खेतों से उजड़ते पेड़ – मानवीय अस्तित्व पर खतरा
पंकज चतुर्वेदी
न तो अब खेतों में कोयल की कूक
सुनाई देती है और न ही सावन के झूले पड़ते
हैं । यदि फसल को किसी आपदा का ग्रहण लग
जाए अतितरिक्त आय का जरिया होने वाले फल
भी गायब हैं । अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका “ नेचर
सस्टैनबिलिटी “ में 15 मई 2024 को प्रकाशित आलेख बताता है कि भारत में
खेतों में पेड़ लगाने की परंपरा अब समाप्त
हो रही है । कृषि-वानिकी का मेलजोल कभी भारत के किसानों की ताकत था । देश के कई
पर्व-त्योहार, लोकाचार , गीत - संगीत
खेतों में खड़े पेड़ों के इर्द गिर्द रहे हैं । मार्टिन ब्रांट , दिमित्री गोमिंस्की, फ्लोरियन रेनर, अंकित करिरिया , वेंकन्ना बाबू
गुथुला, फ़िलिप सियाइस , ज़ियाओये टोंग , वेनमिन झांग , धनपाल
गोविंदराजुलु , डैनियल ऑर्टिज़-गोंज़ालो और रासमस फेंशोल्टन के बड़े दल ने भारत के विभिन्न हिस्सों में
आंचलिक क्षेत्रों में जा कर शोध कर पाया कि
अब खेत किनारे छाया मिलना मुश्किल
है । इसके कई विषम परिणाम खेत झेल रहा है
। जब देश में बढ़ता तापमान व्यापक समस्या के रूप में सामने खड़ा है और सभी जानते हैं
कि धरती पर अधिक से अधिक हरियाली की छतरी ही इससे बचाव का जरिया है । ऐसे में इस
शोध का यह परिणाम गंभीर चेतावनी है कि बीते पांच वर्षों में हमारे
खेतों से 53 लाख फलदार व छायादार पेड़ गायब हो गए हैं। इनमें
नीम, जामुन, महुआ और कटहल जैसे
पेड़ प्रमुख हैं।
इन शोधकर्ताओं ने भारत के खेतों
में मौजूद 60 करोड़ पेड़ों का नक्शा तैयार किया और फिर लगातार दस साल उनकी निगरानी की । कोपेनहेगन
विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के अध्ययन के अनुसार, देश में
प्रति हेक्टेयर पेड़ों की औसत संख्या 0.6 दर्ज की गई। इनका
सबसे ज्यादा घनत्व उत्तर-पश्चिमी भारत में राजस्थान और दक्षिण-मध्य क्षेत्र में
छत्तीसगढ़ में दर्ज किया गया है। यहां पेड़ों की मौजूदगी प्रति हेक्टेयर 22 तक दर्ज की गई। रिपोर्ट से ससमने
आया कि खेतों में सबसे अधिक पेड़ उजाड़ना में तेलंगाना और महाराष्ट्र अव्वल रहे हैं । जिन पेड़ों को 2010-11 में
दर्ज किया गया था उनमें से करीब 11
फीसदी बड़े छायादार पेड़ 2018 तक गायब हो चुके
थे। बहुत जगहों पर तो खेतों में मौजूद आधे
पेड़ गायब हो चुके हैं। अध्ययन से यह भी पता चला है कि 2018 से 2022 के बीच करीब 53 लाख
पेड़ खेतों से अदृश्य थे। यानी इस दौरान हर किमी क्षेत्र से औसतन 2.7 पेड़ नदारद मिले। वहीं कुछ क्षेत्रों में तो हर किमी क्षेत्र से 50 तक पेड़ गायब हो चुके हैं।
