My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

बुधवार, 26 जून 2024

Desolation of Aravalli is deepening the impact of climate change.

 

अरावली के उजड़ने से गहरा रही है जलवायु परिवर्तन की मार

पंकज चतुर्वेदी



अरावली पर्वतमाला की गोद में बसे  राजस्थान के संभवतया सबसे हरे-भरे शहर अलवर में बीते  शनिवार-रविवार, जेसलमेर-बाड़मेर की तरह रेत के धोरे आसमान में तैरते दिखे । शुक्रवार रात को भी 30 किमी प्रतिघंटा की रफ्तार से हवा चली और पूरा शहर धूल में नहाया हुआ नजर आया। इस दौरान हल्की बारिश भी हुई। घरों - बाजार में मिट्टी का अंबार लग गया । झुंझुनू और सीकर जिलों में अलग-अलग घटनाओं में एक मां और उसके बच्चे सहित तीन लोगों की जान चली गई। लगभग 40 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से चलने वाली हवाओं के साथ धूल भरी आंधी ने जयपुर, सीकर, दौसा और झुंझुनू में कहर बरपाया, जिससे पहले से ही चिलचिलाती गर्मी से जूझ रहे निवासियों के सामने चुनौतियां और बढ़ गईं। चिंता की बात यह है कि इस तरह के धूल भरे अंधड़ की संख्या और दायरा साल-दर-साल बढ़ता जा रहा है । समझना होगा कि यह सीधे-सीधे जलवायु परिवर्तन का प्रभाव है और प्रकृति में मानवीय छेड़छाड़ ने इसे  और गंभीर बना दिया है । वर्ष 2015  की बाद ऐसे अंधड़ों की संख्या बढती जा रही है । अंधड़ से जान-माल का नुकसान तो होता ही है , सार्वजनिक संपत्तियों को जबर्दस्त नुकसान होता है ।



अंतर्राष्ट्रीय जर्नल 'अर्थ साइंस इंफोरमैटिक्स'  में प्रकाशित एक शोध ने पहले ही चेतावनी दे चुका था कि अरावली पर्वतमाला में पहाड़ियों के गायब होने से राजस्थान में रेत के तूफान में वृद्धि हुई है। भरतपुर, धोलपुर, जयपुर और चित्तौड़गढ़ जैसे स्थान , जहां अरावली पर्वतमाला पर अवैध खनन, भूमि अतिक्रमण और हरियाली उजाड़ने की अधिक मार पड़ी है , को सामान्य से अधिक रेतीले तूफानों  का सामना करना पड़ रहा है।  केंद्रीय विश्वविद्यालय राजस्थान के पर्यावरण विज्ञानं के प्रोफेसर एल के शर्मा और पीएचडी स्कॉलर आलोक राज द्वारा किए गए इस अध्ययन का शीर्षक है “ एसेसमेंट ऑफ़ लेंड यूज़ डायनामिक्स  ऑफ़ द  अरावली यूजिंग इंटीग्रेटेड”।  

यह गांठ बांध लें कि  मसला महज राजस्थान का नहीं हैं ,  दिल्ली और  हरियाणा का अस्तित्व भी अरावली पर टिका है और अरावली को नुकसान का अर्थ है कि देश एक अन्न के कटोरे पंजाब तक  बालू के धोरों का विस्तार । इसरो का एक शोध बताता है कि थार रेगिस्तान अब राजस्थान से बाहर निकल कर कई राज्यों में जड़ें जमा रहा है। सनद रहे भारत के राजस्थान से सुदूर पाकिस्तान व उससे आगे तक फैले भीषण रेगिस्तान से हर दिन लाखों टन रेत उड़ती है ।  खासकर गर्मी में यह धूल पूरे परिवेश में छा जाती है । मानवीय जीवन पर इसका दुष्परिणाम ठण्ड में दिखने वाले स्मोग से अधिक होता है । रेत के बवंडर  खेती और हरियाली वाले इलाकों तक ना पहुंचे इसके लिए  सुरक्षा-परत या शील्ड  का काम हरियाली और जल-धाराओं से सम्पन्न अरावली पर्वतमाला सदियों से करती रही है। विडंबना है कि बीते चार दशकों में यहां मानवीय हस्तक्षेप और खनन इतना बढ़ा कि कई स्थानों पर पहाड़ की श्रंखला की जगह गहरी खाई हो गई और एक बड़ा कारण यह भी है कि अब उपजाऊ जमीन पर रेत की परत का विस्तार हो रहा है।

गुजरात के खेड ब्रह्म से शुरू  हो कर कोई 692 किलोमीटर तक फैली अरावली पर्वतमाला का विसर्जन देश के सबसे ताकतवर स्थान रायसीना हिल्स पर होता है जहां राश्ट्रपति भवन स्थित है। अरावली पर्वतमाला को कोई 65 करोड़ साल पुराना माना जाता है और इसे दुनिया के सबसे प्राचीन पहाड़ों में एक गिना गया है। ऐसी महत्वपूर्ण प्राकृतिक संरचना का बड़ा हिस्सा बीते चार दशक में पूरी तरह ना केवल नदारद हुआ, बल्कि कई जगह उतूंग शिखर की जगह डेढ सौ फुट गहरी खाई हो गई। असल  में अरावली पहाड़ रेगिस्तान से चलने वाली आंधियों को रोकने का काम करते रहे हैं जिससे एक तो मरूभूमि का विस्तार नहीं हुआ दूसरा इसकी हरियाली साफ हवा और बरसात का कारण बनती रही।

अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका में छपी रिपोर्ट में कहा  गया है कि  पिछले दो दशकों में कई अन्य पहाड़ियों के अलावा, ऊपरी अरावली पर्वतमाला की हरियाणा और उत्तरी राजस्थान  में कम  और मध्य  उंचाई की कम से कम 31 पहाड़ियां पूरी तरह गायब हो गई हैं । ऊपरी स्तर पर पहाड़ियों का गायब होना नरैना, कलवाड़, कोटपुतली, झालाना और सरिस्का में समुद्र तल से 200 मीटर से 600 मीटर की ऊँचाई पर दर्ज किया गया था। याद करें कोई तीन साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने भे सरकार से पूछा था कि आखिर कौन हनुमान जे ये पहाड़ियां उठा कर ले गए ? सन 1975 से 2019 के दौरान किए गए अध्ययन में, यह पता चला कि वन क्षेत्र में सघन बस्तियां बस जाना ,पहाड़ियों के गायब होने के प्रमुख कारणों में से एक थे।

अध्ययन के परिणामों से पता चला है कि 1975 से 2019 के बीच अरावली की 3676 वर्ग किमी भूमि बंजर हो गई ।  इस अवधी  में अरावली  के वन क्षेत्र में 5772। 7 वर्ग किमी (7। 63 प्रतिशत) की कमी आई है ।  यदि यही हाल रहे तो 2059 तक कुल 16360। 8 वर्ग किमी (21। 64 प्रतिशत) वन भूमि पर कंक्रीट के जंग उगे दिखेंगे ।  ऐसे हालात में अंधड़ की मार का दायरा बढेगा ।  अरावली पहाड़ का उजड़ना अर्थात वहां के जंगल और जल निधियों का उजड़ना, दुर्लभ वनस्पतियों का लुप्त होना।  इसके दुष्परिणाम  सामने आरहे हैं ।  तेंदुए, हिरण और चिंकारा भोजन के लिए मानव बस्तियों में प्रवेश करते हैं और मानव- जानवर टकराव के वाकिये बढ़ रहे हैं ।  जान लें अंधड़ बढ़ने से भी जानवरों के बस्ती में घुसने की घटनाएँ बढती हैं ।  

यह रिपोर्ट  दिल्ली से लेकर गुजरात तक पूरी रेंज में मार्बल डंपिंग यार्ड की बढती संख्या को बेहद घटक निरुपित करती है ।  अवैध खनन और भूमि अतिक्रमण को कम करने के लिए उपाय किए जाने चाहिए और लगातार क्षेत्र की निगरानी, ​​वन की रोकथाम और समाशोधन भी किया जाना चाहिए। जान लें  यदि अरावली को और अधिक नुकसान हुआ तो तेज अंधड़ की मार से दिल्ली भी नहीं बचेगा ।  

यह बेहद दुखद और चिंताजनक तथ्य है कि बीसवीं सदी के अंत में अरावली के 80 प्रतिषत हिस्से पर हरियाली थी जो आज बमुश्किल  सात फीसदी रह गई। जाहिर है कि हरियाली खतम हुई तो वन्य प्राणी, पहाड़ों की सरिताएं और छोटे झरने भी लुप्त हो गए। सनद रहे अरावली  रेगिस्तान की रेत को रोकने के अलावा मिट्टी के क्षरण, भूजल का स्तर बनाए रखने और जमीन की नमी बरकरार रखने वाली कई जोहड़ व नदियों को आसरा देती रही है। अरावली  की प्राकृतिक संरचना नश्ट होने की ही त्रासदी है कि वहां से गुजरने वाली साहिबी, कृष्णावती , दोहन जैसी नदियां अब लुप्त हो रही है। वाईल्ड लाईफ इंस्टीट्यूट की एक सर्वें रिपोर्ट बताती है कि जहां 1980 में अरावली क्षेत्र के महज 247 वर्ग किलोमीटर पर आबादी थी, आज यह 638 वर्ग किलोमीटर हो गई है। साथ ही इसके 47 वर्गकिमी में कारखाने भी हैं।


 

Delhi is thirsty due to indifference of Yamuna

 

 

यमुना की बेपरवाही से प्यासी है दिल्ली

पंकज चतुर्वेदी


“रिवर” से “सीवर” बन गई  दिल्ली में यमुना को नया जीवन देने के लिए आज से कोई 9 साल पहले राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण अर्थात एन  जी  टी ने एक आदेश दिया था कि दिल्ली मने नदी का जहां तक बहाव  है अर्थात उसका फ्लड प्लैन या कछार है , उसका सीमांकन किया जाए । हालांकि यमुना द्वारा गर्मी में छोड़ी गई जमीन पर कब्जा करने में न सरकारी महकमें पीछे रहे और न ही भू  माफिया ।  एक कमेटी भी बनी थी जिसे  मौके पर जा कर उस स्थान तक चिन्हनकित करना था जहां अपने सम्पूर्ण यौवन पर आने के दौरान नदी का अधिकतम विस्तार होता हैं। 

न कभी  किसी ने जाना कि  सावन-भादों में जब नदी में जाम कर पानी होता है तो उसे तसल्ली से बहने के लिए कितना भूमि चाहिए और न ही कभी परवाह की गई कि नदी की गहराई कम होने से किस तरह समूचा जल-तंत्र गड़बड़ा रहा है । यह बात सरकारी बस्तों में दर्ज है कि यमुना के दिल्ली प्रवेश वजीराबाद बैराज से लेकर ओखला बैराज तक के 22 किलोमीटर में 9700 हेक्टेयर की कछार भूमि पर अब पक्के निर्माण हो चुके हैं और इसमें से 3638 हैक्टेयर को दिल्ली विकास प्राधिकरण खुद नियमित अर्थात वैध बना चुका है । कहना न होगा यहाँ पूरी तरह सरकारी  अतिक्रमण हुआ- जैसे 100 हेक्टेयर में अक्षरधाम मंदिर, खेल गांव का 63.5 हेक्टेयर, यमुना बैंक मेट्रो डिपो 40 हैक्टेयर और शास्त्री पार्क मेट्रो डिपो 70 हेक्टेयर। इसके अलावा आईटी पार्क, दिल्ली सचिवालय, मजनू का टीला और अबु फजल एनक्लेव जैसे बड़े वैध- अवैध अतिक्रमण  अभी भी हर साल बढ़ रहे हैं ।

 

 

 

 

 

 

