22 मार्च विश्व
जल दिवस
पानी की बर्बादी
ना रोकी तो बेपानी हो जायगा देश
पंकज चतुर्वेदी
दिल्ली एनसीआर के कई
इलाकों को इस बात के लिए गर्व से प्रचारित किया जाता है कि वहां घरों में
गंगा-वाटर आता है। ऐसे इलाकों में फ्लेट के दाम इस कारण अधिक होते हैं। जिस गंगा जल
को घरों में एक बोतल में पवित्र निशानी के तौर पर पूजा-स्थान पर
रखा जाता है, वह गंगा
जल लाखों घरों में शौचालय से ले कर कपड़े धोने तक में इस्तेमाल होता है। “हर घर जल”
जैसी यजनाओं के बावजूद सरकारी दस्तावेज यह
मानते हैं कि अब भारत के कोई 360 जिलों में पानी
की मारामारी स्थाई डेरा डाल चुकी है । एक तरफ बढ़ती गर्मी और दूसरी तरफ
बढ़ती प्यास और खेतों के लिए अधिक पानी की जरूरत, इसके साथ ही साल-दर -साल बरसात के दिनों में कमी अ जाहीर है कि पानी किसी
कारखाने में बन नहीं सकता और हमारी जिम्मेदारी बन गई है कि पानी को किफायत से खर्च
करें और झा मौका मिले इसे सहेज कर रखें।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का एक शोध चार साल पहले ही
चेतावनी दे चुका था कि सन 2030 तक हमारे धरती
के तापमान में 0.5 से 1.2 डिग्री सेल्सियस
तक की वृद्धि अवष्यंभावी है। साल-दर-साल बढ़ते तापमान का प्रभाव सन 2050 में 0.80 से 3.16 और सन 2080 तक 1.56 से 5.44 डिग्री हो सकता
है। जान लें कि तापमान में एक डिग्री बढ़ौतरी का अर्थ है कि खेत में 360 किलो फसल प्रति
हैक्टेयर की कमी आ जाना। इस तरह जलवायु परिवर्तन के चलते खेती के लिहाज से 310 जिलों को संवेदनशील
माना गया है। इनमें से 109 जिले बेहद संवेदनशील हैं जहां आने वाले एक दशक में ही उपज
घटने, पशु धन से ले कर मुर्गी पालन व मछली उत्पाद तक कमी
आने की संभावना है।
सामने दिख रहा है कि संकट अकेले पानी का ही नहीं है, असल संकट है पानी
के प्रबंधन का। अलग-अलग किस्म का पानी,
अलग-अलग इस्तेमाल के लिए कैसे छांटा जाए,
इस बारे में तंत्र विकसित करना और सबसे बड़ी बात इसके लिए जागरूकता फैलाना
अनिवाय है। खासकर ग्रामीण अञ्चल में यह बात समझाना जरूरी है कि भू गर्भ से उलीच कर
निकाला जा रहा पानी अनंत नहीं हैं और यह एक बार समाप्त हुआ तो लौट कर आने वाला
नहीं। भूजल की संपती का अर्थ है- बंजर और रेगिस्तान का विस्तार, साथ में भूकंप
जैसी आपदा की संभावना का विस्तार ।
भारत में जिस साल कम बरसात होती है,
उस साल भी इतनी कृपा बरसती है कि सारे देश की जरूरत पूरी हो सकती है , लेकिन हमारी असली
समस्या बरसात की हर बूंद को रोक रखने के लिए हमारे पुरखों द्वारा बनाए तालाब-बावड़ी
या नदियों की दुर्गति करना है। बारिश का
कुछ हिस्सा तो भाप बनकर उड़ जाता है और कुछ समुद्र में चला जाता है। हम यह भूल जाते
हैं कि प्रकृति जीवनदायी संपदा यानी पानी हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है
और इस चक्र को गतिमान रखना हमारी जिम्मेदारी है। इस चक्र के थमने का अर्थ है हमारी
