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गुरुवार, 21 मार्च 2024

Burhanpur's water reservoirs are in danger

        खतरे में है बुरहानपुर के जल-भंडारे
                        पंकज चतुर्वेदी 

सतपुड़ा की सघन जंगलों वाली पहाड़ियों के भूगभ में धीरे-धरे पानी रिसता है, फिर यह पानी प्राकृतिक रूप से चूने से निर्मित नालियों के माध्यम से सूरंगनुमा नहरों में आता है और यह जल कुईयों में एकत्र हो जाता है, आम लेागों के उपयोग के लिए। अभी दो दषक पहले तक इस संरचना के माध्यम से लगभग चालीस हजार घरों तक बगैर किसी मोटर पंप के पाईप के जरिये पानी पहुंचा करता था। कुछ आधुनिकता की हवा, कुछ कोताही और कुछ पारंपरिक तकनीकी ज्ञान के बारे में अल्प सूचना; अपने तरीके की विष्व की एकमात्र ऐसी जल-प्रणली को अब अपने अस्तित्व के लिए जूझना पड़ रहा है। उस समाज से जूझना पड़ रहा है जोकि खुद पानी की एक-एक बूंद के लिए प्रकृति से जूझ रहा है। मुग़लकाल की बेहतरीन इंजीनियरिंग का यह नमूना मध्य प्रदेश में ताप्ती नदी के किनारे बसे बुरहानपुर शहर में है। पिछले साल इस संरचना का नाम विष्व विरासत के लिए भी यूनेस्को को भेजा गया था। उल्लेखनीय है कि ठीक इसी तरह की एक जल-प्रणाली कभी इरान में हुआ करती थी जो लापरवाही के कारण बीते दिनों की बात हो गई है। 



बुरहानपुर उन दिनों मुगलों की बड़ी छावनी था , ताप्ती नदी के पानी में पूरी  तरह  निर्भरता को तब के सूबेदार अब्दुल रहीम खान ने असुरक्षित माना और उनकी निगाह इस प्राकृतिक जल-स्त्रोत पर पड़ी। सन 1615 में फ़ारसी भूतत्ववेत्ता तबक़ुतुल अर्ज़ ने ताप्ती के मैदानी इलाक़े, जो सत्पदा पहाड़ियों के बीच स्थित है, के भूज़ल स्रोतों का अध्ययन किया और शहर में जलापूर्ति के लिए भूमिगत सुरंगें बिछाने का इंतज़ाम किया। कुल मिला कर ऐसी आठ प्रणालियां बनाई गई। आज इनमें से दो तो पूरी तरह समाप्त हो चुकी हैं। षेश रह गई प्रणालियों में से तीन से बुरहानपुर षहर और बकाया तीन का पानी पास के बहादुरपुर गाँव और राव रतन महल को जाता है। बुरहानपुर में अपनाई गई तकनीक मूलतः सतपुड़ा पहाड़ियों से भूमिगत रास्ते से ताप्ती तक जाने वाली पानी को भंडाराओं में जमा करने की थी। बुरहानपुर शहर से उत्तर-पश्चिम में चार जगहों पर इस पानी को रोकने का इंतज़ाम किया गया था। इनका नाम था मूल भंडारा, सुख भंडारा, चिंताहरण भंडारा और कुंडी या ख़ूनी भंडारा। इनसे पानी ज़मीन के अंदर बनी नालिकाओं/सुरंगों से भूमिगत भंडार, जिसे जाली करंज कहते हैं, में जमा होता है और फिर वहाँ से यह शहर तक पहुँचता है। मूल भंडारा और चिंताहरण का पानी बीच में एक जगह मिलता है और फिर ख़ूनी भंडारा की तरफ़ बढ़ जाता है। ख़ूनी भंडारा से आने वाला पानी जाली करंज में जाता है। ख़ूनी भंडारा से आने वाला पानी जब जाली करंज में आए, इससे ठीक पहले सुख भंडारा का पानी भी उससे आकर मिलता है। मुग़लकाल में जाली करंज का पानी मिट्टी की बनी पाइपों से शहर तक जाता था। जब अंग्रेज़ों का षासन आया तो उन्होंने  मिट्टी की जगह लोहे के पाइप लगवा दिए।