समझना होगा कि अरावली से चल कर  नजफ़गढ़ झील में  मिलने वाली साहबी नदी और इस झील को यमुना से  जोड़ने वाली नैसर्गिक नहर का नाला बनना हो या फिर सारे कालेखान के पास बारा पुला  या फिर साकेत में खिड़की गाँव का सात पुला या फिर लोधी गार्डेन की नहरें, असल में ये सभी यमुना में जब कभी क्षमता से अधिक पानी या जाता तो उसे जोहड़-तालाब में सहेजने का जरिया थीं । शहर को चमकाने के नाम पर इन सभी सदियों पुरानी संरचनाओं को तबाह किया गया , सो न अब बरसात का पानी तालाब में जाता है और न ही बरसात के दिनों में सड़कों पर जल जमाव रुक पाता है ।  एनजीटी हर साल आदेश देता है लेकिन सरकारी महकमें भी कागज की नाव चला कर उन  आदेशों को पानी में डुबो देते हैं । दिल्ली में अधिकांश जगह पक्की सड़क या गलियां हैं ,अर्थात यहाँ बरसात के पानी को झील तालाबों तक कम से कम हानि के ले जाना सरल है , दुर्भाग्य है कि इस शहर में बरसने वाले पानी का अस्सी फीसदी गंदे नालों के जरिए   नदी तक पहुँचने  में ही बर्बाद हो जाता है । फिर नदी भी अपनी क्षमता से पचास फीसदी काम चौड़ी और गहरी रहा गई है  और इसमें बरसात के पानी  से अधिक गंदा मल-जल और औधयोगिक कचरा आता है । यमुना की गहराई घटने का क्या दुष्परिणाम होता है उसके लिए वजीराबाद जल संयत्र का उदाहरण काफी है ।  यह संयत्र वजीराबाद बैराज के पास बने जलाशय से यह पानी लेता है । अब जलाशय की गहराई  हुआ करती थी  4.26 मीटर , इसकी गाद को किसी ने साफ करने की सोची नहीं और अब इसमें महज एक मीटर से भी कम 0. 42 मीटर जल- भराव क्षमता रह गई । तभी 134 एम जी डी  क्षमता वाला संयत्र आधा पानी भी नहीं निकाल रहा ।

आज तो दिल्ली पानी के लिए पडोसी राज्यों पर निर्भर है लेकिन यह कोई  तकनीकी और दूरगामी हल नहीं है। दिल्ली शहर के पास यमुना जैसे सदा नीर नदी का 42 किलोमीटर लंबा हिस्सा है । इसके अलावा छह सौ से ज्यादा तालाब हैं जो कि बरसात की कम से कम मात्र होने पर भी सारे साल महानगर का गला तर रखने में सक्षम हैं । यदि दिल्ली में की सीमा में यमुना की सफाई के साथ – साथ गाद निकाल कर पूरी गहराई मिल जाए ।  इसमें सभी नाले गंदा पानी छोड़ना बंद कर दें तो महज  30 किलोमीटर नदी, जिसकी गहराई दो मीटर हो तो इसमें इतना निर्मल जल साल भर रह सकता है जिससे दिल्ली के हर घर को पर्याप्त जल मिल सकता है ।  विदित हो नदी का प्रवाह गर्मी में कम रहता है लेकिन यदि गहराई होगी तो पानी का स्थाई डेरा रहेगा । हरियाणा सरकार  इजराइल के साथ मिल कर यमुना के कायाकल्प की योजना बना रही है और इस दिशा में हरियाणा सिंचाई विभाग ने अपने सर्वे में पाया है कि यमुना में गंदगी के चलते दिल्ली में सात माह पानी की किल्लत रहती है। दिल्ली में यमुना, गंगा और भूजल से 1900 क्यूसेक पानी प्रतिदिन प्रयोग में लाया जाता है। इसका 60 फीसद यानी करीब 1100 क्यूसेक सीवरेज का पानी एकत्र होता है। यदि यह पानी शोधित कर यमुना में डाला जाए तो यमुना निर्मल रहेगी और दिल्ली में पेयजल की किल्लत भी दूर होगी।

सन  2019 में यमुना नदी के किनारों पर एक प्रयोग किया गया था -  वहाँ गहरे गड्ढे बनाए गए थे ताकि जब पानी एकत्र हो तो इनके जरिए जमीन में जज़्ब हो जाए । इसके अच्छे नतीजे भए आए  फिर उस परियजन में जमीन से अधिक कागज पर खांतियाँ  खोदी जाने लगीं।

वैसे एन जी टी सन 2015 में ही दिल्ली के यमुना तटों पर हर तरह के निर्माण पर पाबंदी लगा चुका है   इससे बेपरवाह  सरकारें मान नहीं  रही । अभी एक साल के भीतर ही लाख आपत्तियों के बावजूद सराय कालेखान के पास  “बांस घर” के नाम से  केफेटेरिया और अन्य निर्माण हो गए ।

जब दिल्ली बसी  ही  इसलिए थी कि यहाँ यमुना बहती थी , सो जान लें कि दिल्ली बचेगी भी तब ही जब यमुना अविरल बहेगी । दिल्ली की प्यास  और बाढ़ दोनों का निदान यमुना में ही है। यह बात कोई जटिल रॉकेट साइंस है नहीं लेकिन बड़े ठेके, बड़े दावे , नदी से निकली जमीन पर और अधिक कब्जे  का लोभ यमुना को जीवित रहने नहीं दे रहा । समझ लें नदी में पानी का रहना महज जल संकट का निदान ही नहीं हैं बल्कि बल्कि  जलवायु परिवर्तन की मार के चलते चरम गर्मी, सर्दी और बारिश से जूझने का एकमात्र  निदान भी नदी का साफ पाने से लबालब होना है ।

 

 

रविवार, 23 जून 2024

Assam's existence in danger due to land erosion

 

भूमि कटाव से संकट में असम का अस्तित्व

पंकज चतुर्वेदी



 

