमा किया जाए तो
पांच सौ लाख हैक्टर पानी की खेती की जा सकती है। इस तरह औसतन प्रति व्यक्ति 100 लीटर
पानी प्रति व्यक्ति पूरे देश में दिया जा
सकता है। और इस तरह पानी जुटाने के लिए
जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर सदियों से समाज की सेवा करने वाली पारंपरिक जल
प्रणालियों को खेाजा जाए, उन्हें सहेजने वाले, संचालित करने वाले समाज को सम्मान दिया जाए और एक बार फिर समाज को
‘‘पानीदार’’ बनाया जाए।
सनद रहे कि हमारे पूर्वजांे
ने देश -काल परिस्थिति के अनुसार बारिश को
समेट कर रखने की कई प्रणालियां विकसित व संरक्षित की थीं, जिसमें
तालाब सबसे लोकप्रिय थे। घरों की जरूरत यानि पेयजल व खाना बनाने के लिए मीठे पानी
का साधन कुआं कभी घर-आंगन में हुआ करता था। धनवान लोग सार्वजनिक कुएं बनवाते थे।
जल संचयन के स्थानीय व छोटे प्रयोगों से जल संरक्षण में स्थानीय लोगों की भूमिका व
जागरूकता दोनों बढे़गेी, साथ ही इससे भूजल का रिचार्ज तो होगा ही जो खेत व कारखानों में पानी की
आपूर्ति को सुनिश्चित करेगा।
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