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बुधवार, 29 मई 2024

Still coal mining from rat-hole mines has not stopped

 

फिर भी नहीं बंद  हुआ चूहा- बिल खदानों से कोयला खनन

पंकज चतुर्वेदी

26 मई को असम के तिनसुकिया जिले की पाटकाई पहाड़ियों पर अवैध रूप से संचालित  “रेट होल माइंस ”  में दाब कर तीन लोग मारे  गए ।  विदित हो पास ही में मेघालय के पूर्वी  जयंतिया  जिले में  कोयला उत्खनन की  26 हजार से अधिक “रेट होल माइंस” अर्थात चूहे के बिल जैसी  खदाने बंद करने के लिए  राष्ट्रीय हरित  प्राधिकरण द्वरा दिए गए आदेश को दस साल हो गए लेकिन  आज तक एक भी खदान बंद नहीं हुई। कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने भी इन खतरनाक खदानों को बंद करने लेकिन पहले से निकाल लिए गए कोयले के परिवहन के आदेश दिए थे । इस काम की निगरानी के लिए मेघालय हाई कोर्ट द्वारा नियुक्त जस्टिस बी के काटके समिति ने अपनी 22 वीं अंतरिम रिपोर्ट में बताया है कि किस तरह ये खदानें अभी भी मेघों का देश कहे जाने वाले प्रदेश के परिवेश में जहर घोल रही है ।  उल्लेखनीय है कि कभी दुनिया में सबसे अधिक बरसात के लिए मशहूर  मेघालय में अब प्यास ने डेरा जमा लिया है। यहाँ की नदियां  जहरीली हो रही है, धरती पर स्थाई पर्यावरणीय संकट है और सांस में कार्बन घुल रहा है । यह सब हो रहा है इन खतरनाक खदानों से कोयले के अवैध, निर्बाध खनन के कारण। जब इन खदानों में फंस कर लोग मरते हैं तो हाल होता है और प्रशासन- पुलिस कागज भरती है- वायदे होते हैं , उसके बाद  कोयले की दलाली में सभी श्याम हो जाते हैं । गुवाहाटी  की होटलों में  सौदे होते हैं और  बाकायदा कागज बना आकर  दिल्ली के आसपास के ईंट भट्टों तक कोयले का परिवहन हो जाता है ।

हाई कोर्ट की कमेटी बताती है कि अभी भी अकेले पूर्वी जयंतिया जिले के  चूहा-बिल खदानों के बाहर 14 लाख मेट्रिक टन कोयला पड़ा हुआ है जिसको यहा से हटाया जाना है । दस साल बाद भी इन खड़ाओं को कैसे बंद किया जाए , इसकी “विस्तृत कार्यान्वयन  रिपोर्ट” अर्थात  डी पी आर प्रमाभिक  चरण में केन्द्रीय खनन  योजना और  डिजाइन  संस्थान लिमिटेड (सी एम पी डी आई) के पास लंबित है । जाहीर है कि न तो इसको ले कर कोई गंभीर है और न ही ऐसा करने की इच्छा शक्ति । एक बात और, 26 हजार की संख्या तो केवल एक जिले की है , ऐसी ही खदानों का विस्तार वेस्ट खासी हिल्स , साउथ वेस्ट खासी हिल्स और साउथ गारो हिल्स जिलों में भी है । इनकी कुल  संख्या साथ हजार से अधिक होगी ।

जस्टिस काटके की रिपोर्ट में कहा गया है कि “मेघालय पर्यावरण संरक्षण और पुनर्स्थापन निधि (एम ई पी आर एफ ) में 400 करोड़ रुपये की राशि बगैर इस्तेमाल की पड़ी है  और इन खदानों के कारण हुए प्रकृति को नुकसान की भरपाई का कोई कदम उठाया नहीं गया ।

