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शुक्रवार, 24 मई 2024

How will Srinagar survive without Dal Lake?

 

बगैर डल झील के कैसे जिएगा श्रीनगर ?

पंकज चतुर्वेदी



 

अभी 08 मई को राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एन.जी.टी.) ने कश्मीर में डल झील की ‘बिगड़ती स्थिति' पर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और जम्मू-कश्मीर प्रदूषण नियंत्रण समिति सहित कई प्राधिकारों से जवाब मांगा है। एन.जी.टी. के अध्यक्ष न्यायमूर्ति प्रकाश श्रीवास्तव और विशेषज्ञ सदस्य ए. सेंथिल वेल की पीठ ने कहा कि एक समय लोग इस झील का पानी पीते थे, लेकिन आज इसका उपयोग मुंह धोने के लिए भी नहीं किया जा सकता है। यह बात इसरो द्वारा खींची गई सेटेलाईट चित्रों के सहयोग से  अमेरिका की संस्था “अर्थ ऑबजरवेटरी इमेज “ भी कह चुकी है कि सन  1980 से 2018 के बीच धरती का स्वर्ग कहलाने वाले श्रीनगर ‘अस्तित्व’ कहे जाने वाल डल झील का आकार  25 फीसदी घट गया ।  अदालती दाखल, सरकारी कोशिशों और स्थानीय दवाब के बावजूद तिल-तिल कर मर रही है हताश सी जल निधि मजबूर है मौन रह कर अतिक्रमण सहने और घरेलू गंदगी को खपाने का सहूलियतमंद स्थान मान लेने की त्रासदी को सहने के लिए। यह झील इंसानों के साथ-साथ लाखों-लाख जलचरों, परिंदों का घरोंदा हुआ करती थी, झील से हजारों हाथों को काम व लाखों पेट को रोटी मिलती थी, अपने जीवन की थकान, हताषा और एकाकीपन को दूर करने देश-दुनिया के लाखों लोग इसके दीदार को आते थे। अब यह बदबूदार नाबदान और शहर के लिए मौत के जीवाणु पैदा करने का जरिया बन गई है। अभी पिछले महीने ही  जम्मू –कश्मीर उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका के दवाब में सरकार ने  एक हजार पन्ने का के दस्तावेज में एक योजना पेश की ।  बीते अनुभव बताते हैं कि  अदालत में पेश योजना जब  महकमों के पास साकार करने आती है तो  कागजों के अलावा काही सुधार होता नहीं । एक मोटा अनुमान है कि अभी तक इस झील को बचाने के नाम पर कोई एक हजार करोड़ रूपए खर्च किए जा चुके हैं। होता यह है कि इसको बचाने की अधिकांश योजनांए उपरी कॉस्मेटिक या सैंदर्य की होती हैं- जैसे एलईडी लाईट लगाना, रैलिंग लगाना, फुटपाथ को नया बनाना आदि, लेकिन इन सबसे इस अनूठी जल-निधि के नैसर्गिक स्वरूप को अक्षुण्ण रखने की दिशा में कोई लाभ नहीं होता, उल्टे इस तरह के निर्माण कार्य का मलवा-अवशेष झील को गंदला जरूर करता है।

सन 1980 में  कश्मीर के शहरी पर्यावरण अभियांत्रिकी विभाग ने झील में बसे  झोंपड़ – झुग्गी और  संकरी बस्तियों का सर्वे करवाया था, तब 58 बस्तियों में पचास हजार की आबादी दर्ज की गई थी, आज यह संख्या एक लाख के पार हो जाना , सरकारी अनुमान में दर्ज है । यह विडंबना है कि डल महज एक पानी का सोता नहीं बल्कि स्थानीय लोगों की जीवन-रेखा है; इसे बावजूद स्थानीय लोग इसके प्रति बेहद उदासीन है। श्रीनगर नगर निगम के अफसरान तो साफ कहते हैं कि शहर की अधिकांश आबादी ‘प्रापर्टी टैक्स’ तक नहीं चुकाती है। ये ही लोग साफ-सफाई, प्रकाश  आदि के लिए सरकार को कोसते हैं। डल के प्रति सरकार व समाज का ऐसा साझा रवैया इसका दुश्मन है।

पहले कई बार अदालती आदेशों पर अतिक्रमण हटाने, हाउस बोट को दूसरी जगह ले जाने  आदि के आदेश आए  लेकिन सियासती दवाब में उन पर क्रियान्वयन हुआ नहीं, यह बात भी सच है कि जब तक स्थानीय लोगों की भागीदारी  और सहमति नहीं होगी, डल को  दर्द का दरिया बनने से रोक जा नहीं सकता ।   डल का सबसे बाद दुश्मन एक तो इस पर हो रहा तेजी से अतिक्रमण और  रिहाईश है । फिर आसपास की बस्तियों और  शिकारों से निकालने वाले माल-मूत्र और निस्तार का सीधे इसमें मिलना इसकी जल-गुणवत्ता को जहर बना रहा है । सबसे बड़ी समस्या है , स्थानीय और पर्यटकों  के इस्तेमाल से निकले ठोस कूड़े का सही तरीके से निशापदन न कर उसे चोरी- चुपके झील में गिरा देना ।