जल प्रवाह और वितरण का यह पूरा सिस्टम गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत पर आधारित है। भूमिगत नालिकाओं को भी हल्की ढलान दी गई है। सुख भंडारा ज़मीन से तीस मीटर नीचे है और वहाँ से पानी इस सुरंग में आता है। गर्मियों में भी यहाँ डेढ़ मीटर पानी होता है। चट्टानों वाली इस व्यवस्था को पक्का करने के लिए क़रीब एक मीटर मोटी दीवार भी डाली गई है। भूज़ल का रिसाव इसके अंदर होता रहे, इसके लिए दीवार में जहाँ-तहाँ जगह छोड़ी गई है। मूल भंडारा तो शहर से 10 किमी दूर एक सोते के पास स्थित है। यह खुले हौज़ की तरह है और इसकी गहराई 15 मीटर है। इसकी दीवारें पत्थर से बनीं हैं। इसके चारों तरफ़ 10 मीटर ऊँची दीवार भी बनाई गई है। चिंताहरण मूल भंडारा के पास ही एक सोते के किनारे है और इसकी गहराई 20 मीटर है। ख़ूनी भंडारा शहर से पांच किमी दूर लाल बाग़ के पास है। इसकी गहराई क़रीब 10 मीटर है। अपने निर्माण के तीन सौ पचास वर्ष बाद भी यह व्यवस्था बिना किसी लागत या ख़र्च के काम दिए जा रही है। बीते कुछ सालों के दौरान इसमें पानी कुछ कम आ रहा है। सन 1985 में जहां यहां का भूजल स्तर 120 फुट था, वह 2010 में 360 और आज 470 फुट लगभग हो गया है। असल में जिन सुरगों के जरिये पानी आता है, उनमें कैलिष्यम व अन्य खनिजों की परतें जमने के कारण उनकी मोटाई कम हो गई और उससे पानी कम आने लगा। इसके अलावा सतपुड़ा पर जंगलों की अंधाधुंध कटाई, बरसात के दिन कम होना और इन नालियों व सुरंगों में कूड़ा आने के चलते यह संकट बढ़ता जा रहा है। सन 1992 में भुवैज्ञानिक डा. यूके नेगी के नेतृत्व में इसकी सफाई हुई थी, उसके बाद इनको साफ करने र किसी ने ध्यान नहीं दिया। हालांकि डा नेगी ने उसी समय हक दिया था कि इस संवेदनषील संरचना की सफाई हर दस साल में हो।  

सुरंगों में कम पानी आने का एक कारण इलाके में खेती व अन्य कार्यों के लिए बेतहाषा नलकूपों का रोपा जाना भी है। नेनानगर के कागज कारखाने के लिए कच्चा माल जुटाने व षहरीकरण के विस्तार के चलते जंगलों की कमी पानी कम होने का बड़ा कारण है। पेड़ न रहने से बरसात का पानी ज़मीन के अंदर जाने की बजाय ताप्ती नदी में चला जाता है। सुरंग और कूपकों की गाद जमा होने से भी इस व्यवस्था की क्षमता प्रभावित हुई है।

 आज भी यहां के पानी के पीएच कीमत 7.2 से 7.5 है जोकि एक उच्च स्तर के मिनरल वाटर का मानक है। लेकिन खुले कुडों के पास चूने के कारखाने  लगने से प्रणाली के पानी की पवित्रता भी प्रभावित हुई है। कुंडों के आसपास लोगों का रहना बढ़ता गया है। वे कुंडों के पास बने चबूतरों पर नहाते-धोते हैं। इसका गंदा पानी भी रिसकर कूपकों में पहुँचता है। रेलवे स्टेशन के पास स्थित दो कुंड ऊपर से टूट गए हैं। फिर इसमें बरसात का पानी और कई बार नालियों का पानी भी सीधे चला जाता है। अगर इन छोटी-बड़ी चीज़ों पर तत्काल ध्यान न दिया गया तो यह ऐतिहासिक प्रणाली बहुत जल्दी ही सिर्फ़ इतिहास की चीज़ बनकर रह जाएगी।

बुरहानपुर के जल-भंडारे केवल एतिहासिक ही नहीं, भूगर्भ और भौतिकी विज्ञान के हमारे पारंपरिक ज्ञान के अनूठे उदाहरण हैं। इनका संरक्षण महज जल प्रदाय व्यवस्था के लिए नहीं,बल्कि विष्व की अनूठी जल प्रणाली को सहेजने के लिए भी अनिवार्य है। 


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