मेघालय में प्रत्येक एक वर्ग किलोमीटर में 52 रेट होल खदाने हैं। अकेले जयंतिया हिल्स पर इनकी संख्या 26 हजार से अधिक है। असल में ये खदानें दो तरह की होती हैं।  पहली किस्म की खदान बामुश्किल तीन से चार फीट की होती  है।  इनमें श्रमिक रेंग कर घुसते हैं।  साईड कटिंग  के जरिए मजूदर को भीतर भेजा जाता है और वे  तब तक भीतर जाते हैं जब तक उन्हें कोयले की परत नहीं मिल जाती। सनद रहे मेघालय में कोयले की परत बहुत पतली  हैं, कहीं-कहीं तो महज दो मीटर मोटी। इसमें अधिकांश  बच्चे ही घुसते हैं। दूसरे किस्म की खदान में आयताकार आकार में 10 से 100 वर्गमीटर आमाप में जमीन को काटा जाता है और फिर उसमें 400 फीट गहराई तक मजदूर जाते हैं।  यहां मिलने वाले कोयले में गंधक की मात्रा ज्यादा है और इसे दोयम दजे।ं का कोयला कहा जाता है। तभी यहां कोई बड़ी कंपनियां खनन नहीं करतीं। ऐसी खदानों के मालिक राजनीति में  लगभग सभी दलों के लोग हैं और इनके श्रमिक बांग्लादेश, नेपाल  या असम से आए अवैध घुसपैठिये होते हैं।
एनजीटी द्वारा रोक लगाने के बाद मेघालय की पिछली  सरकार ने स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय आदिवासियों के अधिकार के कानून के तहत  इस तरह के खनन को वैध रूप देने का प्रयास किया था लेकिन केायला खदान(राष्ट्रीयकरण) अधिनियम 1973 की धारा 3 के तहत  कोयला खनन के अधिकार, स्वामित्व आदि हित केंद्र सरकार के पास सुरक्षित हैं सो राज्य सरकार इस अवैध खनन को वैध का अमली जामा नहीं पहना पाया। लेकिन गैरकानूनी खनन , भंडारण  और पूरे देश में इसका परिवहन चलता रहता है । आये रोज लोग मारे जाते हैं , कुछ जब्ती और गिरफ्तारियां होती हैं और फिर खेल जारी रहता हैं |

रेट होल खनन न केवल अमानवीय है बल्कि इसके चलते यहां से बहने वाली कोपिली नदी का अस्तित्व ही मिट सा गया है। एनजीटी ने अपने पाबंदी के आदेश में साफ कहा था कि खनन इलाकों के आसपास सड़कों पर कोयले का ढेर जमा करने से वायु, जल और मिट्टी  के पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा है। भले ही कुछ लोग इस तरह की खदानों पर पाबंदी से आदिवासी अस्मिता का मसला जोड़ते हों, लेकिन हकीकत  तो सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत नागरिक समूह की रिपेार्ट में बताया गया था कि अवैध खनन में प्रशासन, पुलिस और बाहर के राज्यों के धनपति नेताओं की हिस्सेदारी है और स्थानीय आदिवासी तो केवल शेाषित श्रमिक ही है।


सबसे ज्यादा चिंता इस बात की है कि कोयले की कालिख राज्य की जल निधियों की दुश्मन बन गई है। लुका नदी पहाड़ियों से निकलने वाली कई छोटी सरिताओं से मिल कर बनी है,इसमें लुनार नदी मिलने के बाद इसका प्रवाह तेज होता है। इसके पानी में गंधक की उच्च मात्रा, सल्फेट, लोहा व कई अन्य जहरीली धातुओं की उच्च मात्रा, पानी में आक्सीजन की कमी पाई गई है।

एक और खतरा है कि जयंतिया पहाड़ियों  के गैरकानूनी खनन से कटाव बढ़ रहा है , नीचे दलदल के बढ़ने से मछलियां कम आ रही हैं।  ऊपर से जब खनन का मलवा इसमें मिलता है तो जहर और गहरा हो जाता हें । मेघालय ने गत दो दशकों में कई नदियों को नीला होते, फिर उसके जलचर मरते और आखिर में जलहीन होते देखा है। विडंबना है कि यहां प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से ले कर एनजीटी तक सभी विफल हैं।

दुर्भाग्य है कि अदालत की फटकार है , पर्याप्त धन है लेकिन इन खदानों से टपकने वाले तेजाब से प्रभावित हो रहे जनमानस को कोई राहत नहीं हैं । यह हरियाली चाट गया , जमीन बंजर कर दी , भूजल  इस्तेमाल लायक नहीं रहा और बरसात में यह पानी बह कर जब पहाड़ी नदियों में जाता है तो वहाँ भी तबाही है । नदी में मछलिया लुप्त हैं।

मेघालय पुलिस यदा कदा  अवैध कोयला परिवहन के मुकदमे दर्ज करती है लेकिन ये कागजी औपचारिकता से अधिक नहीं, आज भी जेन्टिय हिल्स में असम  से आए रोहांगीय  श्रमिकों की बस्तियां हैं जो सस्ते श्रम को स्वीकार कर अपनी जान पर दांव लगा इन अवैध खदानों से हर रोज कोयला निकालते हैं । 

अभी तो मेघालय से बादलों की कृपा भी कम हो गई है, चैरापूंजी अब सर्वाधिक बारिश  वाला  गांव रह नहीं गया है।  यदि कालिख की लोभ में नदियां भी खो दीं तो दुनिया के इस अनूठे प्राकृतिक सौंदर्य वाली धरती पर मानव जीवन भी संकट में  होगा।

 

 

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