भले ही देश के बड़े हिस्से में गर्मी और पानी के संकट के चलते त्राहि-त्राहि हो , उत्तर-पूर्वी भारत में  चक्रवात “रेमल” के साथ शुरू हुई बरसात से बाढ़, भू कटाव के तबाही का जो सिलिसिल शुरू हुआ था, वह एक महीने बाद भी न केवल जारी है, बल्कि और गहराता जा रहा है । असम में ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों के किनारे बसे गाँव-कस्बे  साल दर साल सिकुड़ रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के गहराते संकट के  चलते जब बारिश और गर्मी के अतिरेक व हिमनद पर निर्भर नदियों में अनियमित और बेमौसमन तेज प्रवाह के चलते तटों का घुल कर पानी में समय जाना , बेहद गंभीर पर्यावरणीय, आर्थिक और सामाजिक को उपजा रहा है । इंडियन जर्नल ऑफ साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी के हाल ही के  वर्ष 2024 , अंक 17  में केवल ‘मोरईगांव’ जिले में नदी से हो रहे  कटाव के आंकड़ों का जो विश्लेषण किया गया है उससे साफ जाहीर होता है कि जिले का बड़ा हिस्सा नदी उदरस्थ कर चुकी है और कोई बड़ी बात नहीं कि जल्दी  इसका नामों-निशान मिट   जाए । सन 1988 से 2022 तक के आँकड़े बताते है कि इस जिले में नदी के बाएं तट पर सालाना भूमि कटाव 81. 54 मीटर है जबकि दायें तट पर हर साल 83.59 मीटर धरती कट कर नदी में समय रही है । यहाँ कटाव के चलते नदी  तेजी से अपनी रह बदल रही है और  यह खेत- घर – सरकारी इमारतों  को तबाह करती जा रही है ।

सदियों-सदियों पहले नदियों के साथ बह कर आई जिस मिट्टी ने कभी असम राज्य  का निर्माण किया , अब वही द्रुत – व्यापक जल- धाराएं  इस राज्य को बाढ़ व भूमि कटाव के श्रापित कर रही हैं । ब्रह्मपुत्र और बराक व उनकी कोई 50 सहायक नदियों का बेहद तेज  बहाव अपने किनारों की बस्तियों-खेत को जिस तरह उजाड़ रहा है उससे राज्य में कई तरह के संकट उपज रहे हैं, जिसमें विस्थापन और भूमिहीन हो जाना  बहुत मार्मिक हैं ।

राष्ट्रीय  बाढ़ आयोग के आंकड़े बताते हैं कि असम राज्य छह दशक के दौरान राज्य की 4.27 लाख हैक्टर जमीन  कट कर पानी में बह चुकी है जो कि राज्य के कुल क्षेत्रफल का 7.40 प्रतिशत है। हर साल औसतन आठ हजार हैक्टर जमीन नदियों के तेज बहाव में कट रही है । वैसे तो बढ़मपुत्र नद की औसत चौड़ाई 5.46 किलोमीटर है लेकिन कटाव के चलते कई जगह ब्रहंपुत्र का पाट 15 किलोमीटर तक चौड़ा हो गया है। यह बात राज्य सरकार की फ़ाइलों में दर्ज है कि सन 2001 में कटाव की चपेट में 5348 हैक्टर उपजाऊ जमीन आई, जिसमें 227 गांव प्रभावित हुए और 7395 लोगों को विस्थापित होना पड़ा। सन 2004 में यह आंकड़ा 20724 हैक्टर जमीन, 1245 गांव और 62,258 लोगों के विस्थापन पर पहुंच गया। अकेले सन 2010 से 2015 के बीच नदी के बहाव में 880 गांव पूरी तरह बह गए, जबकि 67 गांव आंशिक रूप से प्रभावित हुए। इस साल बरसात की शुरुआत में  ही बक्सा , बारपेटा , सोनितपुर, धुबरी, कामरूप, कोकराझाड,नलबाड़ी , उदालगुड़ी आदि जिलों में कटाव गंभीर हो गया है । डिब्रूगढ़ जिले में ऐथन के पास तिनखानग , माटिकाता में जमीन नदी में समय गई। यहाँ एथन से बोगिवईल तक बना तटबंध अधिकांश चटक गया है । लखीमपुर जिले के टेनही पंचाहीत में ना-आली और बालीगांव पूरी तरह नदी मेंक हले गए। करीमगंज जिले के बराईगांव का अस्तित्व भी संकट में है । वैज्ञानिकों ने इन  जिलों में नदी किनारे कटावग्रस्त गांवों का भविष्य  अधिकतम दस साल आंका  है।

वैसे असम की लगभग 25 लाख आबादी ऐसे गांवो में रहती है जहां हर साल नदी उनके घर के करीब  आ रही है। ऐसे इलाकों को यहां ‘चार’ कहते हैं। चार अर्थात कछार  यानि जहां तक नदी का अधिकतम विस्तार होता है । इनमें से कई नदियों के बीच के द्वीप भी हैं।  हर बार ‘चार’ के संकट, जमीन का कटाव रोकना, मुआवजा , पुनर्वास चुनावी मुद्दा भी होते हैं लेकिन यहां बसने वाले किस तरह उपेक्षित हैं इसकी बानगी यहां का साक्षरता आंकड़ा है जो कि महज 19 फीसदी है।  यहां की आबादी का 67 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे हैं। तिनसुखिया से धुबरी तक नदी के किनारे जमीन कटाव, घर-खेत की बर्बादी, विस्थापन, गरीबी और अनिश्तता की बेहद दयनीय तस्वीर है। कहीं लगोंके पास जमीन के कागजात है तो जमीन नहीं तो कहीं बाढ़-कटाव में उनके दस्तावेज बह गए और वे नागरिकता रजिस्टर में ‘डी’ श्रेणी में आ गए।  इसके चलते आपसी विवाद, सामाजिक टकराव भी गहरे तक दर्द दे रहा है।

