अरावली
के उजड़ने से गहरा रही है जलवायु परिवर्तन की मार
पंकज
चतुर्वेदी
अरावली पर्वतमाला की
गोद में बसे राजस्थान के संभवतया सबसे
हरे-भरे शहर अलवर में बीते शनिवार-रविवार,
जेसलमेर-बाड़मेर की तरह रेत के धोरे आसमान में
तैरते दिखे । शुक्रवार रात को भी 30 किमी प्रतिघंटा की रफ्तार से हवा चली और पूरा शहर
धूल में नहाया हुआ नजर आया। इस दौरान हल्की बारिश भी हुई। घरों - बाजार में मिट्टी
का अंबार लग गया । झुंझुनू और सीकर जिलों में
अलग-अलग घटनाओं में एक मां और उसके बच्चे सहित तीन लोगों की जान चली गई। लगभग 40
किमी प्रति घंटे की रफ्तार से चलने वाली हवाओं के साथ धूल भरी आंधी ने जयपुर, सीकर, दौसा और झुंझुनू में कहर बरपाया, जिससे पहले से ही चिलचिलाती गर्मी से जूझ रहे निवासियों के सामने
चुनौतियां और बढ़ गईं। चिंता की बात यह है कि इस तरह के धूल भरे अंधड़ की संख्या और
दायरा साल-दर-साल बढ़ता जा रहा है । समझना होगा कि यह सीधे-सीधे जलवायु परिवर्तन का
प्रभाव है और प्रकृति में मानवीय छेड़छाड़ ने इसे और गंभीर बना दिया है । वर्ष 2015 की बाद ऐसे अंधड़ों की
संख्या बढती जा रही है । अंधड़ से जान-माल का नुकसान तो होता ही है , सार्वजनिक
संपत्तियों को जबर्दस्त नुकसान होता है ।
अंतर्राष्ट्रीय जर्नल
'अर्थ साइंस इंफोरमैटिक्स' में प्रकाशित एक शोध ने पहले ही चेतावनी दे चुका
था कि अरावली पर्वतमाला में पहाड़ियों के गायब होने से राजस्थान में रेत के तूफान
में वृद्धि हुई है। भरतपुर, धोलपुर, जयपुर
और चित्तौड़गढ़ जैसे स्थान , जहां अरावली पर्वतमाला पर अवैध खनन, भूमि अतिक्रमण और हरियाली उजाड़ने की अधिक मार पड़ी है , को सामान्य से अधिक
रेतीले तूफानों का सामना करना पड़ रहा है।
केंद्रीय विश्वविद्यालय राजस्थान के पर्यावरण
विज्ञानं के प्रोफेसर एल के शर्मा और पीएचडी स्कॉलर आलोक राज द्वारा किए गए इस
अध्ययन का शीर्षक है “ एसेसमेंट ऑफ़ लेंड यूज़ डायनामिक्स ऑफ़ द अरावली यूजिंग इंटीग्रेटेड”।
यह गांठ
बांध लें कि मसला महज राजस्थान का नहीं
हैं , दिल्ली
और हरियाणा का अस्तित्व भी अरावली पर टिका
है और अरावली को नुकसान का अर्थ है कि देश एक अन्न के कटोरे पंजाब तक बालू के धोरों का विस्तार । इसरो का एक शोध
बताता है कि थार रेगिस्तान अब राजस्थान से बाहर निकल कर कई राज्यों में जड़ें जमा
रहा है। सनद रहे भारत के राजस्थान से सुदूर पाकिस्तान व उससे आगे तक फैले भीषण रेगिस्तान
से हर दिन लाखों टन रेत उड़ती है । खासकर
गर्मी में यह धूल पूरे परिवेश में छा जाती है । मानवीय जीवन पर इसका दुष्परिणाम ठण्ड
में दिखने वाले स्मोग से अधिक होता है । रेत के बवंडर खेती और हरियाली वाले इलाकों तक ना पहुंचे इसके
लिए सुरक्षा-परत या शील्ड का काम हरियाली और जल-धाराओं से सम्पन्न अरावली
पर्वतमाला सदियों से करती रही है। विडंबना है कि बीते चार दशकों में यहां मानवीय
हस्तक्षेप और खनन इतना बढ़ा कि कई स्थानों पर पहाड़ की श्रंखला की जगह गहरी खाई हो
गई और एक बड़ा कारण यह भी है कि अब उपजाऊ जमीन पर रेत की परत का विस्तार हो रहा है।
गुजरात के खेड ब्रह्म
से शुरू हो कर कोई 692 किलोमीटर तक फैली
अरावली पर्वतमाला का विसर्जन देश के सबसे ताकतवर स्थान रायसीना हिल्स पर होता है
जहां राश्ट्रपति भवन स्थित है। अरावली पर्वतमाला को कोई 65 करोड़ साल पुराना माना