जिंदगी का थम जाना। प्रकृति के खजाने से हम जितना पानी लेते हैं उसे वापस भी हमें
ही लौटाना होता है।
पानी के दुरुपयोग के बारे में एक नहीं, कई चौंकाने वाले
तथ्य हैं जिसे जानकर लगेगा कि सचमुच अब हममें थोड़ा सा भी पानी नहीं बचा है। कुछ
तथ्य इस प्रकार हैं-मुंबई में रोज गाड़ियां धोने में ही 50 लाख लीटर पानी
खर्च हो जाता है। दिल्ली,
मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों में पाइपलाइनों के वॉल्व की खराबी के कारण 17 से 44 प्रतिशत पानी प्रतिदिन
बेकार बह जाता है। ब्रह्मपुत्र नदी का प्रतिदिन 2.16 घन मीटर पानी बंगाल की खाड़ी में चला जाता है। भारत में हर
वर्ष बाढ़ के कारण करीब हजारों मौतें व अरबों का नुकसान होता है। इजरायल में औसत बारिश
10
सेंटीमीटर है , इसके
बावजूद वह इतना अनाज पैदा कर लेता है कि वह उसका निर्यात करता है। दूसरी ओर भारत
में औसतन 50
सेंटीमीटर से भी अधिक वर्षा होने के बावजूद सिंचाई के लिए जरूरी जल की कमी बनी
रहती है।
यह भी कडवा सच है कि हमारे देश में महिलाओं को पीने के पानी की जुगाड़ के लिए हर रोज ही औसतन साढ़े
पाँच किलोमीटर पैदल चलन पड़ता हैं।
पानीजन्य रोगों से विश्व में हर वर्ष 22 लाख
लोगों की मौत हो जाती है। पूरी पृथ्वी पर एक अरब 40 घन किलोलीटर पानी है। इसमें से 97.5 प्रतिशत पानी
समुद्र में है जोकि खारा है,
शेष 1.5 प्रतिशत
पानी बर्फ के रूप में ध्रुवीय क्षेत्रों में है। बचा एक प्रतिशत पानी नदी, सरोवर, कुआं, झरना और झीलों
में है जो पीने के लायक है। इस एक प्रतिशत पानी का 60वां हिस्सा खेती और उद्योगों में खपत होता है। बाकी का 40वां हिस्सा हम
पीने, भोजन
बनाने, नहाने, कपड़े धोने एवं
साफ-सफाई में खर्च करते हैं।
यदि ब्रश करते समय नल खुला रह गया है तो पांच मिनट में करीब
25 से 30 लीटर पानी बरबाद
होता है। बॉथ टब में नहाते समय धनिक वर्ग 300 से 500 लीटर पानी गटर
में बहा देते हैं। मध्यम वर्ग भी इस मामले में पीछे नहीं हैं जो नहाते समय 100 से 150 पानी लीटर बरबाद
कर देता है। हमारे समाज में पानी बरबाद करने की राजसी प्रवृत्ति है जिस पर अभी तक
अंकुश लगाने की कोई कोशिश नहीं हुई है।
यदि अभी पानी को सहेजने और किफायती इस्तेमाल पर काम नहीं
किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब सरकार की हर घर नल जैसी योजनाएं जल-स्त्रोत ना
होने के कारण रीती दिखेंगी। चप्पे-चप्पे पर झेल-तालाबों के लिए मशहूर बैंगलुरु का
उदाहरण सामने हैं जहां गर्मी शुरू होने से पहले ही पानी की राशनिंग हो रही है । जान लें,
पानी की कमी, मांग में
वृद्धि तो साल-दर-साल ऐसी ही रहेगी। अब मानव को ही बरसात की हर बूंद को सहेजने और
उसे किफायत से खर्च करने पर विचार करना होगा। इसमें अन्न की बर्बादी सबसे बड़ा मसला
है- जितना अन्न बर्बाद होता है,
उतना ही पानी जाया होता है।
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