यह विचार करना होगा कि आखिर किसान ने अपने खेतों से पेड़ों को उजड़ा क्यों ? यह किसान भलीभाँति जानता है कि खेत कि मेढ पर छायादार पेड़ होने का अर्थ है पानी संचयन , पत्ते और पेड़ पर बिराजने वाले पंछियों की बीट से निशुल्क कीमती खाद,मिट्टी के मजबूत पकड़ और सबसे बड़ी बात- खेत में हर समय किसी बड़े बूढ़े के बने रहने का एहसास । इन पेड़ों पर पक्षियों का बसेरा भी रहता था। जो फसलों में लगने वाले कीट-पतंगों से रक्षा करते थे। फसलों को नुकसान करने वाले कीटाणु सबसे पहले मेड़ के पेड़ पर ही बैठते हैं। उन पेड़ों पर दवाओं को छिड़काव कर दिया जाए तो फसलों पर छिड़काव करने से बचत हो सकती है। जलावन , फल- फूल से अतिरिक्त आय तो है ही ।
इसके बावजूद नीम, महुआ, जामुन, कटहल, खेजड़ी (शमी), बबूल, शीशम, करोई, नारियल आदि जैसे बहुउद्देशीय पेड़ों का काटा जाना, जिनका मुकुट 67 वर्ग मीटर या उससे अधिक था ,किसान की किसी बड़ी मजबूरी की तरफ इशारा करता हैं । एक बात समझना होगा कि हमारे यहाँ तेजी से खेती का रकबा काम होता जा रहा है । एक तो घरों में ही खेती की जमीन का बंटवारा हुआ , फिर लोगों ने समय समय पर व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए खेतों को बेचा । आज से पचास साल पहले 1970-71 तक देश के कूल किसानों में से आधे किसान सीमांत थे ।
सीमांत यानि जिनके पास एक हेक्टेयर या उससे काम जमीन हो । 2015-16 आते-आते सीमांत किसान बढ़कर 68 प्रतिशत हो गए हैं। अनुमान यही आज इनकी संख्या 75 फीसदी है । सरकारी आंकड़ा कहता है कि सीमांत किसानों की औसत खेती 0.4 हेक्टेयर से घटकर 0.38 हेक्टेयर रह गई है । ऐसा ही छोटे, अर्ध मध्यम और मझोले किसान के साथ हुआ । कम जोत का सीधा असर किसानों की आय पर पड़ा है। अब वह जमीन के छोटे से टुकड़े पर अधिक कमाई चाहता है तो उसने पहले खेत की चौड़ी मेंढ़ को ही तोड़ डाला। इसके चलते वहाँ लगे पेड़ कटे । उसे लगा कि पेड़ के कारण हाल चलाने लायक भूमि और सिकुड़ रही है तो उसने पेड़ पर कुल्हाड़ी चला दी । इस लकड़ी से उसे तात्कालिक कुछ पैसा भी मिल गया । इस तरह घटती जाट का सीधा सर खेत में खड़े पेड़ों पर पड़ा । सरकार खेतों में पेड़ लगाने की योजना , सब्सिडी के पोस्टर छापती रही और किसान अपने काम होते रकबे को थोड़ा स बढ़ाने की फिराक में धरती के श्रंगार पेड़ों को उजाड़ता रहा । देश में बड़े स्तर पर धान बोने के चस्के ने भी बड़े पेड़ों को नुकसान पहुंचाया । साथ ही खेतों में मशीनों के इस्तेमाल बढ़ने ने भी पेड़ों की बली ली। काई बार भारी भरकम मशीनें खेत की पतली पगडंडी से लाने में पेड़ आड़े आते थे तो तात्कालिक लाभ के लिए उन्हें काट दिया गया ।
खेत तो काम
होंगे ही लेकिन पेड़ों का कम होना मानवीय
अस्तित्व पर बड़े संकट का आमंत्रण हैं । आज
समय की मांग है कि खेतों के आसपास सामुदायिक वानिकी को विकसित किया जाए , जिससे
जमीन की उर्वरा, धरती की कोख का पानी और हरियाली का सारा बना रहे ।
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