सन 2019 में संसद में एक प्रश्न के उत्तर में जल संसाधन राज्य मंत्री रतनलाल कटारिया ने जानकारी दी थी कि अभी तक राज्य में 86536 लोग कटाव के चलते भूमिहीन हो गए। सोनितपुर जिले में 27,11 लोगों की जमीन नदी में समा गई तो मोरीगांव में 18,425, माजुली में 10500, कामरूप में 9337 लोग अपनी भूमि से हाथ धो बैठे हैं।

 

दुनिया के सबसे बड़ा नदी-द्वीप माजुली का अस्तित्व ब्रह्मपुत्र व उसके सखा-सहेली नदियों की बढ़ती लहरों से मिट्टी क्षरण या तट कटाव की गंभीर समस्या के चलते ही खतरे में हैं । माजुली का क्षेत्रफल पिछले पांच दशक में 1250 वर्गकिमी ये सिमट कर 800 वर्गकिमी हो गया हैं । हाल ही में रिमोट सेंसिंग से किए गए एक सर्वेक्षण में ब्रह्मपुत्र के अपने ही किनारों को निगलने की भयावह तस्वीर सामने आई हैं । पिछले 50 सालों के दौरान नदी के पश्चिमी तट की 758.42 वर्ग किलोमीटर भूमि बह गई । इसी अवधि में नदी के दक्षिण किनारों का कटाव 758.42 वर्ग किमी रहा ।

बेशक असम की भौगोलिक स्थिति जटिल है और वहाँ आने वाली तेज बढ़ का असली कारण उसके पड़ोसी राज्य पहाड़ों से आने वाला तेज बहाव हैं। असम की उपरी अपवाह में कई बांध बनाए गए। चीन ने भी अपने कब्जे वाले ब्रह्मपुत्र के उद्गम पर कई विशाल बांध बनाए हैं और जैसे ही वहाँ क्षमता  के अनुरूप पानी एकत्र हो जाता है, पानी को अनियमित तरीके से छोड़ दिया जाता है। एक तो नदियों का अपना बहाव और फिर साथ में बांध से छोड़ा गया जल, इनकी गति बहुत तेज होती है और इससे जमीन का कटाव होना ही है।  भारत सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि  असम में नदी के कटाव को रोकने के लिए बनाए गए अधिकांश तटबंध जर्जर हैं और कई जगह पूरी तरह नश्ट हो गए हैं। एक मोटा अनुमान हैकि राज्य में कोई 4448 किलोमीटर नदी तटों पर पक्के तटबंध बनाए गए थे ताकि कटाव को रेका जा सके लेकिन आज इनमें से आधे भी बचे नहीं हैं। बरसों से इनकी मरम्मत नहीं हुई , वहीं नदियों ने अपना रास्ता भी खूब बदला।

भूमि कटाव का बड़ा कारण राज्य के जंगलों व आर्द्र भूमि पर हुए अतिक्रमण भी हैं। सभी जानते हैं कि पेड़ मिट्टी का क्षरण रोकते हैं और बरसात को भी सीधे धरती पर गिरने से बचाते हैं। आर्द्र भूमि  पानी की मात्रा को बड़े स्तर पर नदी के जल-विस्तार को सोखते थे। राज्य की हजारों पुखरी-धुबरी नदी से छलके जल को साल भर सहेजते थे। दुर्भाग्य है कि ऐसे स्थानों पर अतिक्रमण का रोग ग्रामीण स्तर पर संक्रमित हो गया और तभी नदी को अपने ही किनारे काटने के अलावा कोई रास्ता नही दिखा।

आज जरूरत है कि असम की नदियों में ड्रेजिग के जरिये गहराई को बढ़ाया जाए। इसके किनारे से रेत उत्खान पर रोक लगे। सघन वन भी कटाव रोकने में मददगार होंगे। अमेरिका की मिसीसिपी नदी भी कभी ऐसे ही भूमि कटाव करती थी। वहां 1989 में तटबंध को अलग तरीके से बनाया गया और उसके साथ खेती के प्रयोग किए गए। आज वहां नदी-कटाव पूरी तरह नियंत्रित हैं। आने वाले दिनों में कम समय में अत्यधिक  और तेज बरसात होना ही है , गर्मी के चलते ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों में बैमौसम तेज बहाव  भी , ऐसे में  असम के अस्तित्व को बचाने के लिए  उसके तटों की सुरक्षा के लिए दूरगामी योजना अनिवार्य है , जो यहाँ के जल और जन दोनों को बचा सके ।

 

शुक्रवार, 21 जून 2024

Now thirsty Delhi prepare for flood

 

देखना ! फिर डूबेगी प्यासी दिल्ली

पंकज चतुर्वेदी


देश की राजधानी दिल्ली भी अजब है, अभी यहाँ के कंठ तर करने के लिए बीते आठ सालों की ही तरह फिर सुप्रीम कोर्ट को दाखल देना पड़ा और अब हिमाचल प्रदेश से अधिक पानी लिया जा रहा है । इंतजार करें एक महीने , जो आँखें  आसमान की तरफ एक एक बूंद  बरसात के लिए तरस रही हैं, वे  कुदरत की नियामत बरसते ही  इसए कोसते दिखेंगे । बेपानी विशालकाय शहर की  पूरी सड़कें, कालेनियां पानी से लबालब हो जाएंगी । कभी कोई सोचता नहीं कि दिल्ली की बाढ़ और सुखाड  का असल कारण तो कालिंदी के किनारों की क्रूरता है , जिसने नदी को नाले से बदतर कर दिया । यदि केवल यमुना को अविरल बहने दिया जाए और उसमें गंदगी  न डाली जाए तो दिल्ली से दुगने बड़े शहरों को पानी देने और बारिश के चरम पर भी हर बूंद को अपने में समेत ले की क्षमता इसमें हैं ।