डल झील तीन तरफ से पहाड़ों से घिरी है। इसमें चार जलाशयों का जल आ कर मिलता है - गगरी बल, लोकुट डी, बोड डल और नागिन। होता यह है कि डल  के सुधार को थोड़ा बहुत असर होता है तो ये चारों ही झीलें  बेहद प्रदूषित है और इनकी गंदगी डल का रोग दुगना कर देती हैं।

आज डल के बड़े हिस्से में वनस्पतिकरण हो गया है । इससे सूर्य की किरने जल में गहराई तक जाती नहीं और इससे पानी में ऑक्सीजन की कमी  होती है और जल से बदबू आती है । कहने को वनस्पियां डल की खूबसूरती को चार चांद लगाती है। कमल के फूल, पानी में बहती कुमुदनी झील का नयनाभिराम दृष्य प्रस्तुत करती हैं, लेकिन इस जल निधि में अधिक कमाई के लोभ में होने लगी निरंकुश खेती ने इसके पानी में रासायनिक खादों व कीटनायाकों की मात्रा जहर की हद तक बढ़ा दी है। इस झील का ्रपमुख आकर्शण यहां के तैरते हुए बगीचे हैं।  यहीं मुगलों द्वारा बनवाए गए  सुदर पुश्प वाटिका की सुंदरता देखते ही बनती है। 

समुद्र तल से 1500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित डल एक प्राकृतिक झील है और कोई पचास हजार साल पुरानी है। यह जल-निधि पहाड़ों के बीच इस तरह से विकसित हुई थी कि बरफ के गलने या बारिश के पानी की एक-एक बूंद इसमें संचित होती थी। इसका जल ग्रहण क्षेत्र और अधिक पानी की निकासी का मार्ग बगीचों व घने जंगलों से आच्छादित हुआ करता था। सरकारी रिकार्ड गवाह है कि सन 1200 में इस झील का फैलाव 75 वर्ग किलोमीटर में था। सन 1847 यानी आजादी से ठीक 100 साल पहले इसका क्षेत्रफल 48 वर्गकिमी आंका गया। सन 1983 में हुए माप-जोख में यह महज 10.56 वर्गकिमी रह गई। अब इसमें जल का फैलाव बमुश्किल  आठ वर्गकिमी रह गया है। झील की गहराई गाद से पटी हुई है। पानी का रंग लाल-गंदला है और काई की परतें हैं। इसका पानी इंसान के इस्तेमाल के लिए खतरनाक घोषित किया जा चुका है। पानी का प्रदूषण  इस कदर बढ़ गया है कि इलाके के भूजल को भी विष  कर रहा है। यहां यह भी जानना जरूरी है कि श्रीनगर की कुल आय का 16 प्रतिशत इसी झील से आता है और यहां के 46 फीसदी लोगों के घर का चूल्हा इसी झील के जरिए हुई कमाई से जलता है।

 बढ़ते वैश्विक तापमान से भी डल अछूती नहीं है । यदि डल का सिकुड़ना ऐसा ही जारी रहा तो इस झील का अस्तित्व बमुश्किल 350 साल बचा है। यह बात रूड़की यूनिवर्सिटी के वैकल्पिक जल-उर्जा केंद्र द्वारा डल झील के संरक्षण और प्रबंधन के लिए तैयार एक विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट में कही गई है। डल झील के लिए सबसे बड़ा खतरा उसके जल-क्षेत्र को निगल रही आबादी से है। 

रूडकी यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट में बताया गया है कि झील में हर साल 61 लाख टन गंदगी गिर रही है जो सालाना 2.7 मिमी मोटी परत के तौर पर जम रही है। इसी गति से कचरा जमा होने पर यहां जल्दी ही सपाट मैदान होगा। रेडियो मैट्रीक डेटिंग तकनीक से तैयार रपट चेताती है कि हालात ना सुधरे तो आने वाले साढ़े तीन सौ सालों में डल का नामोनिशान मिट जाएगा।

16वीं सदी तक इस झील की देखभाल खुद प्रकृति करती थी। 18 और 19वीं सदी में मुगल बादशाहों की यहां आमद-दरफ्त बढ़ी और श्रीनगर एक शहर और पर्यटक स्थल के रूप में विकसित होने लगा। इसी के साथ झील पर संकट की घटाएं छाने लगीं। सन 1976 में सरकार ने पहली बार झील के बिगड़ते मिजाज पर विचार किया और झील व उसके आसपास झील व उसके आसपास किसी भी तरह के निर्माण पर रोक का सरकारी आदेश सन 1978 में ही जारी किया।, लेकिन बीते 45 सालों में इस पर अमल होता कभी भी कहीं नहीं दिखा है।

श्रीनगर शहर के पास न तो क्षमताओं के अनुरूप सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट है न ही शहर के बड़े होटल इस बारे में  कोई कदम उठाते हैं। इसका खामियाजा वहीं के लोग भुगत रहे हैं।  झील के करीबी बस्तियों में षायद ही ऐसा कोई घर हो जहां गेस्ट्रोइंटाटीस, पेचिस, पीलिया जैसे रोगों से पीड़ित ना हों।

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