जाता है और इसे दुनिया के सबसे प्राचीन पहाड़ों में एक गिना गया है। ऐसी महत्वपूर्ण
प्राकृतिक संरचना का बड़ा हिस्सा बीते चार दशक में पूरी तरह ना केवल नदारद हुआ, बल्कि कई जगह उतूंग शिखर की जगह डेढ सौ फुट गहरी खाई हो गई। असल में अरावली पहाड़ रेगिस्तान से चलने वाली
आंधियों को रोकने का काम करते रहे हैं जिससे एक तो मरूभूमि का विस्तार नहीं हुआ
दूसरा इसकी हरियाली साफ हवा और बरसात का कारण बनती रही।
अंतर्राष्ट्रीय
पत्रिका में छपी रिपोर्ट में कहा गया है
कि पिछले दो दशकों में कई अन्य पहाड़ियों
के अलावा,
ऊपरी अरावली पर्वतमाला की हरियाणा और उत्तरी राजस्थान में कम और मध्य
उंचाई की कम से कम 31 पहाड़ियां पूरी तरह गायब हो गई
हैं । ऊपरी स्तर पर पहाड़ियों का गायब होना नरैना, कलवाड़,
कोटपुतली, झालाना और सरिस्का में समुद्र तल से
200 मीटर से 600 मीटर की ऊँचाई पर दर्ज किया गया था। याद करें कोई तीन साल पहले
सुप्रीम कोर्ट ने भे सरकार से पूछा था कि आखिर कौन हनुमान जे ये पहाड़ियां उठा कर
ले गए ? सन 1975 से 2019 के दौरान किए गए अध्ययन में, यह पता
चला कि वन क्षेत्र में सघन बस्तियां बस जाना ,पहाड़ियों के गायब होने के प्रमुख
कारणों में से एक थे।
अध्ययन के परिणामों
से पता चला है कि 1975 से 2019 के बीच अरावली की 3676 वर्ग किमी भूमि बंजर हो गई ।
इस अवधी
में अरावली के वन क्षेत्र में 5772।
7 वर्ग किमी (7। 63 प्रतिशत) की कमी आई है । यदि यही हाल रहे तो 2059 तक कुल 16360। 8 वर्ग
किमी (21। 64 प्रतिशत) वन भूमि पर कंक्रीट के जंग उगे दिखेंगे । ऐसे हालात में अंधड़ की मार का दायरा बढेगा । अरावली पहाड़ का उजड़ना अर्थात वहां के जंगल और जल
निधियों का उजड़ना, दुर्लभ वनस्पतियों का लुप्त होना। इसके दुष्परिणाम सामने आरहे हैं । तेंदुए, हिरण और
चिंकारा भोजन के लिए मानव बस्तियों में प्रवेश करते हैं और मानव- जानवर टकराव के
वाकिये बढ़ रहे हैं । जान लें अंधड़ बढ़ने से
भी जानवरों के बस्ती में घुसने की घटनाएँ बढती हैं ।
यह रिपोर्ट दिल्ली से लेकर गुजरात तक पूरी रेंज में मार्बल
डंपिंग यार्ड की बढती संख्या को बेहद घटक निरुपित करती है । अवैध खनन और भूमि अतिक्रमण को कम करने के लिए
उपाय किए जाने चाहिए और लगातार क्षेत्र की निगरानी, वन
की रोकथाम और समाशोधन भी किया जाना चाहिए। जान लें यदि अरावली को और अधिक नुकसान हुआ तो तेज अंधड़
की मार से दिल्ली भी नहीं बचेगा ।
यह बेहद दुखद और
चिंताजनक तथ्य है कि बीसवीं सदी के अंत में अरावली के 80 प्रतिषत हिस्से पर हरियाली थी जो आज बमुश्किल सात फीसदी रह गई। जाहिर है कि हरियाली खतम हुई
तो वन्य प्राणी, पहाड़ों की सरिताएं और छोटे झरने भी लुप्त हो
गए। सनद रहे अरावली रेगिस्तान की रेत को
रोकने के अलावा मिट्टी के क्षरण, भूजल का स्तर बनाए रखने और
जमीन की नमी बरकरार रखने वाली कई जोहड़ व नदियों को आसरा देती रही है। अरावली की प्राकृतिक संरचना नश्ट होने की ही त्रासदी
है कि वहां से गुजरने वाली साहिबी, कृष्णावती , दोहन जैसी नदियां अब लुप्त हो रही है। वाईल्ड लाईफ इंस्टीट्यूट की एक
सर्वें रिपोर्ट बताती है कि जहां 1980 में अरावली क्षेत्र के
महज 247 वर्ग किलोमीटर पर आबादी थी, आज
यह 638 वर्ग किलोमीटर हो गई है। साथ ही इसके 47 वर्गकिमी में कारखाने भी हैं।