सरकारी अनुमान है कि दिल्ली की आबादी  तीन करोड़  चालीस लाख के आक्रीब पहुँच गई है और यहाँ हर दिन पानी की मांग प्रतिदिन 1290 मिलियन गेलन (एम एल डी) है जबकि  उपलब्ध पानी महज 900 एम एल डी है । इसमें से लगभग आधे पानी का अजारिया यमुना ही है , शेष जल  ऊपरी गंगा नहर, भाखड़ा बांध आदि से आता है। काफी कुछ जमीन की कोख खोद कर भी आपूर्ति होती है ।

दिल्ली में यमुना को जीवित करने के लिए कोई चार दशक से कई हजार करोड़ फूंकने के बाद भी गंदे नालों  का उसमें गिरना बंद हुआ नहीं । यमुना नदी दिल्ली में 48 किलोमीटर बहती है। यह नदी की कुल लंबाई का महज दो फीसदी है। जबकि इसे प्रदूषित  करने वाले कुल गंदे पानी का 71 प्रतिशत और बायोकेमिकल आक्सीजन डिमांड यानी बीओडी का 55 प्रतिशत यहीं से इसमें घुलता है। अनुमान है कि दिल्ली में हर रोज 3297 एमएलडी गंदा पानी और 132 टन बीओडी यमुना में घुलता है। दिल्ली में अकेले यमुना से 724 मिलियन घनमीटर पानी आता है, लेकिन इसमें से 580 मिलियन घन मीटर पानी बाढ़ के रूप में यहां से बह भी जाता है।

 

फरवरी-2014 कं अंतिम हफ्ते में ही शरद यादव की अगुवाई वाली संसदीय समिति ने जो कहा था वह आज दस साल बाद भी यथावत है । रिपोर्ट में दर्ज है कि यमुना सफाई के नाम पर व्यय 6500 करोड़ रूपए बेकार ही गए हैं क्योंकि नदी पहले से भी ज्यादा गंदी हो चुकी है। समिति ने यह भीक हा कि दिल्ली के तीन नालों पर इंटरसेप्टर सीवर लगाने का काम अधूरा है। विडंबना तो यह है कि इस तरह की चेतावनियां, रपटें ना तो सरकार के और ना ही समाज को जागरूक कर पा रही हैं।



दिल्ली में यमुना के संकट का कारण केवल गंदगी मिलना ही नहीं है , यहाँ नदी गाद और कचरे की कारण इतनी उथली हो गई है कि यदि महज एक लाख क्यूसेक पानी या जाए तो इसमें बाढ़ या जाती है  । नदी की जल ग्रहण  क्षमता को काम करने में बड़ी मात्रा में जमा गाद (सिल्ट), रेत, सीवरेज, पूजा-पाठ सामग्री, मलबा और तमाम तरह के कचरे का योगदान है । नदी की गहराई काम हुई तो इसमें पानी भी काम आता है । आजादी के 77  साल में कभी भी नदी की गाद साफ करने का कोई प्रयास हुआ ही नहीं , जबकि नदी में  कई निर्माण ऑपरियोजनाओं के मलवे को डालने से रोकने में एन जी टी के आदेश नाकाम रहे हैं ।  सन 1994 से लेकर अब तक यमुना एक्शन प्लान के तीन चरण आ चुके हैं, हजारों करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं पर यमुना में गिरने वाले दिल्ली के 21 नालों की गाद भी अभी तक नहीं रोकी जा सकी। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के आदेश भी बेमानी ही साबित हो रहे हैं।


एक बात और  दिल्ली में यमुना का खतरे का निशान 204.8 मीटर और चेतावनी का निशान 204 मीटर अब प्रासंगिक है नहीं । यतों अंग्रेज सरकार ने तब  निर्धारित किया था जब यमुना का बहाव और हाथी डुब्बा गहराई  आज के  मयूर विहार, गांधी नगर, ओखला,  अक्षरधाम तक हुआ करती थी । एक तरफ नदी कि चौड़ाई काम की गई तो दूसरी तरफ गहराई में गाद बाहर दी – इस तरह जीवनदायी पावन जल के मार्ग को कूड़ा ढोने की धार बना दिया गया ।

दुर्भाग्य है कि कोई भी सरकार दिल्ली में आबादी को बढ़ने से रोकने पर काम कर नहीं रही और इसका खामियाजा भी यमुना को उठाना पड़ रहा है , हालांकि  इसकी मार  उसी आबादी को पड़ रही है । यह सभी जानते हैं कि  दिल्ली जैसे  विशाल आबादी वाले इलाके में हर घर पानी और मुफ़्त पानी एक बड़ा चुनावी मुद्दा है और जब नदी-नहर पानी की कमी पूरी आकर नहीं पाते तो जमीन में छेद पकार पानी उलिछा जाता है , यह जाने बगैर कि इस तरह भूजल स्तर से बेपरवाही का सर यमुना के जल स्तर पर ही पड़ रहा है । मसला आब्दि को बसाने का हो या उनके लिए सुचारु परिवहन के लिए पूल या मेट्रो बनाने का, हर बार यमुना की धारा के बीच ही खंभे गाड़े जा रहे हैं । वजीराबाद और ओखला के बीच यमुना पर कुल 22 पुल बन चुके हैं और चार निर्माणधीन हैं और इन  सभी ने यमुना के नैसर्गिक प्रवाह , गहराई और चौड़ाई को नुकसान किया है ।  रही बची कसर अवैध आवासीय निर्माणों ने कर दी । इस तरह देखते ही देखते यमुना का कछार , अर्थात जहां तक  नदी अपने पूरे यौवन में लहरा सके , को ही  हड़प गए । कछार  में अतिक्रमण ने नदी के फैलाव को ही रोक दिया और इससे जल-ग्रहण क्षमता कम हो गई ।  तभी  इसमें पानी आते ही , कुछ ही दिनों में बह जाता है और फिर से कालिंदी उदास सी दिखती है ।

यह बात सरकारी बस्तों में दर्ज है कि यमुना के दिल्ली प्रवेश वजीराबाद बैराज से लेकर ओखला बैराज तक के 22 किलोमीटर में 9700 हेक्टेयर की कछार भूमि पर अब पक्के निर्माण हो चुके हैं और इसमें से 3638 हैक्टेयर को दिल्ली विकास प्राधिकरण खुद नियमित अर्थात वैध बना चुका है । कहना न होगा यहाँ पूरी तरह सरकारी  अतिक्रमण हुआ- जैसे 100 हेक्टेयर में अक्षरधाम मंदिर, खेल गांव का 63.5 हेक्टेयर, यमुना बैंक मेट्रो डिपो 40 हैक्टेयर और शास्त्री पार्क मेट्रो डिपो 70 हेक्टेयर। इसके अलावा आईटी पार्क, दिल्ली सचिवालय, मजनू का टीला और अबु फजल एनक्लेव जैसे बड़े वैध- अवैध अतिक्रमण  अभी भी हर साल बढ़ रहे हैं ।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के एक शीध के मुताबिक  यमुना के बाढ़ क्षेत्र में 600 से अधिक आर्द्रभूमि और जल निकाय थे, लेकिन “उनमें से 60% से अधिक अब सूखे हैं। यह  बरसात के पानी को सारे साल  सहेज कर रखते लेकिन अब इससे शहर में बाढ़ आने का खतरा है।” रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि “यमुना बाढ़ क्षेत्र में यमुना से जुड़ी कई जल- तिजोरियों का संपर्क तटबंधों के कारण नदी से टूट गया ।”

वैसे एन जी टी सन 2015 में ही दिल्ली  के तटों पर निर्माण पर पाबंदी लगा चुका है  ल इससे बेपरवाह  सरकारें मान नहीं  रही । अभी एक साल के भीतर ही लाख आपत्तियों के बावजूद सराय कालेखान के पास  “बांस घर” के नाम से  केफेटेरिया और अन्य निर्माण हो गए ।

जब दिल्ली बसई ही इस लिए थी कि यहाँ यमुना बहती थी , सो जान लें कि दिल्ली बचेगी भी तब ही जब यमुना अविरल बहेगी । दिल्ली की प्यास  और बाढ़ दोनों का निदान यमुना में ही है। यह बात कोई जटिल रॉकेट साइंस है नहीं लेकिन बड़े ठेके, बड़े दावे , नदी से निकली जमीन पर और अधिक कब्ज का लोभ यमुना को जीवित रहने नहीं दे रहा । तैयार रहिए , भले ही अदालत जाइए, अपनी संपदा  यमुना को चोट पहुँचने के चलते दिल्ली डूबेगी ही ।

शुक्रवार, 14 जून 2024

Increasing summer days, increasing problems

 

बढ़ते गर्मी के दिन, बढ़ती परेशानियाँ

पंकज चतुर्वेदी



अभी लोगों के तन  से होली के रंग छूटे भी नहीं थे कि पूरा उत्तरी भारत तीखी गर्मी की चपेट में  गया ।  कुछ जगह पश्चिमी पश्चिमी विक्षोभ के कारण बरसात भी हुई लेकिन ताप कम नहीं हुआ । देश के लगभग 60 फीसदी हिस्से में अब 35 दीगृ से 45 डेगगरी की गर्मी के कहर के 100 दिन हो गए हैं और चेतावनी है कि आने वाले दो हफ्ते  मौसम ऐसा ही रहेगा । वैसे भी यदि मानसून या भी गया तो भले ही तापमान नीचे आए लेकिन उमस से होने वाली अप्रेक्षणियाँ गर्मी की ही तरह तंग करती रहेंगी ।  चिंता की बात है कि इस बार गरमीं के प्रकोप ने न तो हिमाचल प्रदेश की सुरम्य वादियों को बख्शा और न ही उत्तराखंड के लोकप्रिय पर्यटन स्थलों को । चिंता की बात यह है कि गंगा-यमुना के मैदानी इलाकों में लू का प्रकोप तेजी से बढ़ रहा है , खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश  जो कि गंगा-यमुना दे दोआब के साथ-साथ बहुत सी छोटी- माध्यम नदियों का घर है और कभी घने  जंगलों  के लिए जाना जाता था , बुंदेलखंड की तरह तीखी गर्मी की चपेट में आ  रहा है । यहाँ पेड़ों की पत्तियों में नमी  के आकलन से पता चलता है कि आने वाले दशकों में हरित प्रदेश कहलाने वाला  इलाका बुंदेलखंड की तरह सूखे- पलायन-निर्वनीकरण का शिकार हो सकता है ।


 

आधा जून पार हो गया है और अभी भी शिमला और मनाली जैसे  स्थानों का तापमान 30 के आसपास है । हमीरपुर जिले में 44.5 तो कांगड़ा, चंबा, नाहन ,मंडी आदि में पारा 41 से नीचे आने को तैयार नहीं। मौसम  विभाग इस महीने की आखिरी हफ्ते तक कई जगह लो की चेतावनी जारी आकर चुका है । उत्तराखंड की राजधानी  देहरादून में भीषण गर्मी ने तोड़ा रिकॉर्ड, 122 सालों बाद सबसे ज्‍यादा तापम 42.4 दर्ज किया गया । 


पिछले पांच दिनों से दून का पारा
41 डिग्री सेल्सियस से ऊपर बना हुआ है। सुबह से ही सूरज आग उगल रहा है। गुरुवार को दून का न्यूनतम तापमान भी सामान्य से तीन अधिक 26.0 डिग्री सेल्सियस रहा। इसके अलावा पंतनगर का अधिकतम तापमान सामान्य से पांच अधिक 41.0 और न्यूनतम 26.0 डिग्री सेल्सियस रहा। मुक्तेश्वर का अधिकतम तापमान सामान्य से सात अधिक 31.2 व न्यूनतम 26.0 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया। टिहरी का अधिकतम तापमान सामान्य से तीन अधिक 31.6 व न्यूनतम 26.0 डिग्री सेल्सियस रहा।



यह गर्मी अब इंसान के लिए संकट बन रही है । राजस्थान, दिल्ली , हरियाणा और पंजाब में लगातार  तीखी गर्मी ने हवा कि गुणवत्ता को खराब किया है । इसके अलावा लू लगने , चक्कर आने , रक्तचाप अनियमित होने से झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में 200 से अधिक मौत हो चुकी है।  लगातार गर्मी ने  पानी की मांग बढ़ाई  और संकट भी । सबसे बड़ी बात गर्मी से शुद्ध पेयजल की उपलबद्धता घटी है।  प्लास्टिक बोतलों में  बिकने वाला पानी हो या फिर आम लोगों द्वारा सहेज कर रखा गया जल, तीखी गर्मी ने प्लास्टिक बोतल में उबाल गए पानी के जहर बना दिया । पानी का तापमान बढ़न तालाब-नदियों की सेहत खराब कर रहा है। एक तो वाष्पीकरण तेज हो रहा है, दूसरा पानी अधिक गरम होने से जल में विकसित होने वाले जीव-जन्तु और वनस्पति मर रहे हैं ।



तीखी गर्मी भोजन की पौष्टिकता की भी दुश्मन है । तीखी गर्मी में गेंहू, कहने के दाने छोटे हो रहे हैं और उनके  पौष्टिक  गुण घट रहे हैं। वैसे भी तीखी गर्मी में पका हुआ खान जल्दी सड़ –बुस  रहा है । फल-सब्जियां जल्दी खराब हो रही हैं । खासकर गर्मी में आने वाले वे फल जिन्हे केमिकल लगा कर पकाया जा रहा है , इतने उच्च तापमान में जहर बन रहे हैं और उनका सेवन करने वालों के अस्पताल का बिल बढ़ रहा है ।

इस बार की गर्मी की एक और त्रासदी है कि इसमें रात का तापमान कम नहीं हो रहा, चाहे पहाड़ हो या मैदानी महानगर , बीते दो महीनों से  न्यूनतम तापमान सामनी से पाँच डिग्री तक अधिक रहा ही है । खासकर सुबह चार बजे भी लू का एहसास होता है और इसका कुप्रभाव यह है कि बड़ी आबादी की नींद पूरी नहीं हो पा रही। खासकर स्लम, नायलॉन आदि के किनारे रहने वाले मेहनतकश लोग  उनींदे से सारे दिन रहते है और इससे उनकी कार्य क्षमता पर तो असर हो ही रहा है,  शरीर में कई विकार या रहे है।  जो लोग सोचते हैं कि वातानुकूलित संयत्र से वे इस गर्मी की मार से सुरक्षित है , तो यह बड़ा भ्रम है। लंबे समय तक  एयर कंडीशनर वाले कमरों में रहने से  शरीर की नस –नाड़ियों में संकुचन,  मधुमेह और जोड़ों के दर्द का खामियाजा ताजिंदगी भोगना पड़ सकता है ।



मार्च-24 में संयुक्त राष्ट्र के खाध्य और कृषि संगठन (एफ ए ओ ) ने भारत में एक लाख लोगों के बीच सर्वे कर एक रिपोर्ट में बताया है कि गर्मी/लू के कारण गरीब परिवारों को अमीरों की तुलना में पाँच फीसदी अधिक आर्थिक नुकसान होगा। चूंकि आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग बढ़ते तापमान के अनुरूप अपने कार्य को ढाल लेते हैं , जबकि गरीब ऐसा नहीं कर पाते ।

भारत के बड़े हिस्से में दूरस्थ अञ्चल तक  100 दिन के विस्तार में लगातार बढ़ता तापमान न केवल पर्यावरणीय संकट है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक त्रासदी-असमानता और संकट का कारक भी बन रहा है । यह  गर्मी अकेले शरीर को नहीं प्रभावित कर रही इससे इंसान की कार्यक्षमता प्रभावित होती है , पानी और बिजली की मांग बढती है , उत्पादन लागत भी बढती है ।  


सवाल यह है कि प्रकृति के इस बदलते  रूप के सामने इंसान क्या करे ? यह समझना होगा कि  मौसम के बदलते मिजाज को जानलेवा हद तक ले जाने वाली हरकतें तो इंसान ने ही की है । फिर यह भी जान लें कि प्रकृति की किसी भी समस्या का निदान हमारे अतीत के ज्ञान में ही है, कोई  भी आधुनिक विज्ञान इस तरह की दिक्कतों का हाल नहीं खोज सकता। आधुनिक ज्ञान के पास तात्कालिक निदान और कथित सुख के साधन तो हैं लेकिन कुपित कायनात से जूझने में वह असहाय है । अब समय या गया ही कि इंसान बदलते मौसम के अनुकूल अपने कार्य का समय, हालात, भोजन , कपड़े आदि में बदलाव करे । उमरभरी गर्मी और उससे उपजने वाली लू की मार से बचना है तो अधिक से अधिक  पारम्परिक पेड़ों का रोपना  जरुरी है। शहर के बीच बहने वाली नदियाँ, तालाब, जोहड़ आदि यदि निर्मल और अविरल  रहेंगे  तो बढ़ी गर्मी को सोखने में ये सक्षम होंगे । खासकर बिसरा चुके कुएं और बावड़ियों को जीलाने से जलवायु परिवर्तन की इस त्रासदी से बेहतर तरीके से निबटा जा सकता है । आवासीय और  कार्यालयों के निर्माण की तकनीकी और सामग्री में बदलाव , सार्वजनिक  परिवहन को बढ़ावा, बहु मंजिला भवनों का ईको फ्रेंडली होना , उर्जा संचयन, शहरों के तरफ पलायन रोकना , ऑर्गेनिक खेती  सहित कुछ ऐसे उपाय हैं जो बहुत कम व्यय में देश को भट्टी बनने  से बचा सकते हैं ।  

 

 

 

Flood is not a villain!

  बाढ़ खलनायक नहीं होती ! पंकज चतुर्वेदी साल के दस महीने लाख मिन्नतों के बाद जब आसमान से जीवनदाई बरसात का आशीष मिलता है तो भारत का बड़ा हि...